वैसे
भाषा अपने आप में कोई साध्य नहीं होती,बल्कि वह साधन मात्र है, परंतु इस तथ्य
पर कोई दो मत नहीं हो सकता कि यह साधन के रूप में उतनी ही महत्वपूर्ण व अपरिहार्य
है जितना चलने हेतु पैर,बोलने हेतु मुख या श्वास हेतु
नाशिका,इत्यादि।तात्पर्य यह कि ज्ञान व संवाद की प्रक्रिया
की सम्पन्नता
बिना भाषा के माध्यम के असंभव है।
वैसे
नवजात शिशु व उसकी माता के बीच संवाद सांकेतिक व भावनात्मक स्तर पर आजन्म शुरू हो
जाता है,फिर भी कह सकते हैं कि नवजात शिशु का रोना,हँसना
जैसे शाब्दिक संकेत भी एकतरह से उसके द्वारा संवाद हेतु अपनी तरह की एक भाषा ही
हैं।
हालाँकि
शिशु को स्पष्ट शब्द उच्चारण और
औपचारिक भाषा के उपयोग में लाने की
क्षमता प्राप्त कर पाने में एक से दो वर्ष लग जाते हैं, किंतु
उसका अपनी मातृभाषा का शब्दावली ज्ञान जन्म के कुछ दिन बाद से ही तेजी से विकसित
होने लगता है। मेडिकल साईंस के अनुसार तो बालक दो वर्ष की आयु तक ही अपने जीवन भर
में सीखी गयी शब्दावली के आधे शब्द सीख चुका होता है।
इसलिये
किसी भी व्यक्ति हेतु उसकी मातृभाषा उसके लिये एक नैसर्गिक प्रतिभा की तरह होती
है,जिसके माध्यम व शक्ति से वह अपने जीवन में शिक्षा-दिक्षा व कार्यव्यवहार में
अति सहजता अनुभव करता है ।प्रबंधन की भाषा में इसे अतिलाभ ( Leveraging) की स्थिति कहते हैं।
भारत
व इसके जैसे तृतीयसंसार के अन्य देशों में जहाँ शिक्षा,विशेषकर उच्चशिक्षा व
तकनीकि शिक्षा, की माध्यम भाषा उनकी अपनी मातृभाषा न होकर अंग्रेजी अथवा कोई अन्य
विदेशी भाषा होती है , हेतु यह स्वाभाविक ही है कि इन देशों के छात्रों व युवाओं की
ज्ञानार्जन व सीखने व नयी दिशा में सोचने
व करने की नैसर्गिक क्षमता का पूरा
उपयोग नहीं हो पाता और यह जाया चली जाती है । इसलिये
उनका शिक्षा-दिक्षा द्वारा अर्जित ज्ञान व विवेक भी दोयम दर्जे का ही होता है। इन
कारणों से उनके अंदर नवीन
विधाओं,वैज्ञानिक या तकनीकि या अन्य क्षेत्र, के बारे में मौलिकतापूर्णसोचने,नवीन आविष्कारों को अर्जित करने की स्वाभाविक क्षमता कुंद हो जाती है और ये
देश नव तकनीकी आविष्कारों,अनुसंधानों व नवाचारों के क्षेत्र
में अति पिछड़े व आत्मनिर्भरता से रहित होते हैं।
हमारे
देश जैसे अनेकों देश इस विकलांगता के जीवंत उदाहरण हैं। हम ध्यान से देखें तो
पायेंगे कि विश्व में तकनीकि दक्षता व नवआविष्कारों में विश्व के अग्रणी व विकसित देश अपना सारा शिक्षाव्यवहार,विशेषकर उच्चशिक्षा, अपनी मातृभाषा में ही प्रदान
करते हैं।उदाहरण के तौर पर फ्रांस,जर्मनी,स्पेन,जापान,चीन,रूस इत्यादि
देश जो आज तकनीकि
दृष्टि से विश्व में अपना उत्कृष्ट स्थान रखते हैं व अग्रगण्य देश हैं, वे अपनी शिक्षा-दिक्षा व अपना
सारा
व्यावहारिक कार्य अपनी मातृभाषा में ही करते हैं,न कि विश्वमत में ज्यादा महत्व
रखने वाली विदेशी भाषा अंग्रेजी में।
हमारा
देश जो आज मानवसंसाधन की उपलब्धता में विश्व में उत्कृष्ट स्थान रखता है, पर दुर्भाग्य से इस उपलब्ध संसाधन की नैसर्गिक प्रतिभा के समुचित विकास न
