अब तक जीवन मृगतृष्णा ही ! |
मन की अभिलाषायें हैं अनगिनत,
कुछ कामजनित,कुछ क्रोधजनित,
कुछ लोभजनित,कुछ मोहजनित,
रक्तबीज सी,हो रहीं निरंतर जनित।
भागता रहा हूँ इनके पीछे , अनवरत
बहुकाल से प्यासित विकल मृग सा,
पीता हूँ जो कुछ घूँट इनकी,
कर कर्म कितने निकृष्ट और उच्चिष्ठ,
इस लालसा में ,
कि बुझ सके यह प्यास मन की,
शांत हो ज्वाला तन और मन की।
किंतु यह क्या!
कौन सी यह प्यास है! कौन सी है यह अगन!
जो हो रही है प्रज्वलित और है बढ़ती इसकी लपट,
जितना मैं इसे शांत करना चाहता हूँ।
मानों कर्म मेरे दे रहे हैं आहुति घृत सदृश।
है हो रही अनुभूति अब ,
कि हैं रहे मेरे सब कर्म निरर्थक,
घटती क्या,
बस बढ़ती रही मन प्यास अब तक ।
मेरे इस भटकते मन की अभिलाषाओं के इतर
कुछ और ही है,श्रोत शीतल आनंद का जल,
जिससे शांत हो सकती,ज्वाला तन और मन की,
जिससे तृप्त हो सकती प्यास जन्मों-जन्मांतरों की।
महायज्ञ जग, हम आहुति से,
ReplyDeleteआशाओं में पल पल स्वाहा,
समय शेष कुछ, श्रम भी थोड़ा,
फल पाये या निष्फल स्वाहा।
जिससे शांत हो सकती,ज्वाला तन और मन की,
ReplyDeleteजिससे तृप्त हो सकती प्यास जन्मों-जन्मांतरों की।
मन की अभिलाषायें रक्तबीज सी निरंतर जनित होती रहती है,,,,,
RECENT POST : समय की पुकार है,
अद्भुत ..... जाने कैसी है मृगतृष्णा है जो जीवन भर हमें यूँ गुम रखती है
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