Monday, March 23, 2015

'श्रीसूक्त' महत्ता -'प्रादुर्भूतोऽस्मिन् राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्ति-मृद्धि ददातु मे' ..........

"ऋग्वेद" के परिशिष्ट भाग में "श्रीसूक्त" दिया है, जिसमें "श्रीदेवी" की वंदना की गई है। इस सूक्त में कुल 29 मंत्र उपलब्ध हैं। संभव है, मूल रूप में इनकी संख्या काफी अधिक रही हो।वैसे तो इस मंत्र की व्युत्पत्ति में के बारे में अनेक धारणायें हैं परंतु वैदिक परंपरा के विभिन्न ग्रंथों जैसे  "बृहद्देवता" में भी "श्रीसूक्त" का उल्लेख मिलता है , जिसका रचनाकाल सामान्यत: ईसा पूर्व चौथी या पांचवीं शताब्दी माना जाता है। इससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि "श्रीसूक्त" की रचना इससे काफी पहले हो चुकी होगी।

श्रीसूक्त के कुछ मंत्रों में "श्री देवी" का उल्लेख किया गया है और कुछ में "लक्ष्मी" का। कहीं-कहीं कुछ अन्य नामों से भी सम्बोधित किया गया है। देवी के विभिन्न नाम उनके विशिष्ट गुणों को प्रकट करते हैं। उल्लेखनीय नाम हैं-अश्वपूर्वा, अश्वदा, चन्द्रा, पद्मप्रिया, अच्युतवल्लभा, पद्ममालिनी, पद्माक्षी, महालक्ष्मी, सूर्या, हेममालिनी तथा हिरण्यमयी आदि। "श्रीसूक्त" में दिये गए मंत्रों में श्रीलक्ष्मी के सौंदर्य और उनकी विशिष्टताओं का विशद वर्णन तथा उन विशिष्टताओं के आधार पर ही, लक्ष्मी से विभिन्न प्रकार की मंगल व समृद्धि की कामनाएं व्यक्त की गई हैं। यथा-

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलंतीं, श्रियां लोके देवजुष्टामुदाराम्। तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्ये, अलक्ष्मीं नश्यतां त्वां वृणोमि।

अर्थात् "मैं चन्द्रमा के समान शुभ्र कांति वाली सुंदर द्युतिशालिनी, यश से दीप्तमंत, स्वर्गलोक में देवगणों द्वारा वंदिता, उदारशीला, पद्महस्ता, लक्ष्मीदेवी की शरण ग्रहण करता हूं, जिससे मेरी दरिद्रता का नाश हो। हे देवि, मैं शरणागत के रूप में आपका वरण करता हूं।"

इसी प्रकार सूक्त के प्रथम श्लोक में कहा गया है-
"हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्ण रजतस्रजाम्।
चंद्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो मऽआवह।"

अर्थात् "हे देव। मेरे लिए सौभाग्य की देवी लक्ष्मी का आह्वान कीजिए, जो हिरण्यवर्णी, परम रमणीय, स्वर्ण रजत आभूषणों से अलंकृत, पुष्पमाल धारणा किये हुए चन्द्रप्रभा युक्त एवं हिरण्यमयी हैं, ताकि मैं उनकी कृपा प्राप्त कर सकूं।"

"श्रीसूक्त के रचयिता, श्री लक्ष्मी को सौभाग्य व कीर्ति(यश)का प्रतीक मानकर उनसे निजी सौभाग्य और कीर्ति ( यश) के अतिरिक्त संपूर्ण राष्ट्र व उसके जनों के मंगल व कीर्ति (यश) की भी कामना करते है।

उपैतु मां देवसख: कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मिन् राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्ति-मृद्धि ददातु मे।।

अर्थात् हे देव, हमें देवों के सखा कुबेर, और उनके मित्र मणिभद्र तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति (यश) उपलब्ध करायें, जिससे हमें और राष्ट्र को कीर्ति-समृद्धि प्राप्त हो।

