Monday, March 23, 2015

'श्रीसूक्त' महत्ता -'प्रादुर्भूतोऽस्मिन् राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्ति-मृद्धि ददातु मे' ..........

"ऋग्वेद" के परिशिष्ट भाग में "श्रीसूक्त" दिया है, जिसमें "श्रीदेवी" की वंदना की गई है। इस सूक्त में कुल 29 मंत्र उपलब्ध हैं। संभव है, मूल रूप में इनकी संख्या काफी अधिक रही हो।वैसे तो इस मंत्र की व्युत्पत्ति में के बारे में अनेक धारणायें हैं परंतु वैदिक परंपरा के विभिन्न ग्रंथों जैसे  "बृहद्देवता" में भी "श्रीसूक्त" का उल्लेख मिलता है , जिसका रचनाकाल सामान्यत: ईसा पूर्व चौथी या पांचवीं शताब्दी माना जाता है। इससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि "श्रीसूक्त" की रचना इससे काफी पहले हो चुकी होगी।

श्रीसूक्त के कुछ मंत्रों में "श्री देवी" का उल्लेख किया गया है और कुछ में "लक्ष्मी" का। कहीं-कहीं कुछ अन्य नामों से भी सम्बोधित किया गया है। देवी के विभिन्न नाम उनके विशिष्ट गुणों को प्रकट करते हैं। उल्लेखनीय नाम हैं-अश्वपूर्वा, अश्वदा, चन्द्रा, पद्मप्रिया, अच्युतवल्लभा, पद्ममालिनी, पद्माक्षी, महालक्ष्मी, सूर्या, हेममालिनी तथा हिरण्यमयी आदि। "श्रीसूक्त" में दिये गए मंत्रों में श्रीलक्ष्मी के सौंदर्य और उनकी विशिष्टताओं का विशद वर्णन तथा उन विशिष्टताओं के आधार पर ही, लक्ष्मी से विभिन्न प्रकार की मंगल व समृद्धि की कामनाएं व्यक्त की गई हैं। यथा-

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलंतीं, श्रियां लोके देवजुष्टामुदाराम्। तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्ये, अलक्ष्मीं नश्यतां त्वां वृणोमि।

अर्थात् "मैं चन्द्रमा के समान शुभ्र कांति वाली सुंदर द्युतिशालिनी, यश से दीप्तमंत, स्वर्गलोक में देवगणों द्वारा वंदिता, उदारशीला, पद्महस्ता, लक्ष्मीदेवी की शरण ग्रहण करता हूं, जिससे मेरी दरिद्रता का नाश हो। हे देवि, मैं शरणागत के रूप में आपका वरण करता हूं।"

इसी प्रकार सूक्त के प्रथम श्लोक में कहा गया है-
"हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्ण रजतस्रजाम्।
चंद्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो मऽआवह।"

अर्थात् "हे देव। मेरे लिए सौभाग्य की देवी लक्ष्मी का आह्वान कीजिए, जो हिरण्यवर्णी, परम रमणीय, स्वर्ण रजत आभूषणों से अलंकृत, पुष्पमाल धारणा किये हुए चन्द्रप्रभा युक्त एवं हिरण्यमयी हैं, ताकि मैं उनकी कृपा प्राप्त कर सकूं।"

"श्रीसूक्त के रचयिता, श्री लक्ष्मी को सौभाग्य व कीर्ति(यश)का प्रतीक मानकर उनसे निजी सौभाग्य और कीर्ति ( यश) के अतिरिक्त संपूर्ण राष्ट्र व उसके जनों के मंगल व कीर्ति (यश) की भी कामना करते है।

उपैतु मां देवसख: कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मिन् राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्ति-मृद्धि ददातु मे।।

अर्थात् हे देव, हमें देवों के सखा कुबेर, और उनके मित्र मणिभद्र तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति (यश) उपलब्ध करायें, जिससे हमें और राष्ट्र को कीर्ति-समृद्धि प्राप्त हो।

