बचपन में पढी अयोध्या सिंह उपाध्याय की ‘बूँद‘ पर लिखी एक हिन्दी-कविता मुझे बरबस याद आती रहती है, खास तौर जब भी कोई भी अनिश्चितता से भरे स्थान-परिवेश बदलाव से साबका पडता है। शायद इसलिये हो कि बचपन में भी यह कविता मुझे अति प्रिय थी ।
ज्यों निकलकर बादलों की गोद से,
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह घर मैं छोड कर क्यों यूँ चली ।।
दैव मेरे भाग्य में है क्या बदा,
मैं बचूँगी, या मिलूँगी धूलमें।
या जलूँगी मैं कहीं,
गिर अंगारे पर किसी ।
बह चली उस काल कुछ ऐसी हवा,
वह समुन्दर ओर आयी अनमनी।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला,
वह उसी में जा पडी मोती बनी ।।
लोग यूँ ही हैं झिझकते सोचते,
जबकि उनको छोडना पडता है घर।
किन्तु घर का छोडना अक्सर उन्हें,
बूँद ल्यों कुछ और ही देता है कर ।।
जीहाँ, इस जीवन यात्रा में जब-जब इसी बूँद की तरह किसी अनिश्चित मंजिल की ओर पयान की चुनौती सामने आयी, इसी तरह की अनिश्चितता , संशय और भय के आशंका रूपी बादल मन के आकाश में घुमडने लगते थे, जैसे- स्कूल की पढाई के उपरान्त पहली बार माँ-बाप की छत्र-छाया से दूर दूसरे शहर में कालेज में दाखिला लेना, कालेज की पढाई पूरा करने के बाद नौकरी हेतु कम्पीटीसन-परीक्षाओं और उनके परिणाम की अनिश्चितता, नौकरी ज्वाइन करने के पश्चात नये स्थान व परिवेश की अनिश्चितता,नौकरी के दौरान हुए स्थानान्तरणों के कारण नये स्थान, नये बास, नये कार्य-परिवेश व बच्चों के नये स्कूल में दाखिले की अनिश्चितता ।
इन अनिश्चितताओं की स्थिति अक्सर मन में भारी डर व संशय लाती थीं, कल के प्रति मन में घबराहट पैदा करती थीं, और वर्तमान परिस्थिति व स्थान के प्रति रचित ‘कम्फर्ट जोन’ से बाहर निकलने से झुँझलाहट पैदा करती थीं । पर फिर नये स्थान पर कुछ दिन या महीनों में यह डर जाता रहता, और यह नया स्थान व परिवेश भी पुराने की तरह अपना हो जाता ।बच्चे भी इस नये परिवेश को पूरी सरगोसी से अपना लेते । पर इससे भी इतर , नये स्थान व परिवेश की सबसे अनूठी देन रही है : नये-नये व अलग-अलग कार्य-अनुभवों से साक्षात्कार व सीख, नये-नये कोलीग्स व मित्रों का संसर्ग व साहचर्य । सचमुच अद्भुत उपलब्धियों का कारण रही हैं ये जीवन की अनिश्चतताएँ भरी विभिन्न कारण-अकारण य़ात्राएँ ।
इसीलिये कविता का अंतिम पद मुझे अति प्रिय व प्रेरणाप्रद लगता है-
लोग यूँ ही हैं झिझकते सोचते,
जबकि उनको छोडना पडता है घर।
किन्तु घर का छोडना अक्सर उन्हें,
बूँद ल्यों कुछ और ही देता है कर ।।
सर आप ने गूढ़ रहस्य के साथ ,स्कूल के दिनों की पुराणी कविता याद दिला दी !धन्यवाद
ReplyDeletebahut badhiyan likha gaya hai. silsila banaye rakhen.
ReplyDeleteबादल सरकार की पंक्तियां हैं-
ReplyDeleteतीर्थ नहीं है केवल यात्रा, लक्ष्य नहीं है केवल पथ ही
इसी तीर्थ पथ पर है चलना, इष्ट यही गंतव्य यही है.
sahee me achchhee kavitaa hai yas....hamaare saath ssjhaa karne ke liye bahut dhanyawaad.