इस प्रकार श्रीसूक्त की प्रार्थना व श्री देवी की उपासना न सिर्फ निजी धनधान्य, सौभाग्य व सुखसमृद्धि की कामना मात्र है अपितु यह संपूर्ण राष्ट्रहित व जनकल्याण, सर्वसाधारण  हेतु मंगल कामना है ।

श्रीलक्ष्मी को केवल मात्र धनधान्य की ही स्वामिनी नहीं, अपितु सैन्य, सम्पत्ति की भी स्वामिनी माना गया है। इसीलिए "श्रीसूक्त में, श्रीलक्ष्मी से अश्व, रथ, गज और सुसज्जित सेना की भी कामना की गई है। श्रीलक्ष्मी को स्वर्ण निर्मित रथ पर बैठा हुआ बतलाया गया है। श्रीलक्ष्मी को कमल प्रिय हैं और उनके दोनों ओर हाथी चिंघाड़ते हुये निरंतर जलस्नान कराते दिखते हैं, जिससे उन्हें आनंद प्राप्त होता है। इस प्रकार 'श्री लक्ष्मी' की जल ,जो हमारे जीवन के आधार है , जल से उत्पन्न उसके स्वाभाविक गुणों शीतलता व शांति के प्रतीक कमल से सुसज्जा व आराधना हमारे जीवन में शांति सुख व समृद्धि की उत्कृष्ट  कामना का सुंदर व प्रभावी प्रतीक है ।

गजलक्ष्मी की यह धारणा अनेक प्राचीन भारतीय सिक्कों व प्रचलित उपलब्ध चित्रों में भी अभिव्यक्त की गई है। सुप्रसिद्ध पौराणिक कथा के अनुसार लक्ष्मी की उत्पत्ति समुद्र से मानी गई है। समुद्र-मंथन के समय जो नवरत्न प्राप्त हुये उनमें श्रीलक्ष्मी भी एक रत्न स्वरूप प्राप्त हुई थीं जिन्हें भगवान विष्णु ने अंगीकार किया।

अथर्ववेद के एक मंत्र के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के जन्म के साथ एक सौ एक लक्ष्मियां भी जन्म लेती हैं, जिनमें कुछ कल्याणकारी होती हैं ओर कुछ अकल्याणकारी। मंत्र में यह कामना की गई है कि जो कल्याणकारी लक्ष्मियां हैं, वे जीवन में बार-बार आयें और अकल्याणकारी लक्ष्मी हटकर दूर चली जायें। श्रीलक्ष्मी को सद्गुणों के प्रतीक के रूप में पहले से ही स्वीकार किया जाता रहा है और इस प्रकार दुष्प्रवृत्तियों के प्रतीक के रूप में "ज्येष्ठा या अलक्ष्मी" की कल्पना भी सहज स्वाभाविक है। मानव जीवन में दोनों ही तत्वों, शुभ व अशुभ, का योग रहता है और इसी तथ्य की ओर इंगित अथर्ववेद के इस मंत्र में है-

एक शतं लक्ष्मयो मत्र्यस्य साकं तन्वा जनुषोधि जाता:।

हमारी सनातन भारतीय संस्कृति पर "श्रीसूक्त" का प्रभाव काफी अधिक व गहरा रहा है। इस पर अनेक भाष्य लिखे गये और अनेक स्थानों पर इसकी चर्चा हुई। इससे "श्री" की देवी के रूप में लोकप्रियता भी निरंतर बढ़ती चली गई। जातक कथाओं में भी इसकी चर्चा हुई है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी इसका वर्णन मिलता है। स्कंदगुप्त के जूनागढ़-अभिलेख में भी श्रीलक्ष्मी का वर्णन प्राप्त होता है। देश के विभिन्न स्थानों की गुफाओं में जो कला प्रस्तुत की गई, उसमें भी श्रीलक्ष्मी का विशिष्ट स्थान है।

