Tuesday, August 30, 2011

.. तुम उदार, अति मन उदार है तेरा।



मन उदार हे प्रभु! हो तुम सम मेरा।
तुम उदार, अति मन उदार है तेरा।

तुम उदार सर्व-सृष्टि समाहित।
जल-थल-नभ सर्वत्र प्रवाहित।
प्राण वायु हे! निर्बाध सुवाहित।
शब्द रूप हे! ओंकार आवाहित।

तव प्रताप धरा जीवनमय होई।
भृकुटिविलास सृष्टिलय होई।
गोचर-अगोचर तुम्हइ हो सोई।
हम नि:अस्तित्व तुम्हइ जो खोई।

देहभवन तव-आत्मा विराजित।
मन मंदिर में तव-चेतना स्थापित।
प्राणवायु  त्वयै-जीवन सप्रवाहित।
अग-अंग त्वयै ही शक्ति निरूपित।

शिला स्पर्श करि अहिल्या तारे।
खाया प्रेमभाव फल-भीलनी-जुठारे।
केवट ने पाँव पखारा हे जगतारनहारे।
बध्यो ग्राह जब गज ने हरिनाम पुकारे।

ताप हरो,क्लेष हरो तुम मन का।
रक्षा करो हमारी जैसे करते अपने प्रण का।
हे!कारक,पालक,संघारक इस जग का।
चिरआलोक रहे मन में तव-ज्ञान-दीप का

Sunday, August 28, 2011

शिवमेवम् सकलम् जगत: .....संघे शक्ति कलयुगे ।


.....संघे शक्ति कलयुगे ।


देश में चल रही वर्तमान गहमा-गहमी, भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठी बहस, ,जन-आंदोलन, धरना , अनसन-हडताल और परिणामस्वरूप संसद द्वारा जन-लोकपाल बिल के मुद्दे पर बहस और प्रस्ताव का पास होना निश्चय ही देश के लोकतंत्र में एक ऐतिहासिक घटना  है , किंतु इस तथ्य  को , जो कि सरकार, व कुछ सांसदों व राजनीतिक दलों द्वारा उठाया जा रहा है और इन आंदोलनों व जनाग्रहों से देश की लोकतांत्रिक व संवैधानिक व्यवस्था को हो सकने वाले दूरगामी खतरों के ध्यान में रखते हुये चिंता व्यक्त की जा रही है , कि यह मुद्दा इतना सरल व सीधा नहीँ है जितना आंदोलनकारियों व इसके अगुआ लोगों द्वारा बताने की कोशिश हो रही है , को भी नकारा नहीं जा सकता । पर इस अति आवेश पूर्ण वातावरण व सरकारी असमंजस की परिस्थितियों  में एक तथ्य स्पष्ट दिखता है कि आज देश की राजनीतिक व्यवस्था, सरकार, सरकारीतंत्र और इसकी नौकरशाही एक दोराहे पर अनिर्णय व अनिश्चय की स्थिति- किंकर्तव्यम् किं- न कर्तव्यम् में खडी है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के वर्ष 1991 में किये गये उल्लेखनीय सुधारों व उदारीकरण के पूर्व भारतीय सरकार और नौकरशाही की मुख्य भूमिका निषेधात्मक थी - परमिट और लाइसेंस राज में नौकरशाह, सरकारी अधिकारी और मंत्री मुख्यतया निषेधाज्ञा जारी करने के अभ्यस्त थे।उस अवधि में प्राइवेट क्षेत्र की भारतीय अर्थव्यवस्था में भूमिका न्यून थी, सब कुछ सरकारी क्षेत्र के नियंत्रण में होने, आपूर्ति के सीमित संसाधनों व स्तर के कारण स्वाभाविक रूप से जन आकांक्षायें व माँग का दबाव भी कम था।चाहे राशनकार्ड लेना हो, पासपोर्ट बनवाना हो,गैस का कनेक्सन लैना हो,सरकारी कोटे में मकान या प्लाट आबंटित कराना हो, कार या स्कूटर खरीदना हो या उनका लाइसेस बनवाना हो, रेल या हवाई जहाज यात्रा का आरक्षण कराना हो,दूरसंचार पर लम्बी दूरी की काँल करनी हो, लोग लम्बी प्रतीक्षा सूची व लम्बी लाइन लगाने के अभ्यस्त थे।

