Saturday, September 12, 2015

मालती लता

(स्केच नंबर १०)

हे मालती लता!  
तुम सुंदर यौवना सदृश,
अपनी कटि को कुछ लचक दिये,
अल्हणपन यौवन को लिए हुए
तनी खड़ी हो थी , मतवाली बाला की जैसी!

तेरी सुंदरता के सम्मोहन से
जो समीप मैं तेरे आऊं, और नजदीक से तुझे निहारूं,
तो हूं पड़ता आश्चर्य बहुत मैं
कि कौन सा जादू तेरी सुंदरता में ऐसा
छिपा हुआ तुझे इतना बल देता
जो तुम खड़ी, तनी अल्हड़ युवती सी
जबकि तना तुम्हारा  कोमल, कितना कृषतन!
और डालियाँ तेरी कितनी लतर मुलायम!
और ऊँचाई उनकी है अति लघु,
ऊपर से तेरे मतवाले यौवन के खिलते
फूलों के अति भार से भी यह लदी हुई हैं!

तेरा अपने आप इसकदर तनकर खड़ा यूं रहना,
चमत्कार से यह क्या फिर कोई कम दिखता है?
दरअसल जिस लकड़ी या तार या पेड़ के तने के सहारे 
हे मालती लता!  तुम खड़ी हो दिखती,
उसको अपने प्रेमपाश में कुछ इस तरह स्वयं के कोमल तन से,
और लदकते अपने गुलाबी फूलों से आगोशित, इस कदर घेर लेती हो
कि तेरा संबल दूर से नहीं अलग कहीं नजर है आता,
दिखती हो सिर्फ तुम और तुम्हारा सौंदर्य, हे मालती लता !
और तेरा संबल तेरे सौंदर्य में ही आत्मसात, छिपा, खोया रहता है।

करता होगा कोई वृक्ष गुमान अपने मजबूत तने पर,
और अपनी नैसर्गिक मजबूती, खड़े होने की  ताकत देते अपने तने पर,
शायद करता भी हो उपहास तुम्हारा
कि तुम हो कितनी कमजोर, और तुम्हारे स्वयं खड़ा हो पाने की अक्षमता पर
मगर हे मालती लता! तुममें और एक मजबूत वृक्ष में कुदरती फर्क है !
और यही फर्क ही मालती लता तुम्हारा अद्भुत सौंदर्य है ।

लोग समझते होंगे, कहते होंगे कि तुम कितनी कमजोर और लुंजपुंज हो!
अपने -आप इंच दो इंच भी न ऊपर उठ सकती हो!
मगर सहारे को अपने तुम देकर पूरा मान स्नेह,
उसको अपने तन मन को अर्पित कर, आगोशित कर,
ऊपर चढ़ जाती हो, चढ़ती ही रहती हो, इठलाते तनते
मगर  तुम्हारा बलखाना, इठलाना यह
नहीं कोई है दर्प तुम्हारे मन के अंदर,
यह तो बस तेरी प्रेम भावना, है यह तो आभार प्रदर्शन
जो तुम अपने संबल को अपनी कृतज्ञता से
आजीवन, अपनी अंतिम सांसो पर चुकता करती हो |

-देवेंद्र

फोटोग्राफ - श्री दिनेश कुमार सिंह द्वारा

Friday, September 11, 2015

कच्चे अमरूद

(स्केच नंबर ९)

कच्चे ताजे अमरूद रहे हैं साथी अपने बचपन से,पसंद हम सबके,
चाहे घर के बागीचे में मां के रोपे हुए पेड़ की टहनी पर वे हों लदके,
या स्कूल के रास्ते में बुढ़िया दादी के घर के बागीचे में वे हों लटके,
या स्कूल के प्रांगण में अपने रेसस के टाइम कच्चे अमरूदों को पेड़ों से हम तोड़ा करते,
या फिर  रेलवे के अपने बंगलें के बागीचे के पेड़ों पर कच्चे हरे सजीले दिखते।

उम्र हो गई, फिर भी जो देखें फुटपाथों पर ठेले पर सजे हुए इनको हरे हरे और ताजे,
मुंह में पानी आ जाता, खुद को रोक न पाते, दो-चार छांटते खरीदते खाते,
इनको फांकों में काट, लगाकर नमक मशाले, जो इनको खाते
लाजबाब यह लगते, इनके स्वाद की तुलना क्या है कोई और कर पाते?

