तेरी यादों की आकुलता से,
मन में कोलाहल उठता है।
लौटा दो मेरी मन-नीरवता,
फिर से मुझे अपरिचित करके।
चिंतन में कविता जो कहते,
स्वप्न गीत बन कर जगता है।
लौटा दो वापस मेरी चेतना,
मुझको निद्रा से जागृत करके।
शीतल बूँदो का लेपन लगता है।
हर लो मेरी पूर्ण वेदना,
दे मधुर स्पर्श स्व-कर-कमलों से।
प्रातः स्वर्ण कलश सजता है।
मेरी तृष्णा दूर करो तुम,
स्वर्ण-करों के आमंत्रण से।
ढलता रवि आलिंगन करता है।
तारित सिक्त हृदय को कर दो,
नयन बलों के आलंबन से।
उर-मन विकल हो उठता है।
स्थित प्रज्ञ मुझे तुम कर दो,
मधुर गीत के योग बलों से।
I have no words...absolute classic....Regards
ReplyDeleteभाव-दृश्यों का बढि़या समन्वय.
ReplyDeleteमित्रों प्रोत्साहन हेतु आपका हार्दिक आभार।
ReplyDeleteतुम जो दृश्य-दूर हो जाते,
ReplyDeleteउर-मन विकल हो उठता है।
स्थित प्रज्ञ मुझे तुम कर दो,
मधुर गीत के योग बलों से।
क्या बात है देवेन्द्र जी,शानदार दार्शनिक प्रस्तुति.आपके कवि हृदय का
सुन्दर परिचय मिला इस अनुपम रचना से.आभार.
मेरे ब्लॉग पर आपको रामजन्म पर बुलावा है.जरूर आइयेगा.
राकेश जी , हृदय से आपका आभार प्रकट करता हूँ । अपने ब्लॉग पर आमंत्रण हेतु आभार। अवश्य ही आपकी सुन्दर रचना पढ मेरा ज्ञानबर्धन होगा।
ReplyDeleteआप के गीतों में योग बल है, बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteमधुरता,कोमलता तथा निरमलता में अद्भूत आनंद है जिससे कैसी भी बेदना को दूर किया जा सकता है...लेकिन आज मानवीय व्यवहार से इन चोजों की मात्रा लगातार घटता जाना चिंता का विषय है....शानदार भावनात्मक अभिव्यक्ति के लिए आभार...
ReplyDeleteप्रवीण जी व जयकुमार झा जी का उनके प्रोत्साहन पूर्ण प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार।
ReplyDeleteawesome, wnderful. I m sorry dat I can not type in hindi. anyway. I was a bit unlucky dat I missed to enjoy such a fabulous person when we were in d college. anyway keep it up
ReplyDeleteThanks Ajju. U dont need to feel sorry, whatever u missed u can compensate it here, here. Thanks again for so nice words. Ragards- Devendra
ReplyDeleteगीत भाव और प्रस्तुति में अच्छा है,पर समझने के लिए पेशानी पर बल देना पड़ता है...बस मेरे लिए आप यही कर दो !
ReplyDeleteबडी रोचक टिप्पडी के लिए हार्दिक आभार। चलिए हम दोनों के बीच संवाद शुरू हुआ है, तो सहृदयता के साथ समझने का भी सप्रेम प्रयाश भी होगा। सादर।
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