श्रीलक्ष्मी की उत्पत्ति के संबंध में अनेक कथाएं प्रसिद्ध हैं। समुद्र-मंथन की कथा का वर्णन तो महाभारत सहित अनेक ग्रंथों में मिलता है। विष्णुपुराण में लक्ष्मी को दक्ष की कन्या कहा गया है। "देवी भागवत" उपपुराण में लक्ष्मी का जन्म श्रीकृष्ण के वामांग से माना गया है। ब्राहृवैवर्त पुराण के अनुसार लक्ष्मी मूलत: राजा कुशध्वज की पुत्री थीं। बाद में महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण वह नष्ट हो गयीं और तब समुद्र-मंथन से उन्हें पुन: प्राप्त किया गया।

शतपथ ब्रााहृण की एक कथा के अनुसार प्रजापति के ह्मदय से "श्री" (लक्ष्मी) की उत्पत्ति हुई, जो अत्यधिक सौंदर्यवान, प्रकाशवान और ओजवान थीं। उनसे आतंकित होकर देवताओं ने उनकी हत्या करने की सोची। लेकिन हत्या करना चूंकि उचित नहीं होता, इसलिए उन्होंने "श्री" के सम्पूर्ण वैभव और ऐश्वर्य का अपहरण करके आपस में बांट लिया। बाद में तपस्या करने पर "श्री" को उनके गुण वापस मिल गये। इस कथा के अनुसार "श्रीलक्ष्मी" प्रजापति की पुत्री हुर्इं। मगर यजुर्वेद में "श्री" को प्रजापति की पत्नी के रूप में चित्रित किया गया है। कारण संभवत: यह रहा कि आगे चलकर प्रजापति के अनेक गुण विष्णुनारायण में समाहित कर दिये गये और इस प्रकार यजुर्वेद का मंतव्य संभवत: उन्हें विष्णु-पत्नी के रूप में चित्रित करना था।

यद्यपि प्राचीन साहित्य में, हमें "लक्ष्मी" कहीं कहीं इन्द्र या कुबेर के साथ भी जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं, मगर कालांतर में उन्हें विष्णुपत्नी के रूप में ही स्वीकारा गया। गुप्तकाल के अभिलेखों में भी "श्रीलक्ष्मी" को विष्णु-पत्नी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आचार्य रामानुज ने अपने "श्री-सम्प्रदाय" में विष्णु को परमेश्वर तथा लक्ष्मी को उनकी पत्नी माना। महाभारत के उत्तराद्र्ध में भी हमें लक्ष्मी का परिचय विष्णु-पत्नी के रूप में ही मिलता हे।

प्रारंभ में हमें कहीं-कहीं लक्ष्मी के साथ कुबेर के पूजन की व्यवस्था देखने को मिलती है। बाद में कुबेर का स्थान गणेश ने ले लिया जो अभी तक चला आ रहा है। मगर, ब्राहृवैवर्त पुराण के अनुसार स्वयं कृष्ण (विष्णु) ने ही गणेश का रूप धारण किया था। इसलिए प्रकारातंर से गणेश का अर्थ विष्णु ही हुआ।

इसप्रकार श्रीसूक्त व श्रीदेवी की व्युत्पत्ति, मान्यता व आराधना के विभिन्न मतों व विचारधाराओं के बावजूद इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रीसूक्त व उसके द्वारा श्री देवी की आराधना व्यक्ति के स्वयं व अपने कुटुंब के जीवन में सुखसमृद्धि ऐश्वर्य व यश की कामना के साथसाथ जनसाधारण मात्र व राष्ट्रसंपूर्ण की सकल समृद्धि, सैन्यशक्ति बल सामर्थ्य की वृद्धि, राष्ट्र के ऐश्वर्य और कीर्ति(यश) की वृद्धि व उन्नति की मंगल कामना है ।

Wednesday, March 18, 2015

पांचाली के खुले केश या वह कालअग्नि की शिखा थी बिखरी!