कच्चे यह अमरूद होते हैं बड़े कसैले, जो दांतों से काटें खायें,
मगर चबाते बड़े रसीले लगते हैं जितने खट्टे उतने ही हैं मीठे होयें,
मानो वह खुद के अंदर जीवन का दर्शन सारा हो लिये समेटे
कि जीवनपथ पर ऊंचनीच के अनुभव, होते हैं प्रथम बहुत कड़वे और कसैले,
मगर वही अनुभव कल बनते, आगे चलकर  अपने सच्चे साथी, मीठे फल देने वाले,
सही सबक हैं देते , विश्वास, आत्मबल, और जीवन में मनोबल बढ़ाने वाले।

-देवेंद्र दत्त मिश्र
फोटोग्राफ श्री दिनेश कुमार सिंह द्वारा

Thursday, September 10, 2015

परमवीर अब्दुल हमीद के शहीद दिवस पर उन्हें हार्दिक नमन....

सननन गोली चले चले बम गनवा हो
सुनि के करेजा धड़के ला परनवा हो

पाक नाहीं पाकी कइलस
देश साथ घात कइलस
चोरी चोरी बॉडर लंघलस
घुसपैठी हमला कइलस
डोंगराई क्षेत्र रहल बारिश क महीनवा हो
सनसन...

अब्दुल हमीद जइसन देश क पहरेदार रहलन
तन मन दिल से ऊ त भारतमां क लाल रहलन
छाती में गोली लागत तब्बौ मोर्चा नाहीं छोड़लन
हाथ हथगोला से ही पैटनटैंक उड़ाइ देहलन
देशवा के शान खातिर  देलेन आपन जनवा हो
सननन....

जय हो बहादुर अब्दुल तोहसे देशवा निहाल भइल
तोहरे जनम लेहला से माटी गाजीपुर क तरि गइल
अमर हउअ सबके दिल में बस देहियां शहीद भइल
तोहरे बहादुरी क गाथा, हर भारतीय हरदम गाइल
नाम तोहार रही अमर जब तक रही ई देशवा हो
सननन.. ....

-देवेंद्र दत्त मिश्र

शिक्षक!स्वयं सिद्ध और निर्भय करता!

(पटरी और चक्का - स्केच - 3)

कितने लुंजपुंज से सिमटे
घोसले के तिनकों में दुबके
मां जो चुन कुछ चारा लाती
बस उस अवलंबन पर पलते।

कितने नाजुक रेशम रोमित,
तेरे पंख अभी अविकसित
जग से नभ से पूर्ण अपरिचित
क्या उड़ान यह भान न किंचित ।

एक सुबह,जब नहीं ठीक से
थीं आंखे तेरी खुलीं नींद से
मां ने तुमको चोंच उठाया,
छोड़ दिया हवा में ऊंचे से।

तुम घिघियाते, चिंचीं करते,
लगे बिलखने हवा में गिरते,
भय से मन और प्राण सूखते,
था नहीं पता कि कैसे उड़ते।

अंदेशा, गिरने की बारी,
संघर्षों के पल थे भारी,
नहीं जानते पंख फैलाना,
फिर भी उड़ना थी लाचारी।

मगर अचानक चमत्कार यह,
पंख कुशल गतिमय हो जाता,
खामखाह डरता था कितना,
वह पक्षी अब खुलकर उड़ता।

पक्षी तेरा वह शिक्षक अनुपम ,
जो डर के आगे विजय दिलाता,
नभ में खुला धकेलकर तुमको,
स्वयं सिद्ध और निर्भय करता!

-देवेंद्र
फोटोग्राफ - श्री Dinesh Kumar Singh सर द्वारा

पत्र की ममता बनती पुष्प के जीवन का कवच अलौकिक ..

