बरखा दत्त, निधि राजदान, सोनिया (वर्मा) सिंह सिर्फ व्यक्ति नहीं हैं, यह एक मानसिकता हैं जो भारतीय परिवारों में जन्म लेने के बावजूद, हर भारतीय चीज - भारतीय लोग, भारतीय सोच, भारतीय दृष्टिकोण को वाहियात और हीन समझते हैं। यह तथाकथित भारतीय बुद्धिजीवी परिवारों के उस क्लास का प्रतिनिधित्व करते हैं जो यह कहने में अपनी शान और खुद को ' डिफरेंट फ्रॉम कॉमन लॉट, इलीट एंड स्पेशल' समझते हैं कि उन्हें हिन्दी ठीक से बोलना नहीं आता। ऐसी मानसिकता के लोग और परिवार हमें भारतीय शहरों, विशेषकर उत्तर भारत, में अक्सर मिलते हैं। यह और बात है कि ऐसे लोग खुद को कितना भी बड़ा अंग्रेजीदां समझते हों, परंतु यह अंदर से ओछे के ओछे ही रह जाते हैं, जो अपनी मातृभाषा, अपने खुद के परंपरागत संस्कारों तौर-तरीकों को ठीक से नहीं जाना, समझा और उसके हृदय में इनके प्रति कोई आदर और सम्मान दूर की बात, हेयदृष्टि और उपेक्षा है, भला वह किसी गैर की भाषा, रीति-रिवाज, तौर-तरीकों में कोई वास्तविक योग्यता कहां से डेवलप कर पाएगा। अंततः ऐसे लोग 'गंदे नाले में गिरे बेल' की तरह होते हैं, न खुद के ही बन पाते हैं और न ही खुदा के। यह परमसिद्धसत्य है कि उत्कृष्टता की उपलब्धता अपनी मौलिकता अपने रूट्स के आधार पर संभव होती है।
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