विचारों की प्रबलता व उनके निरंतर अंधण व शोर के कारण हमारे अवचेतन मन की सूक्ष्म दृष्टि क्षमता जाया जाती है । प्रभात बेला में पक्षियों का कलरव, चलती हवा में पत्तों की सरसराहट, सूर्य की बालकिरणों में चमकती ओस की बूँदें,बगीचे में कलियों से खिलते पुष्प, य़ा अलसाये से व अर्धनिदृत से स्कूल के लिये प्रस्थान करते मासूम बच्चे , इन मनोहरतम् व अद्भुत ध्वनियों व दृश्यों पर तो हमारा ध्यान भी नही पहुँच पाता ।
हमारे अवचेतन की सूक्ष्म दृष्टि जो मात्र ही इन मनोहरतम् व अद्भुत ध्वनियों को सुनने व देखने में सक्षम है,वह हमारे अन्दर चल रहे विचारों के अंधण में इस तरह फँसी और दबी रहती है, कि उसे तो रंचमात्र यह आभाष भी नही मिल पाता कि हमारे चारों ओर निरंतर कितनी सुन्दर व शुभ ध्वनियाँ, दृष्य़ व घटनायें निरंतर घट रही हैं ।वस्तुतः इन सुन्दर व शुभ ध्वनियाँ और दृष्य़ों को बिना अवचेतन की सूक्ष्म दृष्टि की शक्ति व जाग्रत अवस्था के देखना व सुनना सम्भव ही नही है ।
विगत कुछ दिनों से एक छोटी सी पर बडी रोचक सी घटना मेरे स्वयं के साथ घटित हुई है।पाँच-छः दिन पहले ,शाम को ऑफिस से घर लौटते वक्त, घर के रास्ते से थोडा सा पहले एकाएक ध्यान कोयल की मीठी कूक की ओर गया । जब पलट कर निगाह उस मधुर आवाज की दिशा में गयी, तो इस शाम के धुँधलके में भी ,सडक के किनारे के बगीचे में , पास के छोटे पेड पर एक साधारण सी टहनी पर पत्तों के आधे झुरमुट में सहजता से बैठी इस कोयल की एक झलक सी मिली । सडक पर सरकती गाडी में बैठा मैं तो आगे बढ गया, किन्तु मन तो पलट-पलट कर उतावले बच्चे सा उसी मीठी ध्वनि की ओर भागा जा रहा था । वहाँ से दूर तलक, घर के बिल्कुल पास भी वह मिठास भरी, हालाँकि बहुत धीमी ही, आवाज अब भी आ रही थी । घर के अन्दर आ गया , तो यहाँ आवाज का आभाष तो अनुपस्थित था, किन्तु उस आवाज के प्रति मन की उत्सुकता व उतावलापन अब भी वैसा ही था । और मन की यही उत्सुकता मुझे घर के पीछे वाली बालकनी तक ले गयी, और सामने की झील के उसपार, सडक के नजदीक के उसी बगीचे से अब भी वह धीमी और मीठी आवाज कुछ-कुछ अंतराल पर आती सुनाई पड रही थी। और मन भी अब अपनी चंचलता व उतावलापन छोड बडे ध्यान व शान्त भाव से उस आवाज को सुनने में विभोर था । ऐसा महसूस हो रहा था जैसे यह आवाज कहीं बाहर से न आकर, कहीं अपने अंतर्मन की प्रतिध्वनि से ही आ रही हो ।अब तो हर रोज ही ,शाम को उस स्थान से गुजरते , मन उसी मीठी आवाज की तलाश में पीछे छूट जाता है । कुछ ऐसा ही होता है जब मन की सूक्ष्म दृष्टि किसी चीज के प्रति जागृत हो जाती है ।