जग समझता हो भले ही
कि पांचाली थी वहाँ लाचार कितनी
और कातर उस सभा में, राजपुरुषों से सुशोभित,
जब कौरव खींच लाये थे बलात् उसको भरी सभी में
और दुष्ट दुर्योधन ने घसीटा था उसे उसके केश पकड़े
निर्लज्जता की सभी सीम , मर्यादा लाँघते,
उसे अपनी खुली जंघा पर बिठाया,अपमानित किया था ।
और जब दुःशासन बना राक्षस खींचता था चीर उसका ,
वहाँ आसीन पितामह सहित विश्व के श्रेष्ठतम् वीर सारे
मूक बैठे रहे सब , लज्जाहीन और कायर की तरह,
नत किये सिर सभी और बाँधे हाथ अपने,
सहित उसके पाँच अतुलित वीर और योद्धा पति भी ,
देखते रहे सभी यह दुष्कर्म,पाप,अनर्थ होते, क्लीव बनकर ।

मगर जग का अनुमान यह बिल्कुल गलत था।
पांचाली स्वयं तब भी अबला नहीं थी,
और लाचार भी बिल्कुल नहीं थी ।
ध्वनि में थी भले ही उसके करुण याचना की चित्कार
और उसकी आँख में आँसू भरे थे ,
मगर थी अपमान की ज्वाला धधकती
और दहकती उन लालअग्नि से दृगों में ।

और उसके वह खुले काले केश लंबे,
मानों हों प्रलय की बिखरी काली शिखायें विस्तृत काल जैसी
देती इस धरा के उन कथित शूरवीरों को चुनौती
कि धिक्कार है तुम सबकी शक्ति पर,
पुरुषार्थ पर, लज्जाहीनता पर, क्लीवता पर
और हे कायरों , सुन लो ध्यान से मेरी चेतावनी यह
कि आज जो निज भुजाओं को बाँधकर बैठे हुये हो सब
सुनलो मेरी चित्कार में युगसंहार का आहावन मंत्र यह !
कि मैं तुम्हारे ही भुजाओं में कल कर पदार्पण काल बनकर,
संहार कर दूँगी मैं इन दुर्धष राक्षसों का,
स्पर्श जिनके अपवित्र हाथों ने  किया है तन का मेरे ।

हे का-वीर पुरुषों ! तुम मत यह समझना
कि पांचाली है बेचारी और कातर यहाँ,असहाय है वह,
तुम्हारे मर्यादाहीन इस कायर सभा में ।
आँख से मेरे जो बहते आँसुओं के धार हैं यह,
नीर मत समझों उन्हें, है यह अनल की धार बहती,
जो रणचंडिका के ज्वालादृगों में जल उठी हैं ।
सुन लो इस सभा में उपस्थित तुम सभी का-वीर पुरुषों ,
साक्षी बनाकर सूर्य को, देवी धरा को,
साक्षी है मेरी पुण्यमाता अग्नि और मेरी कृष्णभक्ति,
शपथ लेती है द्रुपदपुत्री तुम्हारे सामने यह कि
नाश कर दूँगी मैं तुम्हारे पुरुषार्थ से पोषित इन राक्षसों का
जिन्होंने मुझे अबला समझते बलात् किया है स्पर्श मेरा।

शांत होगी अनलधारा मेरे दृगों में यह ज्वलित जो
तुम शूरवीरों के लहू का केवल अर्घ्य देकर ।
यह खुले जो केश मेरे, हैं प्रलय की यह दुर्धर शिखायें ,
यह बिखरती काल बनकर इस पाप से बोझिल धरा पर,
इस अंधे धृतराष्ट्र के राक्षस पुत्रों का निर्मम वध करेंगी ,
और दुबारा फिर इन्हें तब तक समेटूँगी मैं नहीं
धो न लूँ जबतक इन्हें मैं पापी दुःशासन के वक्षस्थलरक्त से ।
© देवेंद्र दत्त मिश्र

Friday, March 13, 2015

मन्नू , बन्तू ,राजकुमार और चंटाली ........

