Thursday, December 18, 2014

स्वयं हन्ता (अ)मानव और उसका मिथ्यालाप !

रक्त तो निर्दोष और मासूम का ही हरदम बहा है ,
कभी शरीर को तो कभी आत्मा को छलनी कर रहा है ।
है मगर यह घोर सत्य जारी अनवरत ,
हर युग समय हर काल देश समाज पर  कि
रक्त तो निर्दोष और मासूम का ही हरदम बहा है ।
बहता कभी यह धर्म की बलिबेदियों पर ,
तो है कभी बहता यह समर रणभूमि पर ,
है कभी बहता सत्ता की दलाली और शतरंजी चाल पर ,
और बहता है कभी मद मान अहं तलवारों की धार पर ,
है कभी बहता चढ़ गरीबी की शूलियों पर ,
और बहता है कभी इस धरा पर आगमन के पूर्व ही ,
माता के गर्भ में निज प्राण के अधिकारियों के हाथ से ही ।
श्रद्धांजली देने हेतु उनको उठते हाथ कितने ,
जो हाथ खुद ही उन मासूम रक्तों से सने हैं !
वे आँखे आज नम होती हैं उन मासूमों की याद में
जिनमें पाशविकता ,वहसीपन के सदा कीचड़ जमे हैं ।
यह मनुज भी ढोंग कितने ! पाखंड कितने ! कर रहा है
युग युगों से आदि से , आरंभ से , हर काल क्षण से,
निज हाथ से ही यह मनुजता की सदा हत्या किया है,
और फिर उसी मृत मनुजता की लाश पर ही
कुछ चंद आँसू और डालता  श्रद्धांजलि सुमन
स्वयं उन रक्त रंजित निर्मम निज हाथ से ही
और पढ़ता खोखले वह मर्सिया के गीत कुछ पल
मनुजता , मासूमियत की दर्दनाक हत्या मौत पर।
यह मनुज का ढोंग यूँ ही अनवरत चलता रहेगा ,
किंतु दुखद बात  कटु सच यह नहीं बदलेगा  कि
रक्त तो निर्दोष और मासूम का ही हरदम बहा है
कभी शरीर को तो कभी आत्मा को छलनी कर रहा है ।

-देवेंद्र

Tuesday, December 16, 2014

क्या बाकी विश्व का संकट अमरीका के निज-अस्तित्व हेतु कोई संकट और मायने नहीं रखता है ?

मेरे एक कॉलेज मित्र हैं जो विगत पंद्रह वर्षों से  अमरीका में रहते हैं । बड़े विद्वान व्यक्ति हैं , अपनी आईआईटी से इलेक्ट्रिकल इंजिनियरिंग में पीएचडी के पश्चात कुछ वर्ष अमरीकी युनिवरसीटी में प्रोफेसर रहते अध्यापन कार्य किया और विगत कुछ वर्षों से एक मुख्य इंडस्ट्री कंपनी मे आर एँड डी के मुखिया हैं । विद्युत संचालित मशीन, मोटरगाड़ियों व उपकरणों के अत्याधुनिक पावर ड्राइव अनुसंधानों व तकनीकी विकासों में उनकी महारत व विशेष अभिरुचि है । 

इसके अलावा ग्लोबल परिपेक्ष्य में उर्जा श्रोतों , विशेषकर वैकल्पिक उर्जा श्रोतों , के बदलते स्वरूप व इनके विकास के प्रति उनकी गहरी समझ व जानकारी है । सोसल मीडिया के माध्यम से उनसे लगातार बने रहते संपर्क व सानिध्य से समय समय पर उर्जा क्षेत्र में हो रहे नये अनुसंधानों व विकास की संभावनाओं और इनके आर्थिक वित्तीय पक्षों व परिणामों पर उनकी परिचर्चा द्वारा प्रायः बड़ा उपयोगी ज्ञानलाभ मिलता रहता है ।

अभी कुछ सप्ताह पूर्व से पेट्रोलियम ऑयल की कीमतों में लगातार जारी भारी गिरावट के कारणों पर उन्होंने बड़ी रोचक जानकारी दी । उनके अनुसार पेट्रोलियम ऑयल के कीमतों में भारी गिरावट के मूल कारण सप्लाई-डिमांड के सामान्य आर्थिक व मुक्त बाजार के मूल समीकरण के बजाय मूलतः जियोपॉलिटिकल हैं । उनके विचार से  यह आईएसआईएस , रूस, ईरान व कुछ अन्य देश , जो तेल के चढ़ते अंतर्राष्ट्रीय मूल्य के कारण तेल के  निर्यात द्वारा भारी मुनाफा कमा कर अपनी आर्थिक व सामरिक क्षमता को वृहत स्तर पर बढ़ाते विश्व के ऊपर अपना दबदबा व आतंक फैलाने का प्रयास कर रहे थे , उनके ऊपर आर्थिक अंकुश लगाने की यह अमरीका व अमरीकी कंपनियों की सोची समझी रणनीति है ।

