Saturday, April 30, 2011

.......मन छाया उजियारा।


विमुख हुए तुम,जग सूना है,
सन्मुख तो सब-कुछ है प्यारा।
मिले जो तेरी प्रेम-दृष्टि तब, 
उलसित मन छाया उजियारा।
 
 
 
तुम हिमश्रोत सरित उद्गम मैं
तुम प्रवाह मैं जल की धारा।
बनकर श्रोणित हृदयशिरा में,
बहते बन  जीवन की धारा।
 
तुम नीरद प्यासी मैं धरती,
तुम सूरज मैं घुप अँधियारा।
तुम ही मेरे सुखक्षण बनते,
होता जब भी  मनदुखियारा।
 
 
 
तुम बरखा मैं गिरती बूँदें,
शीतल तुम मैं निर्झरधारा।
जीवन देह शक्ति तुम मेरे,
प्राण तुम्ही अस्तित्व हमारा।
 
भाव हो तुम जो शब्द बनूँ मैं,
साज तुम्ही जो वाद्य हमारा।
लय तुम ही जो सुर मैं साधूँ,
गीत तुम्ही संगीत हमारा।
 
 
 
तुम प्रकाश मैं नयनदीप हूँ,
दृष्टि- सिद्धि  नयन का तारा ।
मै कृति रचनाकार तुम्ही हो,
तुम यौवन सौन्दर्य हमारा।
 

Friday, April 29, 2011

.....तुम अद्भुत रचनाकार हो।


पुष्प का सौन्दर्य अनुपम,
अप्रतिम तुम देते कहाँ से!
तितलियों का रंग अद्भुत,
चित्र - रंग लाते कहाँ से!
दृष्टि जाती जिस दिशा में,
तेरी रचना मुग्ध करती।
तुम अद्भुत रचनाकार हो।
 
 

 
गगन का यह रंग नीला,
प्रभात का  आलोक पीला,
दिशाओं को आगोश लेती
यह सप्तवर्णी देव-मेखला,
प्रांजलि दें सूर्य किरणें
स्वर्ण शिखरों को सजाते,
तुम अद्भुत स्वर्णकार हो।
 
जलधि में जलतरंग बजती,
मेघ दामिनि नृत्य करती,
हिमनिधि की घाटियों में
शुभ्र सरिता नाद करती।
तरुवरों की फुनगियों पर
पवन पद से थाप देते,
तुम अद्भुत नृत्यकार हो।
 
 
 
बुलबुलों से गीत गाते,
कोकिला कंठ तान देते,
पक्षी कलरव भेरि करते,
शुक-बकुल आह्वान करते।
बाँसुरी से सुर सजाकर
आरोह व अवरोह भरते,
तुम अद्भुत संगीतकार हो।
 
गगन थाली नित सजाते
सुदीपमाला प्रकट करते
नयन दीपक को जलाकर
जीवपथ आलोक करते,
रवि,शशि और गगनतारे
सबमें तेरी दीप्ति जलती
तुम अद्भुत दीपकार हो।
 
 
जलनिधि की राशि विस्तृत
वाष्प श्यामल मेघ बनती,
रजत बूँदें वृष्टि बनकर
कूप नद तालाब भरतीं
जीव के परमार्थ कारण
विविध घट में जल सजाते,
तुम अद्भुत कुंभकार हो।

Thursday, April 28, 2011

कौन हो तुम !


आदि हो,अनादि हो
अन्त हो या अनंत हो!
क्षितिज हो, दिगंत हो,
धरा हो या शून्य हो!



दृष्टि हो या चेतना,
राग हो या वेदना,
अग्नि हो या वृष्टि हो,
प्रलय हो या सृष्टि हो!

निर्माण हो या हो विलय
वाह्य हो या हो निलय,
राग हो या विराग हो?
पुष्प हो या पराग हो?



उदय हो या अस्त हो?
अर्ध हो या समस्त हो?
मान हो अपमान हो,
प्राप्ति हो या उपदान हो?

शब्द हो या ब्रह्म हो,
जीव या ब्रह्मांड हो?
अगम हो या प्रज्ञ हो,
बस तुम्ही ही विज्ञ हो।


प्रश्न और समाधान भी कि,
कौन हो तुम।


Wednesday, April 27, 2011

पुष्प ! तुम अति हृदय विशाल हो।


पुष्प ! तुम अति हृदय विशाल हो।
रंग हो, परिपूर्ण हो तुम
प्रेमीजनों की आसक्ति हो ,
सौन्दर्य की अभिव्यक्ति हो तुम,
रूप-रस-गंध-कामना की शक्ति हो





किन्तु न लेश भी मद किया है
शीश धारण सहज होते,
किन्तु न कोई पद लिया है

मान क्या अपमान क्या,
स्नेह क्या, अधिकार क्या ,
देवार्चना रतिश्रृंगार क्या,
मुकुट-शोभित पद-दलित क्या
तुम रहे समभाव से ही।
जिये निस्पृह भाव से ही



जन्म उत्सव में सहजता,
मृत्यु श्रद्धांजलि भी तटस्थता
मोक्षज्ञान हो , बुद्ध से तुम
पुष्प ! तुम अति हृदय उदार हो

Tuesday, April 26, 2011

जीवन बना अग्निपथ यात्रा....