हो सकने,व उनकी शिक्षादिक्षा की उपलब्धता दोयम दर्जे की होने
के कारण इस अति महत्वपूर्ण संसाधन की अधिकांश अंतर्निहित क्षमता निरर्थक क्षय हो
जाती है,जो कि मात्र व्यक्तिगत क्षति नहीं बल्कि एक
राष्ट्रीय क्षति है।
हालाँकि विगत दो दसको में आईटी व बीपीओ कंपनियों द्वारा
निर्यातोन्मुखी व्यवसायिक सफलता व उनके द्वारा भारतीय आर्थिक विकाश कि उच्च विकास
दर में महत्वपूर्ण भूमिका , ने भारत में उच्चशिक्षा की पढ़ाई अंग्रेजी भाषा के
माध्यम से होने के सकारात्मक पक्ष व इसे अंतर्राष्ट्रीय उद्योगजगत में भारत के लिये
विशेष लाभ की स्थिति में देखा जा रहा है, किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि बीपीओ जैसे सेवा उद्योग दोयम दर्जे के ही होते हैं,यह
एक प्रकार की कुलीगिरी अथवा चतुर्थ श्रेणी का ही कार्य है ।
यदि भारत को अंतर्राष्ट्रीय उद्योगजगत व आर्थिक
जगत में दिर्घकालीन सम्मान व मजबूत स्थिति प्राप्त करनी है तो इसे मौलिक वैज्ञानिक
व तकनीकि अनुसंधान व विकास सहित निर्माण उद्योग क्षेत्रों में भी अपनी उत्कृष्ट
पहचान बनानी होगी । इस हेतु हमें अपने मानवसंसाधन की नैसर्गिक प्रतिभा को उचित व
उत्कृष्ट श्रेणी की शिक्षा-दिक्षा द्वारा निखारना व सँवारना अपरिहार्य होगा।
निश्चय ही निजभाषा के माध्यम से यह कार्य अति सहजता,सुगमता व अतिलाभपूर्ण ( leveraged) रूप से किया जा सकता है।
इस
संदर्भ में भारतेंदु हरिश्चंद जी की यह पंक्तियाँ कितनी
सार्थक व सटीक बैठती हैं कि-
निज भाषा उन्नति अहै, सब
उन्नति को मूल।
बेहतरीन...........
ReplyDeleteमगर इस हिंगलिश से पीछा कैसे छूटे...अपनी भाषा तो कहीं दब गयी है इस ढेर के नीचे...
सार्थक लेखन.
अनु
टिप्पड़ी हेतु आभार अनु ।
Deleteबेहतरीन आलेख सुंदर ,,,,, ,
ReplyDeleteMY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: ब्याह रचाने के लिये,,,,,
टिप्पड़ी हेतु आभार ।
Deleteनिज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
ReplyDeleteबिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।
उक्त पंक्तियां, जहां तक मेरी जानकारी है, भारतेन्दु जी की है और गुप्त जी शायद एकमात्र (इसलिए पहले कहने का औचित्य नहीं) राष्ट्रकवि उपाधिधारी हैं.
राहुल जी , जानकारी हेतु आभार , लेख में हुई त्रुटि हेतु पाठकों से क्षमाप्रार्थना । जहाँ तक राष्ट्रकवि की बात है मेरी जानकारी में दिनकर जी शायद हमारे दूसरे राष्ट्रकवि थे, अन्य की मुझे जानकारी नहीं है।
Deleteउन्नति का सारा सार वहीं छिपा है।
ReplyDeleteजी, सत्य वचन।
Deleteयद्यपि दुसरे भाषा में पढकर भी उन्नति करने में हम पीछे नहीं है, न ही अपने ज्ञान का लोहा देश विदेश में मनवाने में, परन्तु यदि यही शिक्षा की सुविधा मातृभाषा में मिले तो यह संख्या कितनी अधिक होगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है.
ReplyDeleteजी रचना जी ।
Delete