Sunday, July 24, 2011

मोहयात्रा


पंडित शुचिधर्म शास्त्री अपनी अनुशासित दिनचर्या के अनुरूप नित्यक्रिया व स्नान से निवृत्त हो स्वच्छ वस्त्र धारण कर ताम्रपात्र में पु:ष्प व बेलपत्र अभिरचित पवित्र जल धारण किये , मन में शिवस्त्रोत्र का जाप करते संयमित कदम से शिवमंदिर की ओर जा रहे थे।

मंदिर गाँव के दक्षिण , उनके आवास से चार-पाँच फर्लांग की दूरी पर था।यह मंदिर गाँव के जमींदार ने लगभग सौ वर्ष पहले निर्माण कराया था । शुचिधर्म के दादाजी मंदिर के पुजारी थे और मंदिर प्रांगण में ही एक कुटियानुमा मकान में सपरिवार रहते थे।उनके देहावसान के उपरांत शुचिधर्म के पिता मंदिर के पुजारी बने, किंतु मंदिर प्रांगण का कुँआ सूख जाने व जल की समस्या के कारण अपना नया आवास गाँव के निकट तालाब के पास अपने पुस्तैनी जमीन में बना लिया और परिवार सहित यहीं रहने लगे। सुबह शाम की दैनिक मंदिर पूजा अब घर से ही आ जा कर करते।यही क्रम शुचिधर्म ने जारी रखा है।

पंडित शुचिधर्म का बडा भरा-पूरा परिवार था- चार बेटे,बहुएँ,कई पोते-पोतियाँ,सम्पन्न परिवार था।इनके आवास से मंदिर आवागमन का रास्ता पहले पगडंडीनुमा पर साफसुथरा था। किन्तु विगत कुछ वर्षों से कुछ निम्न जाति के लोग रास्ते के समीप गांव के इस हिस्से में बस गये और उनके सूकर आदि पालतू जानवरों व विष्टा के कारण रास्ते के किनारे जगहजगह गंदगी हो गयी थी, रास्ते के समीप गंदे पानी और विष्टा-कीचड से भरे गड्ढे में सूकर लोटपोट व धमाचौकडी करते। पंडित शुचिधर्म इस रास्ते की गंदगी व गंदे दृश्य को किसी तरह बरकाते व सहन करते,मन ही मन कुढते, मंदिर पूजा हेतु आवागमन करते।

आज मंदिर जाते वही अनर्थ हुआ जिससे पंडित शुचिधर्म सदा बचते बचाते थे। रास्ते के किनारे कीचड से भरे गड्ढे में एक प्रौढ सूकर गुरगुराहट भरते ,अपने में ही मस्त, कीचड में अपनी पूँछ ऐंठते- पटकते धमाचौकडी खेल और कीचड बिखेर रहा था। शुचिधर्म इस गंदगी को बहुत बरकाते हुये रास्ते से निकल जाना चाहे, पर यह क्या, कीचड के कुछ छींटे उनकी धवल धोती, पवित्र शरीर व पूजा-जल में पड ही गये। यह भारी अनर्थ था। शुचिधर्म की वेदना व क्रोध का पारावार न था और मारे गुस्से के पागल हो , पास में पडे पत्थर को उठाया और सूकर को दे मारा। यह इतना जोरदार आघात था कि  सूकर  के प्राण पखेरू उड गये। किन्तु प्राण त्यागने के पूर्व सूकर ने शुचिधर्म को कडा श्राप दिया कि – रे पंडित तूने अकारण मुझ निर्दोष का वध किया है, इसलिये तू भी मृत्यु को प्राप्त हो और तुरंत सूकर-योनी में जन्म ले।पंडित को काटो तो खून नहीं।वह हाथ जोड सूकर से अपने क्रोध वशीभूत किये गये भयंकर अपराध के लिये क्षमा और श्राप से मुक्ति व अपने दीवन के लिये प्राण की भीख माँगने लगे। सूकर श्रापमुक्ति तो दे नहीं सकता किंतु प्राण त्यागने के पूर्व यह उपाय अवश्य बताया कि यदि उनके सूकर जन्म के उपरांत, उनके इस मानव जन्म के पुत्र या पोते उनका वध कर दें तो अवश्य ही उन्हे सूकर योनी से मुक्ति मिल जायेगी।