किन्तु अर्थव्यस्था के उदारीकरण, वैश्वीकरण व खुली बाजार व्यवस्था के आने से लोगों की आकांक्षाएँ, जन-सेवाओं के प्रति अपेक्षायें , उपभोग की वस्तुओं व सेवाओं की माँग में भारी वृद्धि हुई है , जिनको पूरा करने में सरकार व सरकारी तंत्र असफल व ळाचार दिखता है।

1991 के बाद देश का आर्थिक व सामाजिक ढाँचा तो बदल गया किन्तु सरकारी तंत्र व उसका प्रशासनिक ढाँचा जस का तस रहा,सिवाय आंशिक व छिटपुट सुधारों के ।हमारा सरकारी तंत्र अभी भी अपने निषेधात्मक मनोवृत्ति से नहीं बाहर निकल पाया है।विभिन्न जनसेवाओं को प्रदान करने में होनेवाली हीला-हवाली, नाकारापन व असफलता से जनता का सरकार व सरकारी तंत्र के प्रति आक्रोश बढता जा रहा है ।और यह जनआंदोलन आमजनता की सरकारी तंत्र के प्रति उपजी इन्हीं निराशाओं  के विरुद्ध  प्रतिक्रिया कह सकते हैं।

तो सरकार के सामने आज सबसे बडी चुनौती है- सरकारी तंत्र व जनसेवा निकाय़ों का ढाँचागत व आमूल-चूल परिवर्तन,इनकी प्रदर्शन क्षमता को जनसाधारण की माँग व अपेक्षा के अनुकूल स्थापित करना ।यह है तो एक कठिन चुनौती, क्योंकि कोई नयी व्यवस्था तो फिर भी सुगमता से स्थापित हो जाती है, किंतु किसी वर्तमान व्यवस्था का ढाँचागत परिवर्तन बड़ा ही दुष्कर कार्य होता है , क्योंकि यह प्रक्रिया स्वयं के अनेक अंतर्विरोधों का सामना करने को बाध्य होती है ।फिर भी इसे करना असंभव भी नहीं ।

आशा की किरण हैं देश में वर्तमान कुछ महत्वपूर्ण जनसेवाओं से संबंधित क्षेत्र व विभाग, जिनमें पिछले एक-डेढ दशकों में उल्लेखनीय सुधार हुये हैं- जैसे- टेलीफोन व मोबाइल सेवाएँ, बैंकिंग सेवाएँ, संसदीय व विधान सभा के आम चुनाव, समाचार व मीडिया ।इन क्षेत्रों में आधुनिक सूचना तकनीकि के उपयोग, व ढाँचागत सुधारों के द्वारा सेवाओं की दक्षता व गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार हुआ है, और हमारे ये क्षेत्र ग्राहक-सेवा में निश्चय ही आज विश्वस्तरीय सेवा प्रदान कर रहे हैं।

इंटरनेट से रेल टिकट आरक्षण, पासपोर्ट के लिये आवेदन, बिजली बिल,टेलीफोन बिल, प्राँपर्टी टैक्स का आँन-लाइन भुगतान, लैंड व प्रापर्टी का आनलाइन रिकार्ड व संबंधित आवश्यक कागजादों को आँन-लाइन डाउनलोड करने की सुविधा, जैसे महत्वपूर्ण व सकारात्मक कदम हैं, जो कि जनसेवाओं के गुणवत्ता व दक्षतापूर्ण प्रदायगी में निश्चय ही मील के पत्थर साबित हो रहे हैं। भारत सरकार द्वारा शुरू किया गया सर्वभारत यूआईडी प्रोजेक्ट आधार इस दिशा में महत्वपूर्ण ढाँचागत आधार सिद्ध हो सकता है।  