इक रहेन मन्नू,
इक रहेन बन्तू
इक रहेन राजकुमार
और इक रहेन चंटाली

मन्नू के गले में सइलेंसर ,
बन्तू के गले में लाउडस्पीकर ,
राजकुमार तो बस करें बकलोली,
चंटाली खोंखियायें जइसे भूजल तीतर ।

मन्नू खायें मकई की रोटी,
बन्तू खायें छौंकी खिचड़ी ,
राजकुमार खायें इटालियन पिज्जा ,
चंटाली खायें चाँटा , गाल पे उभरे पपड़ी ।

मन्नू बाँधें पगड़ी ,
बन्तू पहिरें सदरी ,
राजकुमार के पिजामे का लटक गया नाड़ा ,
और चंटाली बाँधें टोपी के ऊपर मफलौरी ।

मन्नू कहें चलो शिकार कर आबें,
बन्तू कहें चलो शिकार कर आबें,
राजकुमार कहें हमहूँ शिकार कर आबें,
त चंटाली बोले हाँ चलो हमहू शिकार कर आबें।

मन्नू ने मारी एक चिरैया,
बन्तू ने मारी दो चिरैयाँ,
राजकुमार हुर्र करके उड़ावे चिरैयाँ
और चंटाली  मारेन एक चुखरिया।

हा हा हा….हा हा हा…. हा हा हा…
अबे चुप………झूट्ठौ का हा हा हा .....  का समझे हो, चुखरिया मारवो आसान है का?

एक रहेन मन्नू , एक रहेन बन्तू, एक रहेन राजकुमार, एक रहेन चंटाली।

योग और 'चंट' योग

टीचर- पप्पू ! योग और चंट योग में क्या अंतर होता है ?

पप्पू -  मैडम ! योग शारीरीक व्यायाम , व प्राणायम ( श्वास- प्रश्वास) की एक उत्तम विधि है । योग करते समय सीजन के अनुरूप सरल और ढीला वस्त्र धारण करना होता है । यह तन और मन की एक उच्च साधना है जिसमें यम-नियम ,आहार विहार और आचार-विचार का पालन करना होता है , जिससे व्यक्ति का मस्तिष्क व शरीर स्वस्थ और मजबूत होता है ,किसी प्रकार के अवसाद व  विभिन्न शारीरिक व मानसिक बिमारियों से मुक्ति मिलती है ।

इसके विपरीत चंट योग मन . चेहरे व शरीर के अभिनय व भावभंगिमा की वह विधि है जिसे व्यक्ति को मौन धारण करने या बोलते समय खाँसने के नियम का पालन करना होता है , कभी सिर पर पगड़ी तो कभी टोपी और मफलर धारण करना होता है , कभी अनसन, कभी धरना तो कभी सड़क पर मोर्चा निकालता पड़ता है , मौके के मुताबिक व्यक्ति को झूठ , पाखंड , दूसरों की निंदा व छिद्रान्वेषण , अपने बड़े से बड़े घटिया काम को महान सिद्ध करने की कला और चतुरता दिखानी होती है । इस योग से व्यक्ति को सत्तालाभ , ऊँचे सिंहासन पर बैठने का लाभ मिलता है । मैडम ! शास्त्रों के मत से वर्तमान कलयुग में 'चंट'योग बड़ा ही प्रभावकारी व उपयोगी है और जीवन में सफल होने हेतु एक सिद्ध व उत्तम योग विधि के रूप में जाना जाता है । संयोगवश यह दोनों ही योग विधियों का जनक हमारा महान देश भारत ही है , जहाँ इन्हें हमारे कई महान ॠषियों , मुनियों व योगियों ने इनको इजाद व विकसित किया ।

टीचर- उन प्रसिद्ध ॠषियों व योगियों के नाम बताओ जिन्होंन इन महान योग व चंटयोग विधियों का ईजाद किया और इनके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया?