पिछले वर्ष, प्रबंधन की पढाई हेतु, जब मैं IIMB परिसर में रह रहा था, तो वहाँ भी प्रायः इसी तरह की अनुभूति होती थी । उस हरे-भरे , विभिन्न प्रकार के व सुरुचिपूर्ण रूप से स्थापित पेडपौधों और सुन्दर पुष्पों से सज्जित परिसर में प्रभात और संध्या सैर के दौरान जब कभी अचानक ध्यान पक्षी-कलरव, या पेडों-झुरमुटों के बीच बैठे गुनगुनाते, चीं-चूँ करते कीडों-मकोडों की ओर ध्यान चला जाता, तो उस समय जरूर मन की इस सूक्ष्मता का रंच आभाष मिलता था ।वरना तो इस इर्द-गिर्द फैले, आंतरिक व वाह्य, दोनों ओर के शोर के बीच यह मन की इस सूक्ष्मता इतनी दबी सी रहती है कि हमें रंच अनुभूति भी नही हो पाती कि हमारे आस-पास परिवेश में कितनी ही अद्भुत ध्वनियाँ व दृश्य निरंतर प्रगट हो रहे हैं। हमारे मन की सजगता यदा-कदा यदि जाग्रत हुई भी तो कुछ पल के लिये इस सुन्दरता की झलक मिलती तो है, किन्तु फिर वही निरंतर चल रहे विचारों के वेग व धारा में सब तिरोहित हो जाता है।
हमें मन की इस सजगता को विचार-शून्यता के प्रयाश से जगाना चाहिये । मन की सजगता की अवस्था में इसकी सूक्ष्म दृष्टि अवचेतन मन की ऊपरी सतह पर आकर इन अनोखे व अद्भुत ध्वनियों व अपने परिवेश में घटित हो रहे सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों , जैसे प्रभात की सूर्य-किरणें व उनसे चमकती ओस की बूँदें, बाग में खिलते फूल, तितलियों का उडता झुंड, उडते पंक्षी, पेड पर बैठे उनका कलरव, या शाम की झुलफुलाहट में घासों के बीच बैठे टिड्डे की गुर्राहट, कीडे-मकोडों का टें-टें, या कहें तो बरसात के दिनों में यदा-कदा दिख जाने वाला इंद्रधनुष का सप्त-रंगी दृश्य, को अनुभव कर पाती है ।
मेरी आध्यात्म क्षेत्र की जानकारी तो बहुत सीमित है किन्तु जो भी किंचित आत्मिक अनुभूति है, उस आधार पर मेरा मत है कि यह सूक्ष्म दृष्टि की जागृत स्थिति हमें स्वयं के शारीरिक व मानसिक धरातलों में निरंतर परिवर्तनशीलता की संवेदनाओं, हमारे परिवेश में घटित हो रहे परिवर्तन चक्र के चलचित्र का सहज आभाष दिलाने लगती हैं । और इस तरह हमारा द्रष्टाभाव , स्वयं के प्रति,अपने परिवेश के प्रति, और ईश्वर की इस अद्भुत रचना जगत के प्रति,स्थापित होने लगता है । और यही द्रष्टा भाव ही हमारे अंदर योगत्व लाता है । कृष्ण ने गीता में यही तो कहा हैः
यो मां पश्यति सर्वत्र , सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणयस्यामि, स च मे न प्रणस्यति ।।
यह सजगता को सदा ही जीवित रखना होगा,अन्यथा इन ध्वनियों की सूक्ष्मता नहीं सुनायी पड़ेगी।
ReplyDeleteदेवेन्द्र साहब ने आपका पता दिया....सही कहता हूँ पढ़कर निराश नहीं हुआ...
ReplyDeleteसही कहा आपने....जीवन की आपा-धापी (जो के हमारी अपनी खुद की ही बनायी हुई है ) सूक्ष्म चीज़ें देखने ही नहीं देती....
मन की आवाज सुनने की क्षमता बहुत व्यापक है ...लेकिन मनुष्य के अपने असंतुलित स्वार्थ तथा धनलोलुपता ने इस क्षमता को बाधित किया है....
ReplyDeleteप्रवाहपूर्ण लेखनी -किन्तु मेरे लिए तो यह एक मेक बिलीव सा लगता है बहुधा --शायद प्रकृति मुझसे कुपित हो चली है और इन सूक्ष्म अनुभूतियों की ग्राह्यता के गुण से मुझे वंचित कर चुकी है -अब फूल कहाँ उतने चटख दीखते हैं और तितलियों के पंख कहाँ उतने सपनीले !