समस्या के वृहत् स्तर को देखते हुये मात्र सरकारी प्रयास नाकाफी होगा। समस्याओं के समाधान में नवाचार ( Innovative Solutions) , उचित तकनीकी साधनों का उपयोग व कार्यकुशल मानवसंसाधन का सफल प्रबंधन सरकारी व निजी क्षेत्र, दोनों, के साझा प्रयास, सहयोग व  आपसी भागीदारी से ही संभव है। इस दिशा में सटीक तरीके से डिजाइंड पीपीपी परियोजनायें  आने वाले समय में जनसेवाओं    की सक्षम व संतोषजनक प्रदायगी में अपरिहार्य व महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। कल के सुरक्षित, सुनहरे व उन्नत भारत व भविष्य के लिये यह संगठित व साझा प्रयास विकल्प-रहित है।

...निरस ,विषद, गुनमय फल जासू।


तुलसी दास जी ने रामचरित मानस में संत की परिभाषा बडे ही सटीक ढंग से की है -


संत हृदय नवनीत समाना ,
कहा कबिन पर कहइ न जाना ।
निज परिताप द्रवहिं नवनीता,
पर दु:ख दु:खी संत सुपुनीता ।
संत सुभाव जु सहज कपासू,
                  निरस,विषद,गुनमय फल जासू ।

तात्पर्य यह है कि अनेक कवियों ने संत हृदय की कोमलता की तुलना नवनीत ( मक्खन ) से की है , किंतु यह तुलना अपूर्ण है क्योंकि नवनीत तो अपने ही ताप ( गरमी) से पिघल जाता है , जबकि संत का हृदय तो दूसरे के दु:ख से ही द्रवित होता है ।   संत का स्वभाव तो कपास के वृक्ष जैसा होता है , जो किसी रस (भोग-विलास की लालसा) से रहित, विस्तारपूर्ण (वसुधैवकुटुम्बकम् की भावना से ओत-प्रोत) , व उसका फल अनेक गुणों (ऐसी योग्यतायें जो परमार्थ के काम आती हैं ) से युक्त होता है ।

एक चौहत्तर वर्ष का बुजुर्ग व्यक्ति जब आम देशवासियों के कल्याण हेतु नि:स्वार्थ भाव से अपने प्राण व शरीर की कदापि चिंता न करते हुये यदि इतना शारीरिक तप कर रहा है और हम सबकी ही भलाई हेतु कष्ट उठा रहा है , यही तो संत-स्वभाव कहलाता है ।

महात्मा गाँधी ने अनेकों बार देश व समाज के कल्याण हेतु शारीरिक तप व त्याग का कठिन उदारण प्रस्तुत किया ।उनके जीवन का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट दिखता है कि उनके कर्म व विचार में प्रथम स्थान  साधारण जन व समाज की वेदना का उन्मूलन था,और वे इसके लिये किसी भी हद तक के त्याग,तपस्या, बलिदान व अहिंसक संघर्ष करने को सदैव तत्पर रहते थे ।इसीलिये तो वे हम सबके- हर देशवासी के बापू थे और हम उन्हें अपना राष्ट्रपिता मानते हैं।

प्रसन्नता की बात यह है कि महात्मा गाँधी आज भी हमारे जनमानस, नई पीढी, के विचार व व्यवहार में उतने ही प्रासंगिक व प्रेरणाश्रोत बने हुये हैं , जितना वे स्वयं अपने जीवन काल में व अपने समकालीन पीढी के लिये थे ।वे इसी तरह हमारे देश व समाज के लिये निरंतर आदर्श व प्रेरणाश्रोत बनें रहें, हम सबको यह मंगल-कामना निरंतर करते रहना चाहिये।

यह लेख मेरे ब्लाग का पचासवाँ लेख है, और मुझे हार्दिक प्रसन्नता यह हो रही है कि मैं इस लेख में यह विशेष व सामयिक चर्चा कर पा रहा हूँ ।

Friday, August 26, 2011

संवाद और विश्वसनीयता


हम सब शब्दों व बातों से कहते तो बहुत कुछ हैं,कभी-कभी तो हम शोर की हद तक अपनी बात कहने की कोशिश करते हैं, समझाना भी बहुत कुछ चाहते हैं,पर जटिल प्रश्न तो यही है कि कहे जाने या कहें तो सुनने वाले ने कितना सुना,गुना और समझा ? यह कहने और समझने के बीच का घाटा एक तरह से संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न कर देता है