पप्पू - क्या मैडम ! आप तो बड़ी चंट हैं । सब जानते हुये भी उन महान लोगों का नाम मेरे ही मुँह से सुनना से  चाहती हैं ?

टीचर- ( अचकचाते हुये )अच्छा बैठ जाओ ।

( और पप्पू अपने सीट पर बैठ जाता है और अपना कान खुजाते यह गणित लगाने लगता है कि टीचर का अगला प्रश्न क्या होगा । )

अगले प्रश्न का इंतजार करें । ..........

Thursday, March 12, 2015

दूल्हा एक , सरसठ बाराती ....

चंट गुरु , प्रचंट हैं चेला
खाते गुड़ बताते ढेला ।
परदे के आगे हरिश्चंद और
पीछे जारी तिकड़म खेला ।

एक कलंदर चालीस बंदर
राजा बाँटे तिल गुड़धानी ।
हरा समुंदर गोपी चंदर ,
बोल मेरी मछली कितना पानी ?

दस बीस चालीस पचास
साठ पैंसठ सब सत्यानास ।
सरसठ हाथ चमकता धागा
चोर बन गया है राजा खास ।

राजा सिर पर मफलर बाँधे
जो मुँह खोले आती खाँसी
धाम-धूम और सजीली घोड़ी
पैदल दूल्हा घुड़चढ़े बराती ।

एडी दुड़ी तिड़ी चौवा चंपा
सेख सुतेल नापें सौ डंडा ।
तगड़ी चाँप मियाँ जी मारें
दिन भर खेलें गिल्ली-डंडा ।

ए बी सी डी इ एफ जी
उनसे निकले खंडित जी ।
खंडित जी की ढीली पैंट ,
बिना दाँव के जीतें बाजी ।

ज्ञान और समझ की बेहतर दुनिया : फिल्म या किताबें ?

मेरी एक फेसबुक मित्र , जिनकी फेसबुक पोस्ट से उनके उच्चकोटि के ज्ञान व विद्वत्ता झलक मिलती है , ने आज एक बड़ी रोचक बात लिखी कि किस प्रकार फिल्में उनको अपने जानकारी को निखारने व बहुत सी महत्वपूर्ण बातों व तथ्यों को बेहतर ढंग से समझने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आयी हैं ।

अपने मन की बात साझा करते उन्होंने लिखा है कि कई मामलों में उनकी जानकारी कम थी , वे अबोध थीं , उनके मन में तमाम बातों को लेकर बड़ी भ्रांतियाँ थीं , परंतु कुछ खास तथ्यपरक अच्छी फिल्मों को देखकर उनकी विभिन्न विषयों में जानकारी बढ़ी और उनके मन की तमाम भ्रांतियाँ दूर हुईं । वे कई फिल्मों को अति प्रेरणादायी भी पाती हैं , जो जीवन में , विशेषकर किसी चुनौतीपूर्ण परिस्थिति में , कई बार सही राह दिखाती हैं । उदाहरण के लिये उन्होंने कई उच्चकोटि की अंग्रेजी फिल्मों जैसे राबर्ट ब्राउनी जूनियर की चैपलिम , विल्स स्मिथ की एरिन ब्रोकोविच, लाइफ इज़ ब्यूटीफुल, फ्रीडम राइटर्स, कॉनविक्शन, द ऑवर्स, अ ब्यूटीफुल माइंड, कास्ट अवे जैसी तमाम फ़िल्में के नाम उद्धृत किये जो रियल-लाइफ़ कैरक्टर पर आधारित हैं, और उनके विचार से ये फिल्में उनकी आधारित किताबों से भी अधिक जानकारी दायक व  प्रेरणादायी हैं ,और इनमें निहित विचार व भावनाओं को उस रफ़्तार से क़िताबों के माध्यम से नहीं जिया और अनुभव किया जा सकता है , जितना कि फ़िल्मों के द्वारा सुगमता से संभव हो जाता है ।

