Saturday, July 30, 2011

ढाई आखर प्रेम का.....


प्यार एक शक्तिशाली भावना है और यह  एक व्यक्ति की दूसरे के लिए गहरे स्नेह, भक्ति या यौन इच्छा में प्रकट होता है.  यदि प्यार लगाव( नेह या लगन) मात्र के रूप में देखा जाता है तो इसमें  प्रायः शामिल है यौन आकर्षण या कामेच्छा (यौन आग्रह की वृत्ति), और वासना  . प्यार का अभिप्राय भावनाओं से है जो  रिश्तों या वस्तुओं से जुड़ी होती हैं और विभिन्न रूपों जैसे यौन प्यार, भाई-बहन के प्यार, और परमेश्वर के प्रेम के रूप में भी अभिव्यक्त होता है.  यह लगाव निर्जीव के प्रति , साथ ही साथ लोगों को प्रति , या विचारों के लिए भी महसूस किया जा सकता है, और यह  एक अमूर्त के रूप में भी व्यक्त हो सकता है. प्यार के कई अलग अलग प्रकार हो सकते हैं-  वस्तु में अलग , प्रवृत्ति में अलग, और अभिव्यक्ति में अलग. प्यार और चाह (इच्छा से संबंधित प्यार) के बीच अंतर को कारण प्यार के प्रकार की जटिलता और बढ जाती है. 

यौन प्यार, प्यार की वह श्रेणी है जिसमें ,वस्तु जिससे  प्यार है , के कब्जे की इच्छा की प्रवृत्ति होती है. इच्छा की प्रवृत्ति अर्जनशील होती है. यौन प्यार , मात्र इच्छा से उत्पन्न  प्यार है, और इच्छा का उन्माद तब तक  जारी रहता है, जब तक कि व्यक्ति उस प्यारी वस्तु के कब्जे से संतुष्ट है. शारीरिक कब्जा यौन इच्छा, यौन भूख, या यौन प्यास की संतुष्टि के लिए आधार है. प्यार के अन्य सात्विक रूपों में वस्तु या व्यक्ति जिससे प्रेम होता है, उस पर किसी प्रकार के आधिपत्य या अधिकार की प्रवृत्ति नहीं होती बल्कि  प्यारी वस्तु के ही लाभ की प्रवृत्ति सदैव मन में होती है. वह प्रेम स्वार्थी है जो प्रेम करने वाले के लिये उसकी भूख, प्यास, या भूख की जरूरत को संतुष्ट करने  मात्र की तरह ही ईच्छा पूर्ति की तरह अभिव्यक्त होता है. वह प्रेम परोपकारी है जो प्रेम की जाने वाली वस्तु या व्यक्ति मात्र के कल्याण या  लाभ के लिए ही, काम करता है. वैवाहिक प्यार स्वार्थ और परोपकारिता का एक सुंदर संयोजन है. 

प्रेम शब्द व उसकी विभिन्न पारिभाषिक कसौटियाँ -

प्राचीन भाषाओं में प्रेम के मुख्य प्रकार को परिभाषित करनें हेतु तीन अलग - अलग शब्द है - यूनानी भाषा में EROS, PHILIA और Agape; और लैटिन भाषा में AMOR AMICITA, या DILECTIO, CARITAS. हालांकि, अंग्रेजी भाषा में ऐसे कोई विशिष्ट शब्द नहीं है और इसलिए यह आवश्यक हो जाता है  कि “sexual love”, “love of friendship”, and “love of charity” जैसे वाक्यांशों का प्रयोग अर्थ भेद समझने हेतु आवश्यक हो जाता है. बाइबिल ग्रंथों में व्यक्त प्रेम  के विचारों में  AMOR, DILECTIO, और CARITAS के बीच कोई फर्क नहीं है. उदाहरण के लिए, The Gospel में सेंट मैथ्यू, (अध्याय 22, छंद 37, 38, और 39 के अनुसार) the Great Commandments of The Laws of Moses: में कहते हैं: “Thou shalt love the LORD thy GOD with all thy heart, and with all thy soul, and with all thy mind. This is the first and great commandment. And the second is like unto it. Thou shalt love thy neighbour as thyself.”  इस तरह जीसस क्राईस्ट ने  आत्म प्यार ,परमेश्वर के प्रेम , और एक व्यक्ति का दूसरे के प्रति प्रेम,  तीन अलग अलग प्रकार के प्रेमों के बीच बीच एकता व समानता बताया है. उनके द्वारा यह स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट नहीं है कि व्यक्ति को प्रेम के बदले में वापस प्रेम या प्यार की उम्मीद करनी चाहिए या नहीं. उन्होने प्रेम को किसी भी प्रयोजन से संलग्न नहीं किया है, और इच्छा, अनुलग्नक, और अपने प्यार की संतुष्टि की प्रकृति का वर्णन नहीं किया है.