ReplyDeleteअच्छा है ! लिखते रहें। स्वागत है इधर की दुनिया में आपका।
ReplyDeleteप्रवीण जी की पोस्ट से आपके ब्लाग तक पहुंचा। आपका ब्लाग पर आना अच्छा लगा। कुछ त्वरित प्रतिक्रियाएं हैं।
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ब्लाग का नाम कुछ सरल और जबान पर जल्दी चढ़ने वाला होता तो बेहतर रहता।
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निसंदेह आप लिखने के लिए जो विषय चुन रहे हैं वे बिलकुल अछूते हैं।
किन्तु भाषा अगर प्रवाहमयी और थोड़ी सरल हो तो अधिक आनंद आएगा। बीच बीच में आप अचानक बेहद सहज हो जाते हैं लेकिन कहीं कही लगता है कि सप्रयास जटिल हो रहे हैं।
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शुभकामनाएं ।
मिश्र साहब, हालांकि देख रहा हूँ कि आप पिछले महीने से ही अपने ब्लॉग पर सक्रीय है , फिर भी आपका हार्दिक स्वागत और धन्यवाद करता हूँ इस हिन्दी ब्लॉग जगत से जुड़ने के लिए ! निश्चित तौर पर आपके अनुभवों से इस हिन्दी लेखन जगत को बल मिलेगा !
ReplyDeletepraveen jee ki yahi khasiyat hai, kuchh sabdo me sab kuch samet lete hain...unke sabdo se sahmat:)
ReplyDeletekoyal ki kook ab to hamen mobile ki ringtone me hi sunaayee deti hai...pahle vaali baat kahan...na ve aam ke baur na hi koyaliya ki kook !
ReplyDeleteप्रवीन जी के ब्लॉग तक होते होते आपके ब्लॉग तक आना हुवा ... नए विषय और आपकी भाषा पर पकड़ देख कर आनंद आ गया ...
ReplyDeleteसच है स्वयंम को सजग रखना जरूरी है बहुत सी सूक्ष्मता पाने के लिए ....
स्वागत है आपका ..
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ReplyDeleteआज तक मन में आते विचारों को कभी विराम नहीं दिया । नहीं जानती विचार शून्य होकर सूक्ष्म को कैसे समझ सकते हैं । लेकिन मन के कोलाहल के मध्य बहुत से सूक्ष्म विचार आते हैं । अच्छा लगता हैं उन्हें सुनना।
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आपके उपनिषद और गीता के ज्ञान से बहुत कुछ मिलने वाला है हमें.
ReplyDeleteद्रष्टा भाव का जागृत करना ही हमे सूक्ष्म अनुभवों से अवगत करता हैऔर यही योगत्व लाता है.आपका यह कहना सही है कि
"और इस तरह हमारा द्रष्टाभाव , स्वयं के प्रति,अपने परिवेश के प्रति, और ईश्वर की इस अद्भुत रचना जगत के प्रति,स्थापित होने लगता है । और यही द्रष्टा भाव ही हमारे अंदर योगत्व लाता"
आपके विचारों को जाना कोयल की कुक भी सुनी बहुत अच्छा लगा पढ़ कर , जिन छोटी - छोटी सी प्यारी - प्यारी आवाजों की बात आप कर रहें दोस्त उनका अनुभव करने भर से ही मन प्रसन्न हो जाता है हमे तो लेख पढ़ कर ही कोयल की मिठ्ठी कुक सुनाई देने लगी ?
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत एहसास |
प्रवीणजी से आपका अता-पता मिला। आपकी भाषा आश्वस्त करती है कि हिन्दी का अच्छा समय लौट रहा है। ईश्वर यह पुण्य आपकी पीढी को प्रदान करे।
ReplyDeleteभाषा ही नहीं, भाव और प्रवाह में भी आप प्रभावित/आश्वस्त करते हैं।
हार्दिक स्वागत और अकूत शुभ-कामनाऍं।
प्रवीणजी का आभार आप से मिलवाया .... पढ़कर बहुत अच्छा लग रहा है.... ऐसे सार्थक और प्रवाहमयी विचारों को आगे भी पढ़ने का मौका मिलता रहे..... स्वागत.... आभार
ReplyDeleteमन के कोलाहलों से आदमी खुद ही मुक्त नही होना चाहता। जब भी वो संसार से मुक्त होकर खुद के पास लौट कर आयेगा तभी वो चिन्तन करेगा और तभी वो उस सूक्ष्म तत्व को जानने का प्रयास करेगा। आज की आपा धापी मे हम यही तो खो चुके हैं। सार्थक् आलेख के लिये बधाई। बहुत अच्छा लगा आपके ब्लाग पर आ कर । शुभकामनायें।
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