वैसे फिल्मों को लेकर उनका दृष्टिकोण भी कोई अपनी बात थोपने , या जानकारी के किसी माध्यम, पुस्तक या कोई अन्य को फिल्मों के बनिस्बत  कमतर साब्त करने का नहीं लगता, उनका एक संतुलित दृष्टिकोण है कि यह  बहुत कुछ आपकी दिलचस्पी और समय की उपलब्धता पर निर्भर करता है, और यह बिलकुल वैसे ही है, कि पढ़ाने-समझाने के मेथड स्टूडेंट की समझ के हिसाब से बदल दिए जाते हैं. चुनाव पूरी तरह से जानने वाले के पसंद पर निर्भर करता है।

हालांकि फिल्मों के प्रभावी भावप्रेषण व जानकारी के एक प्रभावी माध्यम के बारे में अपने मित्र के विचारों से आंशिक रूप से अवश्य सहमत हूँ परंतु मेरा मानना है कि पुस्तकें व उनको स्वयं पढ़ना किसी विचार व भावना को समझने , अनुभव करने का सबसे गहरा व प्रभावी तरीका है ।मेरी जानकारी के आधार पर ज्यादातर फिल्में, विशेषकर पश्चिमी जगत की फिल्में , किसी न किसी प्रसिद्ध पुस्तक पर ही आधारित होती हैं , इस प्रकार पुस्तक का स्थान फिल्मों की अंतरनिहित भावना व तथ्य की जननी का है । और प्रायः उच्चकोटि की पुस्तकें पढ़ते समय पाठक की लेखक व उसके चिंतन के साथ एक व्यक्तिगत अंतरंगता स्थापित हो जाती है , किताबे पाठक से अपनी बात कहती, बोलती और अपनी सहज अनुभूति साझा करती हैं , लेखक के विचारों व भावनाओं के साथ निजी संवाद की यह सहजता फिल्म या किसी अन्य माध्यम में संभव नहीं होती ।मेरे विचार से तो  पुस्तकों का संवाद आध्यात्मिक अनुभूति के दर्जे का होता है ।

हालांकि मैं मनोविज्ञान व मस्तिष्क के व्यवहार पर कोई इक्स्पर्ट नहीं हूँ . और इनकी बाबत मेरी कोई संस्थागत जानकारी तो नहीं है , परंतु विषय के सीमित जानकारी के आधार पर कहते हैं कि हमारा मस्तिष्क किसी विचार को अंततः उसके संबंधित चित्र और आकृति के स्वरूप में ही ट्रांसफॉर्म करके समझता है , उदाहरण के लिये क को समझने के लिये क से संबंधित कोई आकृति मन में सहज उभरकी है . हाथी कहते मस्तिष्क में हाथी की आकृति उभर आती है । ( शायद यही कारण है कि एक अबोध शिशु को अक्षर ज्ञान के लिये चित्रपुस्तक का उपयोग करते हैं । )  अतः पुस्तक पढ़ते समय आप स्वयं ही उस पुस्तक के कथ्य विचारों व भावनाओं हेतु अपने मष्तिस्क में एक चित्रपट की रचना करते हैं , एक ऐसा चित्रपट जिसका निर्देशक स्वयं आपका मस्तिष्क ही है , जबकि फिल्म में निहित विचार व भावना आप उसके निर्देशक  के सीमीत समझ व निर्देशित विचार व पात्रों द्वारा चरित्र निरूपण की सीमित सहजता से ही देख व अनुभव पाते हैं , इसमें लेखक  के साथ व्यक्तिगत तारतम्यता का अभाव हो जाता है। अतः मेरी राय में  लेखक के मौलिक विचाार व चिंतन को समझने का सबसे प्रभावी तरीका उसकी पुस्तक को पढ़ने के द्वारा  ही संभव है ।उदाहरणार्थ - प्रेमचंद की अमर कृतियाँ गोदान या ईदगाह जितनी प्रभावी पढ़ने में अनुभव होती हैं , उन पुस्तकों पर फिल्में उनको समझने का दायरा सीमित रखती हैं । यहीं बात द बियुटीफुल माइंड और द पर्स्यूट ऑफ हैपीनेस पर भी लागू होता है ।