प्रेम की जटिलता:
प्रेम एक बहुत ही जटिल भावनात्मक वृत्ति है और यह जटिल इसलिये भी है कि यह हमेशा खुशी या खुशी की भावना प्रदान नहीं कर सकता. प्रेम के बारे में एक तथ्य यह है, कि यह अक्सर स्वयं के विपरीत यानि नफरत में बदल जाता है. कभी कभी एक ही वस्तु के लिये  प्यार और नफरत साथ-साथ होते हैं, कभी कभी प्यार ही नफरत के लिए प्रेरित करता है, और प्यार खुद ही ईर्ष्या, क्रोध और भय का कारण हो सकता है. प्रेम ही जुनून बन सकता है, खुशी और दर्द के विरोधाभासों व कारण और प्रभाव के संबंध के अनुसार,  प्रेम अन्य सभी दूसरे भावों को  पैदा करने लगता है. प्रेम व्यक्तिगत अनुभव के अनुरूप अत्यंत चर होता है और यह दोनों , सकारात्मक और नकारात्मक आवेगों,  के संचालन में शामिल होता है.  भारतीय परंपरा में बडे ही ध्यान व गम्भीरता से इस जटिल भावनात्मक व्यवहार की जांच की गई है और यहाँ  लोगों के प्यार के तीन प्रमुख भेद या श्रेणियों को समझने के लिए और प्रेम में  संयम की भावना के अनुपालन हेतु, प्रेम को नैतिकता, सदाचरण व धर्म की मर्यादाओं के अनुरूप ही आचरण व व्यवहार की अनुमति देता है. भारतीय संस्कृति प्रेमोन्माद , यौन जुनून के साथ जुड़े भावनाओं, के किसी अमर्यादित भाषाई या आचरण अभिव्यक्ति की अनुमति नहीं देती. भारतीय शास्त्रीय भाषाओं में प्यार के आग्रह व दावे हेतु पाश्चात्य भाषाओं का तुलना में समकक्ष भाषाई शब्दों का प्रायः वर्जना व अभाव है. भारतीय  नियम और शब्दावली में प्रेम की अभिव्यक्ति हेतु उपयोग में लाये जाने वाले प्रत्येक आचरण व शब्द  के साथ  संलग्न एक विशेष अर्थ होता है.
लव बनाम प्रेम:

Love यानि प्यार एक सार्वभौमिक शब्द नहीं है और इस Love के विचार को भारतीय परंपरा और शास्त्रीय साहित्य में ज्यादा व्यक्त नहीं किया जाता है. बाइबल के कई अलग अलग संस्करणों में शब्द "Love" बाइबल में बार - बार प्रकट होता है.  बाइबल के कई संस्करणों और उनके शब्दकोष अनुभाग या बाइबिल शब्दकोश में प्यार का अर्थ स्पष्ट किया गया है कि यह प्यार और स्नेह की गहरी भावना, किसी को या कुछ और के लिए भक्ति के रूप में परिभाषित है  और बहुत सावधानी से यौन इच्छा और यौन जुनून को इस सात्विक प्रेम की परिभाषा से बाहर रखा है. जबकि अंग्रेजी भाषी दुनिया में, और अंग्रेजी साहित्य में, शब्द Love को प्रायः कामेच्छा, वासना, और जुनून यौन आकर्षण पर आधारित इच्छा का वर्णन करने के लिए प्रयोग किया जाता है. तो Love एक सामान्य शब्द है और इसका अर्थ हमेशा सात्विकता,भातृत्वप्रेम और सद्भावना ही नहीं हो सकता. इस तरह अंग्रेजी भाषा में Love शब्द का जिन सामान्य अर्थों में उपयोग करते हैं, भारतीय संस्कृति में मर्यादा व सदाचरण की सूक्ष्म बाधाओं के कारण  इस शब्द का वैसा सामान्य अर्थों में उपयोग नहीं कर सकते हैं. यहाँ प्यार  विभिन्न श्रेणियों में और उन्हें परिभाषानुरूप अलग रखा गया  हैः  यौन आकर्षण के साथ जुड़ी भावनाओं को विशेष रूप से 'काम' और तीव्र यौन जुनून या इच्छा को मोह नाम से जाना जाता है. कोई तीव्र या भावुक इच्छा को काम कहा जा सकता है और इस काम के प्रभावगत किये जाने वाले आचरण और व्यवहार को मोह  कहा जा सकता है. 
भगवान के लिए प्रेम को भक्ति या भक्ति के संदर्भ में व्यक्त किया जा सकता है और उसके प्रति गहरी इच्छा को प्रीति बुलाया जा सकता है. प्रीति या प्रीत एक सात्विक इच्छा है. यह ईष्ट भी कहा जाता है.सदाचरण व धर्मानुरूप ही व्यक्ति को ईच्छा करने की अनुमति है और इसी को प्रीति कह सकते हैं  .हम प्रीति की भावना सदाचरण व धर्मानुरूप व्यक्त कर सकते हैं और यह परंपरा और स्थापित परंपराओं और सामाजिक मानदंडों को स्वीकार्य है. यदि कोई व्यक्ति  किसी दूसरे आकर्षक व्यक्ति हेतु  अपने मनोरंजन मात्र को करने के लिए यौन आकर्षण के विचार रखता है, इसे प्रीत के रूप में भावनाओं को व्यक्त करना नहीं कह सकते, यह काम प्रेरित मोह मात्र है . यह "ईष्ट" नहीं कहा जा सकता. . रामायण की कथा में, जब श्रीलंका के राजा रावण राजकुमारी सीता के स्वयंवर में भाग लेकर उनसे शादी करना चाहता था तो उसकी यह इच्छा वैध थी, उसे इस यौन आकर्षण को महसूस करने की वैधता थी और यह काम नहीं था. लेकिन, जब उसने सीता  का सबल अपहरण किया था, जबकि वह विधिवत् राजकुमार राम की विवाहिता थीं, तो यह  इच्छा और यौन आकर्षण उसके तीव्र अनियंत्रित मोह भाव का प्रतिनिधित्व करता है, और उसका यह कर्म काम से प्रभावित था. रावण विवाहिता सीता के लिए अपने प्यार को व्यक्त करने के लिए हकदार नहीं था, और इस तरह के तीव्र इच्छा या जुनून को ही यौन वासना या मोह के रूप में जाना जाता है. 