(स्केच नंबर - 4)

हे नाजुक, कोमल पुष्प!
मेरे अंकों में जब हुए प्रस्फुटित तुम जिस क्षण
बनकर मेरे आत्मज, सार्थक हुई मेरी ममता, रोम-रोम हुआ आह्लादित, अंग का हर कण!
तेरी कोमल पंखुड़ियों से करके स्पर्श
मेरे शरीर का रोम रोम रोमांचित है हो उठता,
तनिक पवन जो गुजरे भी मेरे अंकों से,
तुम हिलते,कुछ सहमे से रोमांचित हो उठते
मेरे अंकों में  लिपट चिपट हो जाते
मैं भर तुमको अपने अंकों में, लेकर तेरी सभी बलायें
करता तुमको आश्वस्त, तुम्हें मन ही मन देता यह दुआ सदा कि
लगे तुम्हें यह उम्र मेरी यह, बढ़े, पले तू खूब, लाल तुम जुगजुग जीये
जो भी कोई तेज धूप की किरणें दिखतीं तुमको छूते
मैं राहों में छाया बनते तुम्हें बचाऊं कुम्हलाने से
मगर हृदय में एक हूक यह भी उठ जाती यदाकदा
डर जाता यह कि तुम कितने कोमल हो,  नाजुक हो कितने!
समय ढल रहा, क्रमश:मेरे पांव और अंक थकते हैं,
जब वे होंगे शक्तिहीन कैसे कर पाऊंगा मैं तेरा रक्षण
लेते प्रतिपल तेरे सिर की सभी बलायें
मन हो जाता कभी व्यग्र और हो अति व्याकुल
प्रिय तेरी चिंता में, तेरे भविष्य की आशंका में
मगर मेरी ममता,  स्नेह की शक्ति निहित मेरे अंतर्उर में तेरी खातिर
बनकर मेरी शक्ति हृदय की मन को यह विश्वास सहज दे देती है
कि जिस अमर शक्ति की परम कृपा से बनकर अमूल्य वरदान तुम हे लाल! मेरे जीवन में आये
वही शक्ति देगी सदा कृपा और अपना संरक्षण
तुमको चिरायु रखेगी देकर अपना पोषण
यह अदृश्य उस परमशक्ति का विश्वास अटल ही
मुझको तुममें निज भविष्य के संरक्षित होने का अचल आश्वासन है देता।

-देवेंद्र
फोटो - श्री Dinesh Kumar Singh सर द्वारा

चोट कहीं और दर्द कहीं.....

(स्केच नंबर १)

ऐ तेज हवाओं!
माना तेरी तो यह फितरत ही है
कि एक सूखे पत्ते को उड़ा देना और पटकना!
मगर अपने इस खिलंदड़ेपन में
बस इतनी सी इंसानियत और जज्बात रखना कि
इस सूखे पत्ते के हालात को देखकर
उस टहनी की आह और ऑसू तो न निकलें!
जिसका यह कभी हिस्सा, लाडला और दुलारा हुआ करता था!

फोटोग्राफ - श्री दिनेश कुमार सिंह द्वारा

चांद की राह, कुछ फूलों की कुछ खारों की!

चांद की राह, कुछ फूलों की कुछ खारों की!
(स्केच न. २)

कितना उदास सा होता है,
चांद का यह अकेला सफर!
सब कुछ सोया हुआ,
खामोश गुमनामी में खोया हुआ!
क्या आसमान क्या धरती
क्या पेड़ और क्या पक्षी
क्या नदियां क्या पहाड़
क्या मैदान और क्या बीहड़
मगर चांद जागता है, रात भर चलता है
क्या ठंडी, क्या गर्मी यात्रा पूरी करता है
चाहे अमावस का हो अंधेरा या पूनम का उजाला,
मंदिर का सोया शिखर, या रास्ते में जागती मधुशाला
कभी आहट से, कभी सरपट से
चलता है, कभी इस क्षितिज से कभी उस क्षितिज से
कभी सागर के इस पार, कभी उस पार
रास्ते में क्या फूल और क्या खार
कहता है अपनी खामोशी में, चलने का संकल्प है
क्या फर्क यह कि निर्धारित यह यात्रा दीर्घ या अल्प है।
-देवेंद्र

फोटो - श्री Dinesh Kumar Singh द्वारा

आंवले का पेड़

(स्केच नंबर ८)