मेरे मित्र के अनुसार गैसोलीन के दाम में भारी गिरावट से अमरीकी नागरिकों व उपभोक्ताओं में बहुत खुशी का वातावरण है क्योंकि गैसोलिन के मूल्यों में भारी गिरावट को बेतहासा रूप से मोटर वेहिकिल का उपयोग करने वाले अमरीकी लोगों को अपनी आमदनी में एक प्रकार से महत्वपूर्ण बढ़त व बचत दिखती है। साथ ही साथ अमरीकी मोटर निर्माता कंपनियाँ भी पेट्रोल के गिरते कीमत को अपने व्यवसाय हेतु बड़ी अपार्च्युनिटी की तरह देखती हैं  अतः अमरीका के इस रणनीति को महत्वपूर्ण व अति प्रभावशाली मोटरनिर्माता कंपनियों का भी भारी समर्थन मिलता है । 

वैसे तो यह बड़ी चौंकाने वाली व अजीबोगरीब बात लगती है कि जब  उर्जा विशेषज्ञ यह घोषणा व चेतावनी करते नही थक रहे हैं कि हमारे फॉजिल फ्यूल व पेट्रोलियम ईंधन श्रोत इनके बेतहासा दोहन के फलस्वरूप लगभग चुकने के कगार पर हैं , उनकी बची मियाद बमुश्किल अगले चार पाँच दसक है ऐसे में इनके मूल्यों में भारी गिरावट और उनके बेतहासा उपयोग को अमरीका अथवा विश्व के किसी अन्य प्रभुत्वसंपन्न देशों द्वारा और गति देना कहाँ की समझदारी है ? साथ ही साथ पेट्रोलियम उत्पादों के बेतहासा उपयोग  से  पर्यावरण को पहुँच रहे गंभीर व अपूरणीय क्षति का अलग से संकट बढ़ रहा है और यह स्वयं ही विश्व मानवता क्या हमारी संपूर्ण सृष्टि हेतु गंभीर चिंता की बात दिखती है।

परंतु विश्व के अस्तित्व पर भारी संकट की आशंका की इन बातों व गंभीर तथ्यों के प्रति अमरीका द्वारा विश्व को धता बताने व गैसोलीन के बेतहासा उपयोग को लगातार बढ़ावा के अमरीकी रणनीति को स्पष्ट करते हुये मेरे मित्र यह रोचक व निश्चय ही बाकी विश्व हेतु अति चिंताजनक यह  जानकारी देेते हैं कि अमरीका सिर्फ अपने देश व अपने नागरिकों के हित के बारे में ही सोचता है , उसको इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अमरीकी हितसाधन के बदले बाकी विश्व को क्या और कैसी कीमत चुकानी पड़ रही है , बाकी विश्व रहे या भाड़ मे जाये बस अमरीका और अमरीकावासी मजे व सुविधा से रहें , यही अमरीका व अमरीकी अर्थव्यवस्था का सदा से मंत्र व सिद्धांत रहा है।

वैसे देखें तो किसी भी प्रभुत्व व साधनसंपन्न व्यक्ति , समाज या देश के लिये ऐसी स्वार्थ व अहंकारपरक सोच व मानसिकता कोई नयी व आश्चर्यजनक बात नहीं , उन्हें अपनी प्रभुता व सुविधा के आगे बाकी अन्य किसी की भी मौलिक से मौलिक आवश्यकता व जरूरत भी गौड़ लगती है , लोग उनकी सुविधाआपूर्ति के लिये मरे या जियें उन्हें इससे अपना कोई भी लेनादेना नहीं दिखता ।

परंतु गंभीर प्रश्न यह है कि अपने अंधे स्वार्थ व अहंकार हेतु समष्टि के बाकी हिस्से के अस्तित्व व हित व रक्षा की घोर अवलेहना व उसको दाँव पर लगाना क्या अमानवीय व घोर असहिष्णुता नहीं है ? क्या समष्टि के बाकी के विनाश में स्वयं का भी विनाश निहित नहीं होता? क्या शरीर के किसी इतर अंग की पीड़ा से मस्तिष्क या हृदय जैसे महत्वपूर्ण शरीर के भाग अप्रभावित हुये बिना रह सकते हैं ? इसका सीधा व सपाट उत्तर तो यही मिलता है कि नहीं । हमारे भारतीय शास्त्रों में विश्वबंधुत्व व विश्वसुखशांति के निम्न स्वस्ति पाठ का विधान शायद इसी गहन चिंतन व अनुभूति के मद्देनजर किया गया होगा -

सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया ,
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दुख भाग्भवेत् ।