आज प्रात: जब सोकर उठा,मन में अकस्मात यह चिंतन जागृत हुआ कि आखिर हमें क्रोध,कभी छोटी बात पर या कभी बड़ी बात पर,आता क्यों है?
फिर अगला प्रश्न मन में घुमड़ने लगता है कि क्या क्रोध करने से इसके कारक संतुष्ट होते हैं और फलस्वरूप क्रोध का शमन हो पाता है।विचार की नयी परतें चौंकाने वाला रहस्य सामने लाती हैं कि नहीं कदापि नहीं, क्रोध करने से उसका कारक- यानि मन का अहंभाव या असुरक्षा भाव या ईर्ष्याभाव संतुष्ट और शमन होने के विपरीत और बढ़ते है,बढ़ते ही जाते हैं, ठीक उसी तरह जिसतरह कि अग्नि में घी की आहुति देने से अग्नि और प्रज्वलित होती है।यानि मन में क्रोध का एक दुष्चक्र सक्रिय हो जाता है,और यही कारण है कि एक लघु क्रोध अंतत: एक अतिसय क्रोधाग्नि की ज्वाला में परिणित होकर प्रलयंकारी सिद्ध हो सकता है।
चिंतन के इस गंभीर
तल पर मन के सारे उहापोह समाप्त हो जाते हैं, परंतु मन में फिर भी एक सुखद तृष्णा
जागृत होती है कि आखिर वह क्या है जिससे हमे सुख-शांति की तृप्ति प्राप्त हो सकती
है,तो अचानक एक अंतर्संकेत प्राप्त होता है कि वह है क्रोध के विपरीत मन में स्थित
कृतार्थ-भाव । जो प्राप्त है उसके प्रति अहंभाव रखने के बजाय यदि दाता के प्रति
कृतार्थ-भाव उत्पन्न हो जाय, तो अद्भुत सुख व शांति प्रस्फुटित होती है।मन में इस
प्रकार का कृतार्थ-भाव होने से सभी प्रकार के अहंभाव, असुरक्षा भाव व ईर्ष्या भाव स्वाभाविक रूप से स्वतः दूर हो जाते हैं।
मन में निवास करने वाले विचारों की विभिन्न परतें,जो सामान्यरूप में तो परदे के पीछे छिपे सारथी के रूप में मन के रथ को संचालित करती रहती हैं व तदनुरूप हमारा आचरण व व्यवहार होता है,चिंतन द्वारा एक-एक कर परदे के बाहर आने व दिखाई देने लगती हैं।क्रोध के जनक कारण एक एक परतों में खुलकर सामने आने लगे।
प्रथम कारण तो यही सामने आया कि जब कुछ मन की हसरतें व उसकी अपेक्षा के प्रतिकूल होता है तब क्रोध आता है।फिर अगला प्रश्न उठा- क्या हैं वे मन की हसरतें व अपेक्षायें, जो कि तनिक भी प्रतिकूल परिस्थिति पाकर क्रोध उत्पन्न करती हैं
? पुन: विचारों की नयी परतें खुलने लगती हैं- मन की आकांक्षाएँ,अपेक्षाएँ हैं मन की असंतुष्टियाँ व अधूरेपन जिनको पूरा करने व कुछ पाने की लालसा व आकांछा,जो अपने पास पहले है अथवा सौभाग्यवश जीवन में उपलब्ध है, इसके लिये मन के अंदर संचित अहंभाव-कभी दूसरों से श्रेष्ठ-जन्म की श्रेष्ठता,कर्म की श्रेष्ठता,धन की श्रेष्ठता,धर्म की श्रेष्ठता, ज्ञान की श्रेष्ठता, शारीरिक श्रेष्ठता, होने का अहंभाव,कभी स्वामित्व व अधिकार का अहंभाव, अनेकादि परतों में मन में संचित अहंभाव।