बचपन में, यदा कदा दीवाली की लंबी छुट्टी में, 

मैं मां के संग अपनी नानी के घर जब जाया करता, 

तो दीवाली के कुछ दिनों बाद वह ले जाती थी हमको, 

गांव के पास के आंवले के बगीचे में खाने पीने का सामान सजाकर, 

यह कहते कि आज वही बगीचे में ही दिन का खाना खाना है । 


पैदल जाते रास्ते भर मैं कितने सवाल मां से, नानी से पूछा था करता, 

कहां जा रहे, क्यों जा रहे,आज भला क्यों दिन का खाना

हम सब खाते हैं खुले बगीचे में बैठे, और आंवले के पेड़ो के नीचे?


नानी धीरज रखते मुझको बतलाया करती थी,

कि कार्तिक का यह आज शुक्ल पक्ष नवमी तिथि है,

पवित्र बड़ा यह दिन, इसे आंवला नवमी भी कहते हैं, 

और आज आंवले के पेड़ों के नीचे भोजन करने से, 

पुण्य बड़ा होता है,मिटते सब दुख दारिद्य,रोग व्याधि 

और विद्या,बल, बुद्धि, स्वास्थ्य,धन सुख बढ़ता है।


नानी बतलाती आज आंवले के वृक्षों में , 

धन्वंतरि हैं प्रविष्ट स्वयं होते, इसके फलपत्तों से अमृत बांटते, 

और देववैद्य अश्विनीकुमार हवा के संग बहते उपवन में 

आंवले की छाया में दिनभर आज  स्वास्थ्य बल देते।


नानी की  बातें कुछ पल्ले पड़तीं कुछ सिर से ऊपर जातीं, 

मगर हमारे पग में जल्दी वहां पहुंचने की उमंग और गति मिल जाती।


वहां बड़ा मेला सा रहता, बड़े, युवा और ढेर से बच्चे, 

जगह जगह जलते थे चूल्हे, भोजन की तैयारी करते , 

अलग अलग सब अपनेअपने जात-पात के झुंड बनाते 

अलबत्ता बच्चे मिल खेले,नाम न जानें, ना जाति पूछते।


लकड़ी के चूल्हे पर पकाती मां नानी संग चटपट खाना, 

और हम बच्चे बड़े मजे से , चादर पर बैठे पंक्ति से 

गरम गरम पूरी तरकारी, खाते छककर और मनमाना, 

भोजन के अंत सभी चाभते खीर मिठाई दोना दोना।


भोजन को निपटाकर मां नानी बर्तन और कपड़े समेटते, 

ढलता दिन, और थकीं काम से, घर वापस की तैयारी करते, 

तब हम बच्चे  धमाचौकड़ी करते अपने खेल पुजाते,

 इधर दौड़ते, उधर दौड़ते, मुश्किल  से वापस घर को कदम बढ़ाते।


और लौटते रास्ते, बरबस मुड़ते तकते जो उपवन को , उन पेड़ों को, 

ऐसा अनुभव होता कि वह दे रहे आशीष वचन हैं हमको, 

कि बच्चे तुम चिरायु हो, खुश हो, स्वस्थ रहो, पढ़ो, बढ़ो, उन्नति हो तेरी, 

इसी तरह तुम आते रहना, तेरे जीवन में सब शुभ हो, मिलती रहेगी ममता मेरी।


आंवले के उपवन के इन आशीष वचन में 

वही वात्सल्य, प्रेम, ममता अनुभव होती थी। 

जो नानी के मेरे सिर पर हाथ फेरते हौले से, 

उसकी आंखों में मुझको ममता दिखती थी।


-देवेंद्र दत्त मिश्र


-फोटोग्राफ Shri Dinesh Kumar Singh  द्वारा



जो नीम नीम, वही है हकीम!

जो नीम नीम, वही है हकीम!

