दशानन!
थी अलौकिक शक्ति तेरी और तेरा ज्ञान,
अहंकार,क्रोध और मद से चूर किंतु,
तुम करते रहे अपकृत्य कितने,
तेरे कल्याण की भी जो बात कहते थे शुभेच्छु,
तुम भला सुनते कहाँ थे?
निर्विकल्प होकर ही,
श्रीराम तेरा वध किये थे।
वरना तो, दशानन! तुम्हे
जीवनदान के दश अवसर मिले थे।
तेरा दहन उस त्रेतायुगी श्रीराम ने तो कर दिया,
किंतु क्या तुम हो कभी सचमुच मिट सके?
नहीं क्या दो युगों के बाद भी
जीवित अंश तेरा अंदर हम सभी के?
कभी तुम दम्भ के अतिकार से,
कभी तो क्रोध के प्रतिकार से,
मनुजता रो रही है आज भी,तेरे
निरंतर दुसह अत्याचार से।
किन किन रूप में हो तुम
वर्तमान होकर अंतर्मन में हमारे-
सोच में,संस्कार में,अपकृत्य में,
पाखंड में,अत्याचार में,
अपहरण में भ्रष्टाचार में,
कितने कहूँ? तुम अनगिनत विद्रूप में अवस्थित अंदर हो हमारे।
कहते तो हैं कि श्रीराम ने
तेरे नाभि अमृत को सुखाकर,
तेरा बध किये थे,
किंतु हो न हो,
अपने दुराचरण के कुछ अंशबीज,
तुमने मन में भी छुपाकर रखे थे।
जो आज भी हैं पनपते,
अवसर जब मिला उगते,
हमारी सोच में,मनभूमि में,
कल जो उन्हे तुम
छुपाकर बो गये थे।
निर्विकल्प होकर ही,
श्रीराम तेरा वध किये थे।
वरना तो दशानन! तुम्हे
जीवनदान के दश अवसर मिले थे।।
हर अवसर को व्यर्थ किया क्यों,
ReplyDeleteइतना बड़ा अनर्थ किया क्यों?
बहुत खूबसूरत रचना |
ReplyDeletesundar rachna--aabhaar !
ReplyDeleteप्रवीण जी,मीनाक्षी जी एवं दिव्या जी आपका हार्दिक आभार।
ReplyDeleteकिंतु हो न हो,
ReplyDeleteअपने दुराचरण के कुछ अंशबीज,
तुमने मन में भी छुपाकर रखे थे।
जो आज भी हैं पनपते,
अवसर जब मिला उगते,
हमारी सोच में,मनभूमि में,
कल जो उन्हे तुम
छुपाकर बो गये थे।
शायद ऐसा ही हुआ होगा. बहुत सुंदर प्रस्तुति.