पिछली शिवरात्रि को मन में कुछ उद्विग्नता थी,सो अपने कुटुम्बजनों- मेरे चचेरे भ्राता जनों, को मैं सायाश ही एक पत्र लिखा, व इसे डाक द्वारा प्रेषित कर दिया।हालाँकि यह पत्र मेरे कुछ ही बंधुओं को डाक द्वारा प्राप्त हुआ, किंतु जिन्हें प्राप्त हुआ और जिन्होंने इसे पढ़ा , उनसे पत्रोत्तर संवाद अति भावुकतापूर्ण था।
मेरा अनुभव रहा है कि विगत कुछ वर्षों में कौटुम्बिक , पारिवारिक संबंधों व अपनेपन पर भारी कुठाराघात हुआ है( यह मेरा मात्र व्यक्तिगत अनुभव है, और इसे आप कतई पारिवारिक संबंधों के बारे में मेरी सामान्य राय के रूप में न लें, और यदि आपका स्वयं का अनुभव इससे इतर है, तो यह जानकर शायद मुझसे प्रफुल्लित व्यक्ति कोई नहीं हो सकता।), और इससे मेरा मन बड़ा दुखी व भावुक था।इन्ही विचारप्रवाहों में ये शब्द मेरे पत्र में उकेरित हो गये।
बंगलौर,
महाशिवरात्रि,
फाल्गुन कृष्ण पक्ष,चतुर्दशी
बुधवार, 2 मार्च , 2011
प्रिय भाई साहब लोगों,
य़थोचित आदर सहित अभिवादन( बडों को) व स्नेह ( छोटों को)
मैं सपरिवार यहाँ सकुशल रहकर भगवान
शिव से आप सबकी सपरिवार कुशलता व आनंदमय जीवन की कामना करता हूँ ।
आप सब को बताने में मुझे कुछ अजीब
सा अनुभव हो रहा है , और आश्चर्य भी, कि शायद 17-18 वर्ष के लम्बे अन्तराल के उपरान्त मैं अपने
आत्मीयजनों को कोई व्यक्तिगत पत्र लिख रहा हूँ । अब यह इस टेलीफोन-मोबाइल
युग का विकार है , अथवा हमारे सम्बन्धों के बीच बढ़ती दूरी, जो न केवल भौगोलिक है
अपितु मानसिक व व्यावहारिक दूरी भी है, का
संकेत है, पर है तो निश्चय ही अति गम्भीर व चिन्तनीय बात ।
आज महाशिवरात्रि है । वैसे तो मैं
गाँव से 2800 किमी दूर, बंगलौर में हूँ, किन्तु
मन सायास तडके वहीं पहुच गया है ,
और आज के दिन गौरीशंकर मेले की बचपन की स्पष्ट
यादें जागृत हो गयी हैं । पिताजी लोगों के साथ परले सुबह मेले की यात्रा पर पैदल
चल देना, बेलन नदी ढुक कर पार करना ( मैं तो हमेशा यही डरता रहता था कि नदी में
मगरमच्छ न पकड ले ) ,
गौरीशंकर पहुँचकर
सर्वप्रथम मंदिर में भगवान शिव का दर्शन, और
पूजा के बाद मंदिर के बगल वाली धर्मशाला में जिलेबी और पेडा खाना, वहीं
पर पिताजी लोगों की मेले में आये नात-रिश्तेदारों व परिचितों से आत्मीय मुलाकात,
और अपराह्न तीन-चार बजे घर के लिये वापसी, साथ में खिलौनों के नाम पर एक छोटी-मोटी
बाँसुरी, एक रबर की गेंद और रंगीन कागज की चरखी ।
अब तो ठीक से याद भी नहीं कि कितने
वर्ष बीत गये उस मेले में गये , और वहाँ पर आये उन आत्मीय रिश्तेदारों से मिले।
किन्तु हर साल शिवरात्रि को मन उस मेले की जानी-पहचानी य़ात्रा कर आता है ।मैं
स्वयं तो दूर हो गया हूँ इस मेले व मिलन से किन्तु मन तो अब भी उन मीठे क्षणों को
हर शिवरात्रि के दिन जी लेता है ।
हम भाइयों का आपसी सम्बन्ध भी क्या
कुछ ऐसा ही नहीं हो गया है ।विगत कुछ वर्षों से क्या हम सभी एक दूसरे से काफी दूर नही हो गये हैं ।( यह
दूरी न सिर्फ स्थान की दूरी है, अपितु सबसे बडी दूरी तो हुई है अपने बीच बढती
व्यावहारिक व भावनात्मक दूरी ।)
शायद हमारे आपसी छोटे-मोटे
अविश्वास, जाने-अनजाने की यदा-कदा कहासुनी, हमारे छोटे-मोटे अहं के टकराव , तराजू
के एक पलड़े पर इतने भारी हो गये हैं कि हमारे भातृत्व के मीठे व अमृतमयी अनुभूति
की अमृतगंगा का सम्पूर्ण जल भी दूसरे पलड़े पर हल्का पड़ रहा है ।शायद हम सब अपने
छोटे-मोटे अहंकार, अविश्वास और मतभेद की चासनी से लिपटे-सने अपने अंतर्योजित
भातृत्व के रिश्ते की आनंदमयी शीतलता की बयार से बंचित होते चले जा रहे हैं ।