इस प्रकार श्रीसूक्त की प्रार्थना व श्री देवी की उपासना न सिर्फ निजी धनधान्य, सौभाग्य व सुखसमृद्धि की कामना मात्र है अपितु यह संपूर्ण राष्ट्रहित व जनकल्याण, सर्वसाधारण  हेतु मंगल कामना है ।

श्रीलक्ष्मी को केवल मात्र धनधान्य की ही स्वामिनी नहीं, अपितु सैन्य, सम्पत्ति की भी स्वामिनी माना गया है। इसीलिए "श्रीसूक्त में, श्रीलक्ष्मी से अश्व, रथ, गज और सुसज्जित सेना की भी कामना की गई है। श्रीलक्ष्मी को स्वर्ण निर्मित रथ पर बैठा हुआ बतलाया गया है। श्रीलक्ष्मी को कमल प्रिय हैं और उनके दोनों ओर हाथी चिंघाड़ते हुये निरंतर जलस्नान कराते दिखते हैं, जिससे उन्हें आनंद प्राप्त होता है। इस प्रकार 'श्री लक्ष्मी' की जल ,जो हमारे जीवन के आधार है , जल से उत्पन्न उसके स्वाभाविक गुणों शीतलता व शांति के प्रतीक कमल से सुसज्जा व आराधना हमारे जीवन में शांति सुख व समृद्धि की उत्कृष्ट  कामना का सुंदर व प्रभावी प्रतीक है ।

गजलक्ष्मी की यह धारणा अनेक प्राचीन भारतीय सिक्कों व प्रचलित उपलब्ध चित्रों में भी अभिव्यक्त की गई है। सुप्रसिद्ध पौराणिक कथा के अनुसार लक्ष्मी की उत्पत्ति समुद्र से मानी गई है। समुद्र-मंथन के समय जो नवरत्न प्राप्त हुये उनमें श्रीलक्ष्मी भी एक रत्न स्वरूप प्राप्त हुई थीं जिन्हें भगवान विष्णु ने अंगीकार किया।

अथर्ववेद के एक मंत्र के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के जन्म के साथ एक सौ एक लक्ष्मियां भी जन्म लेती हैं, जिनमें कुछ कल्याणकारी होती हैं ओर कुछ अकल्याणकारी। मंत्र में यह कामना की गई है कि जो कल्याणकारी लक्ष्मियां हैं, वे जीवन में बार-बार आयें और अकल्याणकारी लक्ष्मी हटकर दूर चली जायें। श्रीलक्ष्मी को सद्गुणों के प्रतीक के रूप में पहले से ही स्वीकार किया जाता रहा है और इस प्रकार दुष्प्रवृत्तियों के प्रतीक के रूप में "ज्येष्ठा या अलक्ष्मी" की कल्पना भी सहज स्वाभाविक है। मानव जीवन में दोनों ही तत्वों, शुभ व अशुभ, का योग रहता है और इसी तथ्य की ओर इंगित अथर्ववेद के इस मंत्र में है-

एक शतं लक्ष्मयो मत्र्यस्य साकं तन्वा जनुषोधि जाता:।

हमारी सनातन भारतीय संस्कृति पर "श्रीसूक्त" का प्रभाव काफी अधिक व गहरा रहा है। इस पर अनेक भाष्य लिखे गये और अनेक स्थानों पर इसकी चर्चा हुई। इससे "श्री" की देवी के रूप में लोकप्रियता भी निरंतर बढ़ती चली गई। जातक कथाओं में भी इसकी चर्चा हुई है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी इसका वर्णन मिलता है। स्कंदगुप्त के जूनागढ़-अभिलेख में भी श्रीलक्ष्मी का वर्णन प्राप्त होता है। देश के विभिन्न स्थानों की गुफाओं में जो कला प्रस्तुत की गई, उसमें भी श्रीलक्ष्मी का विशिष्ट स्थान है।