ReplyDeleteजीवन में संयोग रहा कि 10 वर्ष की अवस्था से ही घर बाहर रहना पड़ा। स्थान के मोह के कई ऐसे उदाहरण देखे हैं जिसमें प्रतिभाओं ने कम पर सन्तोष कर लिया। घूमने की ऐसी लत पड़ी कि सारा भारत अपनापन देने लगा है।
ReplyDelete@ प्रवीण पाण्डेय
ReplyDeleteऔर प्रवीणजी इसी घूमने की लत के बढते सिलसिले में कुछ समय उपरान्त यह सम्पूर्ण विश्व ही अपनापन देने लगेगा । इस हेतु मेरी शुभकामनाएँ । हाहाहा....
अनिश्चितताओं के बीच एक अनुभव का खजाना तथा चुनौतियों का सामना करने की क्षमता के विकाश का रास्ता छिपा होता है.....इसलिए कहा गया है जिन्दगी हर कदम एक नयी जंग है.......लेकिन इस जंग को मानवीय व्यवहार तथा नैतिकता के मापदंडों के साथ ही लड़ने की यथासंभव कोशिस करनी चाहिए........आज का असंतुलन की भयावहता से पीड़ित समाज में अनिश्चितताओं की भयावहता का बढ़ जाना इंसानियत के लिए खतरे की घंटी है....हमसब को मिलकर इस भयावहता को कम करने का प्रयास भी करना होगा....
ReplyDeleteकम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलना या यूँ कहें की किसी एक खास स्थान से दूर जाने में झिजक ना होना नई हिम्मत नई सोच भी देती है..... बहुत सुंदर ढंग से एक जीवन दर्शन सामने रखा है आपने .....
ReplyDeleteबचपन का अधिकतम वक्त जिस जगह बिताया गया हो , उसे भूलना मैं समझता हूँ शायद किसी के लिए भी इतना आसान नहीं होता, किन्तु यह सच है की एक दायरे में ही सदा सिमटे रह जाना भी समझदारी नहीं ! उस बूँद को आगे चलकर क्या पता नदी या समंदर मिल जाए ! अमिताभ बच्चन जी का किसी फ़िल्म एक डायलोग याद आ रहा है ; "जानी, इस दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं , एक वो जो उम्रभर एक ही काम करते है, और एक वो जो एक ही उम्र में सारे काम कर जाते है ! "
ReplyDeleteबहुत सुंदर ढंग से एक जीवन दर्शन सामने रखा है आपने .
ReplyDeleteयुवावस्था तक यायावरी जीवन जीना पड़ा..उस समय यह बड़ा कष्टदायी लगता था...पर अभी आपकी बातें पढ़ सहसा मन में आया कि उस समय कष्ट भले हुआ हो पर यह अनुभवों को समृद्ध अवश्य कर गया...बहुत कुछ सीखने को मिला हर नए माहौल में...
ReplyDeleteप्रवीण जी का आभार कि उन्होंने हमें आपतक पहुंचाया...
नियमित लेखन करते रहें...आप जैसे लोगों की यहाँ बहुत आवश्यकता है...
बह चली उस काल कुछ ऐसी हवा,
ReplyDeleteवह समुन्दर ओर आयी अनमनी।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला,
वह उसी में जा पडी मोती बनी ।।
बेहतरीन पंक्तियाँ..
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इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
ReplyDelete@G.N.Shaw धन्यवाद सॉ साहब,
ReplyDelete@संतोष पाण्डेय धन्यवाद पाण्डेय जी.
@राहुल सिंह , अति सुन्दर पंक्तियाँ भेजने हेतु धन्यवाद राहुल जी.
@Rajesh Kumar Nachiketa धन्यवाद राजेश जी
@honesty project democracy धन्यवाद जय झा जी
@डा0 मोनिका शर्मा, प्रोत्साहन हेतु हार्दिक धन्यवाद मोनिका जी.
@पी सी गोदियाल परचेत, धन्यवाद गोदियाल साहब
@अरुण चंद्र राय, धन्यवाद अरुण जी.
@आनंद पाण्डेय , धन्यवाद पाण्डेय जी । अवश्य ही मैं आपका संस्कृत ब्लॉग ज्वाइन करने, सीखने और उसमें योगदान करने हेतु अति उत्सुक हूँ ।
@सुशील बालकीवाल, इतने अच्छे सुझाव व मार्गदर्शन हेतु हार्दिक धन्यवाद सुशील जी । मैं अवश्य ही आपके द्वारा सुझाये ब्लाग का अनुसरण व उससे यथासंभव सीखने का प्रयाश करूँगा ।
@रंजना, प्रोत्साहन हेतु हार्दिक धन्यवाद रंजना जी ।
@ Zeal धन्यवाद मैडम ।
@संगीता पुरी, धन्यवाद संगीता जी।