अब शुचिधर्म करते भी क्या, उदास-दुःखी मन घर वापस आये, सारा वृतांत घर वालों को सुनाया,रोते-बिलखते परिवारवालों से विदा लेते ,शरीर त्याग दिया और सूकर योनि में उसी सूकर परिवार में नया जन्म लिया।नया जीवन, नया परिवेश,नये माता-पिता, नया परिवार, किंतु पूर्व-जन्म की स्मृतियाँ यथावत थीं। नया परिवेश विष्टा, गंदगी व कीचड से भरा था, जिससे वे घृणाँ करते ,रोते-बिलखते रहते। जहाँ अन्य सूकर-शिशु विष्टा-कीचड के गड्ढे में लोटते-पोटते खेलते, वहीं शुचिधर्म गड्ढे के बाहर डरे-सहमे रोते बिलखते रहते। सभी सूकर उनका मजाक उडाते, सिवाय उनकी सूकर माँ के , जो मात्र उन्हे स्नेह, प्रेम व दुलार व आश्वासन देती, अपने स्तन से दुग्ध-पान कराती। शुचिधर्म यदि इस विषम वीष्टा-गंदगी से भरे परिवेश में यदि जीवित थे तो बस उनकी सूकर माँ का स्नेह व प्रेम था।उसी के प्रयाश से वे धीरे-धीरे  वीष्टा-कीचड के गड्ढे में उतरने, लोटने-पोटने व सूकर का स्वाभाविक भोजन का आनंद उठाने के अभ्यस्त होने लगे।

उधर उनके पुत्रों परिवार वालों को एक दिन उनकी व उनके श्राप-निवारण की सुध आयी,तो दौड-दौडे उसी नियत स्थान- वीष्टा-कीचड के गड्ढे के समीप हाथ में पत्थर उठाये पहुँच गये,जहाँ शुचिधर्म अपने सूकर माँ के साथ गड्ढे में खेल में रमें था। जान-पहचान हुई,सबका रोना बिलखना शुरू हो गया, उनके पुत्र तो यह दृश्य व अपने पिता की घृणित जीवन दशा देख क्षोभ व दुःख से भर गये, और उनके इस नारकीय जीवन से मुक्ति हेतु हाथ में लिये पत्थर से वार करने को तत्पर हो गये। सूकर माँ अपने पुत्र के बिछडने के भय व आशंका में प्रलाप करने लगी। शुचिधर्म धर्मसंकट में पड गये और अपने सूकर माँ के प्रेम-स्नेह के मोह में अपने ही पुत्रों से अपनी जान की मोहलत माँगने लगे। अपने पुत्रों को यह समझा-बुझा कर वापस कर दिया कि वे कुछ दिन अपनी सूकर माँ के साथ रह लें, फिर वे लोग कुछ समय के उपरांत आकर उन्हें इस सूकर जीवन से मुक्ति दें।

सूकर माँ इस नयी परिस्थिति व अपने पुत्र को शीघ्र खोने के भय व असुरक्षा की भावना के कारण, शुचिधर्म को शीघ्र-विवाह करने व पुत्र से बिछडने से पहले पोते का मुँह देखने का आग्रह करने लगी। शुचिधर्म को अपनी इस माँ के प्रति अति प्रेम व आदर था, अंतः उसके इस आग्रह के न टाल सके और उनका शीघ्र ही एक सुंदर सी सूकरकन्या से विवाह हो गया। कुछ दिनो के उपरांत उनके परिवार में और वृद्धि हो गयी जब उनकी सूकर माँ की अपार हार्दिक इच्छा के अनुरूप शुचिधर्म कई सुंदर सूकर पुत्रों के पिता बन गये। धीरे धीरे वे अपनी इस नयी पारिवारिक जिम्मेदारी में इतना रम व खो गये कि उन्हे अपने पुराने परिवार के प्रति मोह तो दूर, स्मृति भी क्षिण सी होने लगी।

कुछ माह उपरांत, उनके पूर्वजन्म के पुत्रों को जब अचानक उनकी सुध आयी तो फिर से वे पत्थर से लैश , उनका वध कर उन्हें श्रापमुक्ति देने उस स्थान पर आ पहुँचे। शुचिधर्म के लिये तो यह और धर्मसंकट व उहापोह की स्थिति थी। एक तरफ उनका पुराना बिछडा परिवार व उनसे मिलने की ललक तो दूसरी और उनका नया भरा-पूरा परिवार , उनके प्रति उपजा अपार प्रेम व मोह और इनसे बिछडने की कल्पना मात्र से मन में उठने वाला भारी दुःख।

अंततः शुचिधर्म ने जी कडा कर साफ शब्दों में अपने पूर्वजन्म के पुत्रों को यह समझा कर वापस कर दिया कि वे अब अपने इस नये भरे-पूरे परिवार में अति प्रसन्न हैं, वे लोग भी अब उनका मोह व चिंता छोड , उन्हें भूल जायें और वापस लौट जायें।

यह मोहयात्रा निरंतर है ।

4 comments:

  1. वाह! देवेन्द्र भाई सुन्दर रोचक ढंग से कथा के
    माध्यम से 'मोह्यात्रा' का वर्णन किया है आपने.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

    कुछ समय निकालिएगा मेरे ब्लॉग पर भी आने का.

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  2. मोहयात्रा चलती ही जा रही है, वर्तमान की संतुष्टि में हम मगन हो जाते हैं।

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  3. Reminds me of Pink Floyd......
    Big man, pig man, ha ha charade you are.
    You well heeled big wheel, ha ha charade you are.
    You're nearly a laugh
    But you're really a cry.

    Mani

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