जीवन बना अग्निपथ यात्रा,
बीच भँवर की धारा।
प्रियतम तेरे प्रेमभाव से,
मन को मिले किनारा।



तेज दुपहरी तपते रस्ते,
सूर्य अग्नि की धारा।
आँचल उड़ता प्रिये तुम्हारा,
शीतल छाँव सहारा।

कंठ सूखते हलक हैं प्यासे,
जीवन तिक्त बूँद जलधारा।
प्रियतम तुम मेरी मनगंगा,
बहती अमृतधारा।



तपते प्रस्तर, कंटक बिखरे,
पाँव छत-विछत सारा।
तेरी प्रेमदृष्टि का लेपन,
हरे वेदना सारा।

मन घायल, आत्मा विदीर्णित,
लोहित हुआ हृदय दुश्वारा।
तुम बन जाती प्रेम शिराएँ,
मन क्लेष हरो तुम सारा।


Monday, April 25, 2011

…. किन्तु अपरिचित हृदय वेदना।


सजल नयन के मोती देखे,
किन्तु अपरिचित हृदय वेदना।
देखा खिला स्मितमय चेहरा,
किन्तु अनसुना मन का रुदना।



भृकुटि बलों का मान तो देखा,
देखी नही हृदय-वत्सलता।
उपालम्भ की प्रतिध्वनि सुन ली,
तो प्रणय गीत की तान भी सुनता!

किसलय का कोमल स्पर्श लिया तो,
कांटो की थोडी चुभन भी लेते।
जलधारा स्वयं जब हुए तिरोहित,
तो औरों की नैया भी खे देते।



भीगा मन जो शंका की वृष्टि से,
तो प्रेम-शपथ-विश्वास भी करते
मन विनोद में  असमर्थ रहा तो
प्रेमदृष्टि दे मनपीडा ही हरते।।

अभिव्यक्ति में बाधा थी तो,
नयन इशारे से ही कह देते।
प्रेम-विकल राधा गोकुल में,
मोहन प्राण शक्ति दे आते ।



दिया न जो दो शब्द प्रेम के,
विषबाणों के प्रहार  न करते।
जो हृदय वेदना हर न सके तो
मन-कटुता की पीर न भरते।

कातर मन-हिय दो बूँद लहू से,
माँ का अमृतरस पान विसरते!
मन संकुचित उसे शीशार्पण से,
जिस थाती से तुम अवतरते ?



Wednesday, April 20, 2011

जो हृदय का गीत था, वह........


जो हृदय का गीत था,
वह अश्रु-कम्पन बन गया।
पुष्प से उल्लसित बसंत,
उजाड मिहिर निर्भव हुआ।।
 
 
कामना में जो अनन्त था,
अब शून्य सा संकुचित है । 
दृष्टि का उत्कर्ष था जो,
अब अदृश्य और अगम्य है।।
जो साज था, आवाज था,
वह विमुख और विमौन है।
जो शब्द था ,अभिव्यक्ति था,
वह अपरिचितो सा कौन है?
 
 
जो प्राण था,संज्ञान था,
अब निष्पंद व निर्जीव है।
जो मान था , अभिमान था,
अवहेलना का प्रतिजीव है।।
जो ज्ञान था, समाधान था,
अब अज्ञानता व निराधान है।
जो विश्वास और विवेक था,
अब संदेहप्रद व अपजान है।।
 
 
जो भरत था, जो राम था,
वह बालि और सुग्रीव है।
जो कृष्ण था, बलराम था,
कुरु- पांडु बैर अतीव है।।
जो हृदय सत्संग था ,वह
अब नयन-कंटक-शूल है।
जो शक्ति था,था द्विभुजबल ,
अब निश्तेज निबल निमूल है।।
 
 
जो प्रेम था, सद्भाव था,
अब द्वेष और विद्वेष है।
जो नेह था ,जो सनेह था,
अब कलुषता व कुनेह है।।


 

Monday, April 18, 2011

............मैं कविता के दीप जलाता हूँ।



सूरज ढल रहा है,
सितारे दूर बैठे हैं।
थोडी सी रोशनी हो,
इसलिए मैं कविता के दीप जलाता हूँ।
इसलिए मैं  कविता…….



दिशाएँ मौन बैठी हैं,
हवाएँ शान्त स्थिर है।
घुटन कुछ कम हो,
इसलिए मैं शब्द-चँवर झेलता हूँ।
इसलिए मैं कविता………

दुपहरी तेज है तपिस है,
नहीं किसी वृक्ष का छाँव भी।
भावना का पगा सिर पर हो,
इसलिए गीत मुकुट गढता हूँ।
इसलिए मैं कविता…………



थके है पाँव मन थका है,
पथ मे विश्राम-स्थल भी नही।
पुश्त को आराम थोडा मिल सके,
इसलिए संगीत मरहम मलता हूँ।
इसलिए मैं कविता………

बहुत बिखराव है मन में,
दरकते हुए रिश्ते हैं हृदय मे।
दिल को दिल से मिला पाऊँ,
इसलिए प्रेमधागे जोडता हूँ।
इसलिए मैं कविता………..



आवेश मे हैं लोग भृकुटि तनी है।
कोई किसी की सुनता नही।
दिलो के बीच संवाद फिर से हो सके
इसलिए प्रेमाक्षरो के पुल बनाता हूँ।
इसलिए मैं प्रेमगीत लिखता हूँ।