बहुत प्रचलित कहावत है- किसी ने कहा कौआ कान ले गया और लगे कौआ के पीछे भागने,एक बार अपना कान भी तो खुद जाँच लिये होते ।धारणायें इसी स्वभाव की होती हैं, इन धारणाओं को लेकर हम जीवन भर कौए के पीछे भागते रहते हैं, एक बार भी सत्य व वस्तु-स्थिति की स्वयं जाँच भी नहीं करते।
सत्य से प्राय: परे व धारणाओं पर आधारित जीवन-यात्रा के कारण हमें अनगिनत मतभेदों,मनमुटाओं,प्रतिक्रियाओं व असहमतियों से गुजरना पड़ता है।यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस संसार में जनमानस के बीच व्याप्त अनगिनत झगड़ों,फसादों,संघर्षों व लड़ाइयों के मूल में प्राय: विभिन्न मनुष्यों , समुदायों की विभिन्न स्वस्थापित धारणायें ही हैं।
हम इन धारणाओं को अपने जीवन में विभिन्न संदर्भों में अपनाते हैं- धर्म आधारित धारणायें,आर्थिक- परिस्थितिजन्य धारणायें,सामाजिक-ऊँच-नीच,जात-पात से संबंधित धारणायें इत्यादि।
इन संदर्भों व संस्थागत आधार पर अपनायी हुई ये धारणायें इतनी बलवती व जड़वान होती हैं कि उनसे बाहर निकलना तो दूर इन धारणाओं पर कोई भी तथ्यपूर्ण तर्क-वितर्क अथवा परिचर्चा भी इन धारणाओं के आधारभूत व पोषक संस्थाओं को अस्वीकार्य होता है व वे इन तर्कों व परिचर्चाओं के दमन हेतु किसी भी तरह के आक्रमण व हिंसा को अपना सकते हैं।पिछले कई सदियों के इतिहास का यदि हम अध्ययन करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इन धारणाओं व अहं के आग्रह व बचाव हेतु व इनके विरोधियों के दमन हेतु विश्व में कितने ही नरसंहार व नृशंस खून-खराबे हुये हैं ।
धारणायें
प्रायः सत्य से नितांत परे होती हैं। सत्य बहुआयामी होता है परंतु धारणायें एकआयामी।
सत्य उदार होता है किंतु धारणायें आग्रही।
सत्य समय की गतिशीलता व समष्टि के बहुआयामी स्वरूप का पूरकस्वरूप निरंतर निरूपित व नवपरिभाषित होता रहता है किंतु धारणायें मन के अहंकार में उपजती व भावना व उद्वेग से पोषित एकनिष्ठ,जड़ व हठवादितापूर्ण होती हैं।
सत्य रूपी सूर्यप्रकाश को जब धारणा रूपी बादल ढक लेते हैं तो प्राय: हम सत्य का आभाष व अनुभव भी नहीं कर पाते व प्रकाश की अनुपस्थिति को ही भ्रमवश सत्य समझने लगते हैं।यहाँ तक कि यदि कोई सत्य की ओर ध्यान इंगित भी कराना चहता है तो उसे द्रोह - धर्मद्रोह,समाजद्रोह, राज्यद्रोह, या देशद्रोह की संज्ञा दी जाती है और इसे जघन्य व अक्षम्य अपराध समझा जाता है।
इतिहास साक्षी है कि सत्य कहने वाले अनेकों महापुरुषों को कठोर मृत्युदंड अथवा निश्रंस हत्या का भागी बनना पड़ा क्योंकि उनके विचार व कश्रन कुछ वर्गों के स्थापित व्यवस्था व धारणाओं के सर्वथा विपरीत थीं।जीसस क्राइस्ट,सुकरात,अब्राहम लिंकन,मार्टिन लूदर किंग,महात्मा गाँधी और न जाने कितने जाने-अनजाने नाम इसके जीवंत उदाहरण हैं।
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि प्राय: हमारी जो धारणा होती है वैसा ही हम देख पाते हैं और स्वाभाविक रूप से तदनुरूप ही हमारी प्रतिक्रिया व आचरण भी होता हैं।एक तरह से हमारी धारणायें हमारे स्वभाव में निरूपित हो जाती हैं व इनकी परिसीमा हमारा सहज-क्षेत्र (Comfort
Zone) बन जाती है,जिनसे बाहर निकलना दुष्कर व कष्टदायी प्रतीत होता है। यही कारण है कि हम अपनी धारणाओं पर हुये किसी भी प्रहार को सहन नहीं कर पाते और उनका दमन करने हेतु किसी भी हद तक करते हैं।
किंतु सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि जैसे सूर्यप्रकाश के आगमन होते ही घनघोर से घनघोर अंधकार भी तत्क्षण विनष्ट हो जाता है ,इसी प्रकार सत्य के अनुभव मात्र से ही हमारे जन्मजन्मांतरों की पोषित धारणायें एक क्षण में ही ध्वस्त हो जाती हैं। रत्नाकर (महर्षि बाल्मीकि) से लेकर अंगुलिमाल तक ऐसे अनेक जीवंत उदाहरण हैं जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। हमारे स्वयं के जीवन के कई अनुभव,प्राय: विषमतापूर्ण अनुभव, हमें सत्य का साक्षात्कार कराते हैं, व इनसे हमारी आजन्म पोषित मन की विभिन्न धारणायें ध्वस्त होती रहती हैं , जिनके कारण हमारा अपने जीवन के प्रति दृष्टिकोण निरंतर परिवर्तित व नवपरिभाषित होता रहता है।कमोवेश स्वयं प्रकृति भी इस नैसर्गिक प्रक्रिया का पालन करते हुये निरंतर परिवर्तित व नवीनीकृत होती रहती है।
इस तरह जो सत्य है, वही मात्र धारणारहित है और अक्ष्क्षुण है।इसलिये कह
सकते हैं कि महात्मा गाँधी का यह कथन परमसत्य की एक कसौटी है कि “केवल सत्य के अनुपालन से ही विश्व में अहिंसा व शांति की स्थापना संभव है।“
Satyameva Jayate...
ReplyDeleteसत्य वचन......................
ReplyDeleteअच्छा आलेख.....
सादर
अनु
देवेन्द्र आप बहुत अच्छे विचाराें के धनी हैं । जब अपने विचाराें काे समाज से share करतें हैं ताे निश्चित रूप से जीवन की जटिलताओं काे समझने व सुलझाने में मदद मिलती है।
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