श्रीलक्ष्मी की उत्पत्ति के संबंध में अनेक कथाएं प्रसिद्ध हैं। समुद्र-मंथन की कथा का वर्णन तो महाभारत सहित अनेक ग्रंथों में मिलता है। विष्णुपुराण में लक्ष्मी को दक्ष की कन्या कहा गया है। "देवी भागवत" उपपुराण में लक्ष्मी का जन्म श्रीकृष्ण के वामांग से माना गया है। ब्राहृवैवर्त पुराण के अनुसार लक्ष्मी मूलत: राजा कुशध्वज की पुत्री थीं। बाद में महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण वह नष्ट हो गयीं और तब समुद्र-मंथन से उन्हें पुन: प्राप्त किया गया।

शतपथ ब्रााहृण की एक कथा के अनुसार प्रजापति के ह्मदय से "श्री" (लक्ष्मी) की उत्पत्ति हुई, जो अत्यधिक सौंदर्यवान, प्रकाशवान और ओजवान थीं। उनसे आतंकित होकर देवताओं ने उनकी हत्या करने की सोची। लेकिन हत्या करना चूंकि उचित नहीं होता, इसलिए उन्होंने "श्री" के सम्पूर्ण वैभव और ऐश्वर्य का अपहरण करके आपस में बांट लिया। बाद में तपस्या करने पर "श्री" को उनके गुण वापस मिल गये। इस कथा के अनुसार "श्रीलक्ष्मी" प्रजापति की पुत्री हुर्इं। मगर यजुर्वेद में "श्री" को प्रजापति की पत्नी के रूप में चित्रित किया गया है। कारण संभवत: यह रहा कि आगे चलकर प्रजापति के अनेक गुण विष्णुनारायण में समाहित कर दिये गये और इस प्रकार यजुर्वेद का मंतव्य संभवत: उन्हें विष्णु-पत्नी के रूप में चित्रित करना था।

यद्यपि प्राचीन साहित्य में, हमें "लक्ष्मी" कहीं कहीं इन्द्र या कुबेर के साथ भी जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं, मगर कालांतर में उन्हें विष्णुपत्नी के रूप में ही स्वीकारा गया। गुप्तकाल के अभिलेखों में भी "श्रीलक्ष्मी" को विष्णु-पत्नी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आचार्य रामानुज ने अपने "श्री-सम्प्रदाय" में विष्णु को परमेश्वर तथा लक्ष्मी को उनकी पत्नी माना। महाभारत के उत्तराद्र्ध में भी हमें लक्ष्मी का परिचय विष्णु-पत्नी के रूप में ही मिलता हे।

प्रारंभ में हमें कहीं-कहीं लक्ष्मी के साथ कुबेर के पूजन की व्यवस्था देखने को मिलती है। बाद में कुबेर का स्थान गणेश ने ले लिया जो अभी तक चला आ रहा है। मगर, ब्राहृवैवर्त पुराण के अनुसार स्वयं कृष्ण (विष्णु) ने ही गणेश का रूप धारण किया था। इसलिए प्रकारातंर से गणेश का अर्थ विष्णु ही हुआ।

इसप्रकार श्रीसूक्त व श्रीदेवी की व्युत्पत्ति, मान्यता व आराधना के विभिन्न मतों व विचारधाराओं के बावजूद इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रीसूक्त व उसके द्वारा श्री देवी की आराधना व्यक्ति के स्वयं व अपने कुटुंब के जीवन में सुखसमृद्धि ऐश्वर्य व यश की कामना के साथसाथ जनसाधारण मात्र व राष्ट्रसंपूर्ण की सकल समृद्धि, सैन्यशक्ति बल सामर्थ्य की वृद्धि, राष्ट्र के ऐश्वर्य और कीर्ति(यश) की वृद्धि व उन्नति की मंगल कामना है ।

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