(स्केच नंबर ५)  ७ सितंबर २०१५

हरे भरे दिखते कितने तुम ,
जो समीप वह छाया पाता।
मस्त पवन संग मस्त झूमते ,
सावन तुझको अंग लगाता। १।

सावन की बहती पुरवाई ,
और ललनायें झूला झूलें।
तेरी हर डाली मचल मचल,
कजरी पचरा के गीत ढलें।२।

यूं दिखते हो सुंदर भावन ,
जब लद जाते हैं पुष्प धवल।
तव अंग अंग ऐसा सजता, कि
मां दुर्गा का फैला हो आंचल ।३।

पर तेरी हरीतिमा सुंदरता ,
है अंदर समेटे कड़वापन ।
फिर निमकौली से सजते जब,
तीक्ष्ण गंध असहज करती मन। ४।

मानव जीवन भी कुछ तेरे जैसा ,
कितने कड़वेपन और सारे गम ।
फिर भी हर अनुभव नयी सीख,
जो नीम नीम, वही है हकीम ।५।

जो बाहर से मीठा लगता,
वह अंदर से कड़वा होता ।
जो देता ऊपर दर्द बहुत ,
वह अंदर से है सुख दे जाता। ६।
#Devendra Dutta Mishra

फोटोग्राफी - श्री Dinesh Kumar Singh  द्वारा

कनेर के फूल.....

कनेर के फूल....

(स्केच नंबर - ६)

याद आ गया आज अचानक, बचपन में
गांव में घर के शिव मंदिर के पास,
हमारे स्कूल के आने-जाने के रास्ते में
खामोश खड़ा पीले कनेर फूलों का पेड़।

सुबह सजा, पीले पीले फूलों से वह लकदक था दिखता,
और मंदिर में पूजा करने को शिवभक्त कई
तोड़ रहे होते थे उन पीले फूलों को अति श्रद्धा से,
फूलों को चुन रखते फूलों की पूजा डोलची में।
वह कनेर का पेड़ दमकता दर्प लिए, मुख
खिला, विहसता, खुशी-खुशी और कुछ गुमान से, सबको बांट रहा होता था पीले ताजे फूलों को,
मानों मूल्यवान आभूषण राजा कोई दान दे रहा विप्रवरों को,
क्यों न भला मन हो उसका अति उल्लासित,
जब उसे पता कि उसके पीले पुष्प चढेंगे आदर से शिव के माथे पर।

दिन ढलते जब स्कूल से लौटते हम उसको तकते,
तो अपने पीले फूलों से खाली, वह खड़ा वही दिखता कितना निस्पृह, खाली-खाली सा,
मानों कोई नृप सारी निधि स्वयं लुटा बन गया हो संन्यासी और बैठा हो एकांत, शांत और ध्यानलीन सा।

मन उदास हो जाता था देख उसको मौन और गंभीर इस तरह,
बोझिल मन, अपने नन्हे डग भरते हम गुजरते जब शिव मंदिर से ,
मन ही मन शिवजी से यही प्रार्थना करते कि —
हे शिवजी! कनेर का पेड़ फिर हँस पाये , उसके पीले सुंदर फूल उसे वापस मिल जायें।
सोते सोते यही सोचते होते क्या फिर से  खुश हो पायेगा कनेर का पेड़ ,उसे वापस अपने पीले सुंदर फूल मिलेंगे?

और शिव जी बड़े दयालु, जैसे कि हैं जाने जाते,
वास्तव जादू हो जाता , शिवजी हर रात दया कर देते थे,
और सुबह हम जब स्कूल उसी रास्ते से जाते होते,
वह कनेर का पेड़ पुनः ताजे पीले फूलों से लकदक था दिखता,
और बांट रहा होता था फिर से उदारमन, उल्लासित चेहरे से
अंजुलि भरभर अपने पीले फूल उन्हीं शिवभक्तों को ।

ऐसा लगता वह हम बच्चों को विद्यालय आते जाते
यही सीख देता था कि—
जितना तुम बांटोगे औरों को अपनी निधियां, अपने धन
उनसे कई गुना वापस पाओगे, वे वापस आयेंगी तेरी ही झोली में।
जो स्वाभाविक गुण,सम्पदा तुमको मिलती हैं प्रकृतिदत्त,
चमत्कार, जादू होता है उनको औरों को देने में, साझा करने में।
Devendra Dutta Mishra

फोटो श्री Dinesh Kumar Singh  द्वारा

कच्चे आंगन की मिट्टी में हराभरा वह कागदी नीबू का पेड़......