इसी तरह, एक व्यक्ति का एक सम्मानजनक या वैध तरीके से एक नारी के लिए प्यार की अभिव्यक्ति को  प्रीति या प्रीत कह सकते हैं. यदि दो व्यक्तियों के बीच का संबंध अवैध व धर्म-विपरीत है, तो इसे प्रीत नहीं कहा जा सकता है. एक पिता का प्यार, या माँ के प्यार, वात्सल्य या भाई का प्रेम, स्नेह एक प्राकृतिक प्रेम-भावना है जो यौन आकर्षण या काम की इच्छा से संबंधित नहीं है. शब्द "प्रेम" का उपयोग  स्नेह, दोस्ती, दया (दया, करुणा या), की भावनाओं का वर्णन करने के लिए प्रयोग किया जाता है और इससे प्राप्त  खुशी (आनंद) है जिसका  कोई भी संबंध यौन इच्छाओं और जुनून की संतुष्टि से नहीं है.पति और पत्नी के बीच स्नेह की गहरी भावना को प्रायः "अनुराग" , जो एक अंतरंग दोस्ती का संकेत है, कहा जाता है. 
भारतीय परंपरा में, स्नेह या परमेश्वर के स्नेह की गहरी भावना को भक्ति या भक्ति के रूप में कहा गया है. मीराबाई ने स्नेह की ऐसी गहरी भावना कृष्ण हेतु व्यक्त की है और यह कृष्ण के प्रति मात्र यौनाकर्षण व  Love नहीं कह सकते. कवि जयदेव ने  वृंदावन में भगवान कृष्ण की रचनात्मक गतिविधियों के अपने प्रसिद्ध वर्णन में युवा गोपियों का  अपने प्रियतम कृष्ण के प्रति तीव्र कामुक भावनाओं को दर्शाया गया है जो कि उनकी प्रभु के प्रति उनकी तीव्र भक्ति का एक उत्पाद मात्र है. तो गोपियों का कृष्ण के प्रति इस तीव्र प्रेम को मात्र एक  यौन जुनून पूर्ण Love या प्यार नहीं कह सकते हैं.

आत्म प्यार और आत्ममोह:

चिंता का विषय प्रेम या प्यार नहीं है, बल्कि आत्ममोह ,व्यक्ति का स्वयं के प्रति जुनुनी प्यार, है. मनोविज्ञान में 'शब्द' आत्ममोह का प्रयोग अतिरेक आत्म - प्यार को परिभाषित करने हेतु किया जाता है. हमें अपने भारतीय समाज में प्रायः  लोगों के आत्ममोह,narcissistic प्रवृत्तियों का सामना करना पड़ा है, हालाँकि  भारतीय परंपरा में हमें खुद को मात्र शारीरिक स्वयं के साथ पहचान की स्वीकृति नहीं है. भारतीय परंपरा बार - बार हमें जीवन के व्यापक स्वरूप व इसके  सार और सत्य की पहचान के बारे में निर्देश और याद दिलाती है और मात्र शारीरिक आत्म संलग्नता को निषेध करती है. 


किंतु प्रश्न यह उठता है कि यदि किसी व्यक्ति का स्वयं के शरीर व स्वास्थ्य के प्रति आत्म लगाव की कोई भावना नहीं है, व्यक्ति का स्वयं के प्रति प्रेम व सम्मान नहीं है , तो उसका दूसरे के प्रति, या अपने पड़ोसी के प्रति प्रेम कैसे हो सकता है . यदि व्यक्ति का स्वयं के प्रति प्रेम व सौहार्द की उम्मीद नहीं है, उसका अन्य के प्रति या अपने पड़ोसी के प्रति किसी प्रेम व सौहार्द के मुद्दे बेमानी ही है.

शायद प्रेम का निर्वाह बहुआयामी व एक बुद्धिमत्ता व सदाचारपूर्ण व्यवहार से ही संभव है।