वैसे जो पाठक मेरी उपरोक्त समीक्षा से असहमत हैं उनकी जानकारी के लिये बताना चाहूँगा कि मेरी व्यक्तिगत सीमित जानकारी और समझ पुस्तक पढ़ने के माध्यम व दायरे में ही ज्यादा सीमित रही है , बनिस्बत कि मेरी सुजान मित्र के फिल्मों को देखने के माध्यम से अर्जित समृद्ध ज्ञान व जानकारी, और मेरे पुस्तक पढ़ने के प्रति पक्षपाती दृष्टिकोण का वजह भी संभवतया यही हो । :-)

Wednesday, March 11, 2015

The Great Leaders: They Talk Great and they walk it greatly.

1.  A leader who reads the situation and his team well and pulls through even an impossible walk -

' The pitch was a little different from other pitches , that we played earlier. The pacers struggled to find the right length initially , but I saw that spinners would get more purchase, and my spinners got that. Good thing about my team and the bowling unit is that they have responded to whatever decisions and changes I have intended to make. There have never been a case of any player or bowler feeling down when I have taken out of a field place or the bowling attack. They know its for the team and they have taken it in the right spirit. It has made my job easier. '
- Mahendra Singh Dhoni , Skipper , Indian Cricket Team

2. A leader who keeps his team and the nation first , and his personal pain only second :

' You have to bear the pain if you want to perform for your country. But the pain goes away when you do well and the team wins..... like against England. '
- Mashrafe Mortaza , Skipper , Babgladesh Cricket Team

3. A leader having burnt his boats and  ready to take on any big gun, with no any fear :

'  I have told the boys there are no more second chances for us in the remaining matches , and we go in every match having burnt our boats and with a fearless attitude. We are ready to play any team in quartefinals , Australia, New Zeeland or who so ever. '
- Misbah-ul- Haq , Skipper , Pakistan Cricket Team

4. A Gautam Buddha like leader , who delivers from the front and keeps it for his team standing ever back.
- Kumar Sangakara, Skipper , Sri Lanka Cricket Team

Tuesday, March 10, 2015

हे हरि ! संहारो शीघ्र मुफ्ती भष्मासुर को ....

मुफ्ती जैसे भष्मासुर का किसी भगवान विष्णु के कुशल कूटनीति से शीघ्र संहार देशहित में अत्यंत आवश्यक है ।

बेहतर तो नामो और अमित शाह को अपने पार्टी के राजनीतिक विस्तार की अति-महात्वाकांक्षा को तरजीह देने की जल्दबाजी करने के बजाय वह अपने व अपनी पार्टी के राष्ट्रीयता के  सिद्धांत , व जेएण्डके व भारत देश की अखंडता को तरजीह देते , और उन्हें मुफ्ती जैसे पूर्वसिद्ध शातिर, चालबाज , पाकिस्तान-परस्त व अलगाववादी समर्थक नेता व उसकी पीडीपी पार्टी से किसी प्रकार के राजनीतिक गठजोड़ से बचना चाहिये था । वह बीजेपी की ही सहायता से मुख्यमंत्री बनकर अब अपने पाकिस्तानपरस्ती व अलगाववादी समर्थक होने का एजेंडा साध रहा है और नामो और भाजपा के लिये भष्मासुर सिद्ध हो रहा है ।

अब नामो और भाजपा को भी मुफ्ती से पार पाने के लिये किसी विष्णुभगवान की चतुराई व कूटनीति की आवश्यकता है , जो मुफ्ती नामक इस राक्षस का शीघ्रनाश कर सके और जम्मूकश्मीर राज्य व भारत देश को उससे छुटकारा दिला सके ।