(स्केच नंबर ७)

याद आ गया बचपन का वह पेड़ कागदी नीबू,
जो हराभरा रहता था मेरे घर के कच्चे आंगन की मिट्टी में।
तपती गरमी के दिन में जिसकी छाया में मां धूप चढ़े रखती थी
मिट्टी के छिछले से बर्तन में पानी नन्हीं प्यासी गौरेयों की खातिर,
जो सुबह फुदकतीं, मगर धूप में कितनी कुंभला सी थीं जातीं,
हलक सूखते छाया में आकर, पानी पीकर, अपनी प्यास बुझाकर ,
फिर से ताजा होकर वह उस छाया में भरी दुपहरी,
फुदक फुदक कर खूब चहकतीं, और शोर शराबे करतीं।

ढले धूप जब रोज शाम मां ताजे नीबू तोड़ चार छः लाती
कुयें के ताजे ठंडे पानी में वह मीठी शिकंजी बनाती!
और बड़ी गिलास में बड़े नेह से वह पीने को थी देती,
और बड़े मजे से पीते इसको तनमन आत्मा तृप्त हो जाती
और सारे दिन भर की तीखी गर्मी कहीं दूर भूल सी जाती।

दिन हो या हो रात,सभी मर्जों का वैद्यक था वह, और बनता वह हर व्याधि का नाशी
कभी नमक काले संग चूसें,  और कभी शहद संग लेते थे इसको मुंह बासी।
मां मुझको दौड़ाती थी देने थैली में देकर हरे भरे कुछ नीबू,
जो सुन लेती चाचा, ताऊ के घर बीमारी , है बुखार या खांसी।

माह बीतते और हरे से हो जाते यह पीले,
तब मां इनको तोड़ बनाती कई अंचार रसीले
कुछ मिर्ची के इतने तीखे, जिनको खाते आंख से आंसू निकले,
और कुछ मीठे शीरे में डूबे, खट्टे मीठे, खाते आये मुंह में पानी।

मिट्टी के भी कैसे कैसे खेल अजूबे होते,
जहाँ धूप तपती में पत्ते और घास तृण तक जल जाते
वहीं पेड़ यह नीबू का और इसके नीबू फल रहते गरमी में भी लदके,
हरे भरे रहते यह कितने , कितने ताजे ताजे दिखते!

बहुत चमत्कारी होती हैं यह मिट्टी, और इसकी सौगातें,
नहीं पता कि कौन निधि कितने अनमोल कहां से आते
जो छोटा वह बड़ा और जो आज हरा वह कल पीला
बदले रूप-रंग कब कैसे केवल वक्त राज यह जानें, और क्या उसका खेला!
किसमें क्या गुण, और क्या कब अवगुण रहे पहेली समझ न आए !
जो खट्टा रस कल हो मीठा, जो मीठा वह सड़गल जाये, और मिट्टी में मिल जाये।

-देवेंद्र दत्त मिश्र

फोटोग्राफ - Shri Dinesh Kumar Singh  द्वारा

Friday, September 4, 2015

Thoughts of the day

04.09.15 Thoughts [ ] Squandering the time squanders your life multifariously. [ ] Living a life a quite and the low profile but the consistent and coherent is much more valuable and meaningful than its be showed and flamboyant but inconsistent and incoherent. [ ] It's easy to be self-indulgent and ignore the others feeling, but it's worth your salt to be considerate and compassionate to others. [ ] The Team work exposes you to an interesting Frontier, on one side it leverages your delivery power and the ability, on the other side it may threaten your personal clout and authority, you being overcome by your some more capable teammate. But no doubt, to be a great leader, you can't show your back to your Team. [ ] Sky is full of stars, but for you only that matters what brightens your part of world. [ ] Every day of it is important off course, but the life is a wholesome journey, it counts and matters for it what you carried on all the along. [ ] It's not that necessary everyone recognizes you who you are, what you are and how much you are, important is to be sure about your self and in your deeds. [ ] Certainly it matters what we think, but what matters the above the all is what and how we acted over them.