पति-पत्नी तो कई वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं,एक दूसरे से कहने सुनने में कोई कोर-कसर भी नहीं छोडते, पत्नियाँ वैसे भी शादी के कुछ वर्षों के अनंतर पति के प्रति काफी मुखर हो जाती हैं,फिर भी यदि आप सूक्ष्मता से दृष्टि डालें तो यही निष्कर्ष निकालेंगे कि दोनों के बीच भयंकर संवादहीनता की स्थिति है ।यह संवादहीनता अंततः उनके बीच या तो कलह का कारण बनती है या तो किसी एक के अवसादग्रस्त होने का कारण ।

आफिसों,कार्यालयों में भी इसी संवादहीनता के कारण जहाँ एक ओर अनेक कार्यघंटे जाया चले जाते हैं, वहीं दूसरी ओर कार्यदक्षता भी बुरी तरह प्रभावित होती है । जनसेवाओ की खराब गुणवत्ता और देरी के मुख्य कारणों में एक संबंधित विभागों व संस्थानों में व्याप्त संवादहीनता ही है -संवादहीनता व्यक्तिगतस्तर पर है या विभागीय स्तर पर।

समाज के स्तर पर भी संवादहीनता की जडे बडी ही गहरी हैं।धार्मिक,साम्प्रदायिक,जातीय व अन्य सामाजिक झगडो व मतभेदों की जड मे भी व्याप्त आपसी संवादहीनता ही है ।

कहीं मैने पढा था - ' जो हम व्यक्त करते हैं , वह प्राय: अव्यक्त रह जाता है , और जो हम सीधे तौर पर नही व्यक्त करते या व्यक्त नहीं करना चाहते, वही व्यक्त हो जाता है ।' तात्पर्य यह हो सकता है कि हमारी अभिव्यक्ति व कथ्य का प्रत्यक्ष व चेतन भाग अति न्यून व आंशिक ही होता है , जबकि उसका अधिकाँश भाग अप्रत्यक्ष , अचेतन होता है ।

हमारे कथ्य का प्रत्यक्ष व चेतन भाग किस तल तक श्रोता तक संवाद स्थापित कर पाता है , यह कहने वाले की सुनने वाले के मन में उसकी विश्वसनीयता पर निर्धारित होता है । यदि दोनों के बीच विश्वसनीयता का अभाव है , तो कही हुई बात संवादहीन व बेमानी ही होती है, बजाय जो कुछ भी संवाद हो रहा है , वह कथ्य के अप्रत्यक्ष व अचेतन भाग से हो रहा है ।

तो कह सकते हैं कि हमारे चारों ओर व्याप्त संवादहीनता का प्राय: कारण हमारी आपसी विश्वसनीयता की कमी है । विश्वसनीयता की जटिलता यह है कि इसे जटिलता से परहेज है । जो भी सरल व स्पष्ट है , चाहे कही गयी बात , या व्यक्ति का व्यवहार, आचरण या कर्म, वही प्राय: विश्वसनीय होता है । आचार, विचार, कर्म, व्यवहार व वाणी की जटिलता प्राय: अविश्वसनीयता में निरूपित होती है ।

इस तरह कह सकते है कि सुगम व प्रभावी संवाद शीलता हेतु, एवं आपसी संवादहीनता को न्यूनतम रखने हेतु आपसी विश्वास परमाश्यक है , और विश्वसनीयता हेतु आवश्यक है कि आपसी क्रियाकलाप- आचार, विचार, व्यवहार, कर्म, कथन सरल, सहज, स्पष्ट व पारदर्शिता पूर्ण हो ।

वैसे एक सावधानी की भी बात है, वह है उपरोक्त सिद्दांत की कोरोलरी- यानि विश्वसनीयता के आक्षेप में अकसर गलत संवाद भी स्थापित हो जाता है, यानि विश्वास करने में ही कभी धोखा भी हो जाता है।फिर भी कहते हैं  कि विश्वास न करने के बजाय विश्वास करके धोखा खाना बेहतर होता है ।