हम सबको शायद इस पर शीघ्र विचार
करना आवश्यक है । हम सभी दसों लोग आधी या आधी से ज्यादा जीवन यात्रा पूरी ही कर
चुके हैं, तो क्या इस आधे से भी कम बचे जीवन के कठिन रेगिस्तानी व तपते रास्तों
वाली यात्रा ( हाँ , जीवन का उत्तरार्ध अति
कठिन रेगिस्तानी व तपते रास्ते वाली यात्रा ही होता है । ) में अपने भातृत्व व
अपनत्व के शीतल जल और छाँव प्रदान करने वाले शाद्वल ( नखलिस्तान) की आवश्यकता नहीं होगी ? हमें इस पर शीघ्र विचार करना होगा ।
विचार करें तो आभाष होता है कि ये
रिश्ते भी नदियों की तरह ही होते हैं । अपनी यात्रा में नदी को न जाने कितने
अप्रिय और अवशिष्ट ( मैले-कुचैले) अनुभवों को आत्मसात करना पडता है, किन्तु उसके
प्रवाह की निरंतरता नदी की स्वाभाविकता,
शुचिता और स्वादिष्टता को बनाये रखती है । ठीक इसी तरह से हमारी जीवन यात्रा में ,
हमारे रिश्ते भी अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरते हैं, किन्तु यदि इनकी निरंतर धारा
बहती रहे , तो ये अपनी स्वाभाविकता व समरसता नही खोते । नदी को रोकने हेतु बने
बाँध में भी एक धारा को निर्बाध छोड देते हैं, ताकि नदी का अस्तित्व व उसकी
स्वाभाविकता भंग न हो। रिश्तों में भी कितनी ही गाँठें क्यों न पडे, एक छोटा सा ही
सही खुला आँचल छोडना आवश्यक है, ताकि इन रिश्तों की भी स्वाभाविकता व इनका अस्तित्व सदा बना रहे ।
इसी दिशा में मेरे कुछ सुझाव हैं,
और आप सब से, एवं स्वयं से भी, यह अनुरोध
है कि हम सभी आपसी छोटे-मोटे अविश्वास, जाने-अनजाने की यदा-कदा कहासुनी, हमारे
छोटे-मोटे अहं के टकराव को एक किनारे कर, इस भातृत्व के अनमोल धारा को आजीवन अविरल
रखने हेतु , इनका ध्यान रखेंगे व इनको अमल में लाने हेतु हार्दिक प्रयाश करेंगेः
· हम
सभी जब भी यदा-कदा गाँव पर इकट्ठा हो पाते हैं, तो एक-दो अवसर सब साथ में खाना
जरूर खायेंगे ।
·
शाम
की मंदिर आरती सभी शरीक होंगें व साथ किर्तन करेंगे।
· एक-दूसरे
के खुशियों व शुभ अवसरों में- जैसे बच्चों के शादी-ब्याह के शुभ अवसर,गृह प्रवेश
इत्यादि शुभ अवसर, में जरूर सम्मिलित होंगे ।
·
यदि
दो लोगों के बीच किसी बात पर मतभेद हो जाय, तो आपस में सीधी बात कर मसले को
सुलझायेंगे, बनिस्बत कि किसी तीसरे व्यक्ति के माध्यम से अथवा किसी अपरोक्ष रूप से
अपना मतभेद प्रगट करें ।
·
हम
सब एक दूसरे को वर्ष में कम से कम एक बार एक पत्र जरूर लिखेंगे ।
मन में व हृदय में अतिशय यही इच्छा
व कामना है कि हम सब शीघ्र ही घर पर किसी शुभ अवसर हेतु मिलें, व हम सभी इस मिलन
पर मन व हृदय से प्रफुल्लित होकर इस आनंद अवसर को एक उत्सव के रूप में मनायें।
आपका भ्राता,
देवेन्द्र
काश हर भाई आपके जैसा मानसिक रूप से निर्मल और सशक्त हो पाता। मतभेद हर परिवार में पनपने लगते हैं, कारण अनगिन हैं। सबको हृदय के द्वार बड़े रखने हैं ताकि कोई वापस आना चाहे तो आ सके। पिता की छत्रछाया से अच्छा भला और कौन सा अवसर हम सबको एक कर सकता है। सब इसे अवश्य पढ़ें।
ReplyDeleteअच्छा, अभी भी मगरमच्छ हैं वहां! अब तक तो राजनीति में आ गये होंगे!
ReplyDeleteओह! बहुत ही भावुक कर देने वाली है आपकी यह प्रस्तुति.
ReplyDeleteकाश! आपके हृदय की टीस और सुन्दर सोच का सकारात्मक प्रभाव सभी
परिवार जन पर हो.रिश्तों में प्रेम और सौहार्द हो आधार होता है.
मानों अपने अतीत को, पीढि़यों को/के लिए लिखा पत्र.
ReplyDeleteसुन्दर शब्दों के कोमल अहसासों में भिंगोता पत्र. आत्मीयता से सराबोर ..पढ़ना अच्छा लगा आपको..
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