दूसरा कारक है मन में संचित असुरक्षा का भाव- प्राप्य में बाधा की असुरक्षा,प्राप्त के खोने की असुरक्षा, इत्यादि अनेकानेक असुरक्षाभाव,और तीसरा कारक है मन में संचित ईर्ष्या का भाव ।इस तरह हमारे अंदर क्रोध के जनक प्रधान कारक जो मन में संचित हैं- अहंभाव,असुरक्षाभाव व ईर्ष्याभाव स्पष्ट दिखने लगते हैं।
क्रोधाग्नि |
इस चिंतन से यह बात
तो मन में स्पष्ट हो जाती है जिन कारणों की तुष्टि के लिये क्रोध किया, वे संतुष्ट
व शमन होने के विपरीत और भड़क उठे,यानि क्रोध करने से कोई प्रयोजन सिद्ध होने के
विपरीत बात और बिगड़ गयी।यह तो स्वयं के उपहास की स्थिति हो गयी कि जहाँ प्यास
बुझाने के लिये कुआँ खोदा और खुद ही उस अंधकूप में गिरकर प्राण संकट में डाल
दिये।क्रोध न सिर्फ निष्प्रयोजन है बल्कि स्वयं के लिये ही अनर्थकारी है।
कृतार्थभाव |
जब क्रोध के जनक सभी
कारक ही नष्ट हो गये तो फिर मन में क्रोध के जन्म की संभावना ही कहाँ रह जाती
है।इसप्रकार क्रोध भाव से कृतार्थभाव की विचार-यात्रा से मन को एक विलक्षण व
अद्भुत शांति व स्फूर्ति मिलती अनुभव हुई।
तब तक मोबाइल की
घंटी बजती है व मन का यह चिंतन-क्रम सायास भंग हो जाता है।एकाएक मन चौंक उठता है,
यह जागृत अवस्था का चिंतन था अथवा स्वप्नावस्था का ।क्या क्रोध से कृतार्थभाव की
यह यात्रा इतनी सहज है। क्या मनुष्य के जीवन-अवधि में मन के कोटर में संचित विचार
व स्वभाव, जो क्रोध के कारकों का निरंतर पोषण करते आ रहे हैं, उनसे यूँ ही चुटकी में
छुटकारा मिल जायेगा, व हम किसी मुक्त विहग की तरह सदैव के लिये मन के सुख-शांति के
असीम गगन में स्वच्छंद विचरण करने की स्वंत्रता प्राप्त कर लेंगे।
इस तरह मन फिर से
उसी पुराने उहा-पोह में फिर से उलझने लगा।मन के कोने में कुंडली मारे पुराने घाघ-
अहं,असुरक्षा व ईर्ष्या के भाव आपस में कानाफूसी करते व सारे इस चिंतन क्रम का
उपहास उड़ाते कटाक्ष करते प्रतीत हुये कि उतरो तो असली मैदान में, फिर हम बताते व नापते हैं तुम्हारे इस चिंतन क्रम की गहराई व सामर्थ्य को । बंधु ! यह क्रोध से कृतार्थभाव की
चिंतन-यात्रा भले ही बड़ी सार्थक अनुभव प्रतीत हो रही है, किंतु इस पर
अमल करना है अति दुरूह ।
इस प्रतिवाद विचार से मन की दुष्चिंता
थोड़ी अवश्य बढ़ गयी, किंतु इस चिंतन क्रम से मन के अंदर ही अदर एक नया
आत्मविश्वास , नयी शक्ति व नयी रोशनी भी जागृत होती प्रतीत हो रही है। मन कहता
है-भले ही यह रास्ता दुरूह हो, किंतु इस शुभ यात्रा का प्रारंभ करने में हर्ज भी
क्या है।
क्रोध न सिर्फ निष्प्रयोजन है बल्कि स्वयं के लिये ही अनर्थकारी है।
ReplyDeleteसच है कृतार्थ भाव ही बचा सकता है .....
सच में क्रोध करने से जीवन सुधर गया होता तो कब के सुधर गये होते हम..
ReplyDeleteक्रोध स्वम के लिए अनर्थकारी है,,,,,
ReplyDeleteसुंदर सार्थक आलेख ,,,,,
MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: बहुत बहुत आभार ,,