Saturday, April 30, 2011

.......मन छाया उजियारा।


विमुख हुए तुम,जग सूना है,
सन्मुख तो सब-कुछ है प्यारा।
मिले जो तेरी प्रेम-दृष्टि तब, 
उलसित मन छाया उजियारा।
 
 
 
तुम हिमश्रोत सरित उद्गम मैं
तुम प्रवाह मैं जल की धारा।
बनकर श्रोणित हृदयशिरा में,
बहते बन  जीवन की धारा।
 
तुम नीरद प्यासी मैं धरती,
तुम सूरज मैं घुप अँधियारा।
तुम ही मेरे सुखक्षण बनते,
होता जब भी  मनदुखियारा।
 
 
 
तुम बरखा मैं गिरती बूँदें,
शीतल तुम मैं निर्झरधारा।
जीवन देह शक्ति तुम मेरे,
प्राण तुम्ही अस्तित्व हमारा।
 
भाव हो तुम जो शब्द बनूँ मैं,
साज तुम्ही जो वाद्य हमारा।
लय तुम ही जो सुर मैं साधूँ,
गीत तुम्ही संगीत हमारा।
 
 
 
तुम प्रकाश मैं नयनदीप हूँ,
दृष्टि- सिद्धि  नयन का तारा ।
मै कृति रचनाकार तुम्ही हो,
तुम यौवन सौन्दर्य हमारा।
 

6 comments:

  1. सुंदर और मोहक अन्‍योन्‍याश्रय.

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  2. धन्यवाद राहुल जी।

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  3. एक दूसरे पर कितना निर्भर है जीवन।

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  4. प्रवीन पाण्डेय साहब के बात से सहमत ये जीवन एक दुसरे पे निर्भर है..लेकिन कुछ लोग यह बात समझना नहीं चाहते आज...ब्लोगिंग के जरिये ये बात समझाई और फैलाई जा सकती है....आपकी लेखन उसी और प्रेरित करती हुयी है..

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  5. आपकी कविताओं को पढ़ने का सुख ही अलग है।
    बिल्‍कुल अपठनीय और गद्यमय होते जा रहे काव्‍य परिदृश्‍य पर आपकी यह कविता इसलिए भी महत्‍वपूर्ण है कि वे कविता की मूलभूत विशेषताओं को प्रयोग के नाम पर छोड़ नहीं देते। इस कविता में उपस्थित लयात्‍मकता इसे दीर्घ जीवन प्रदान करती है।

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  6. सुगढ़ काव्य सौष्ठव और प्रगाढ़ अनुभूति युक्त कविता कविता पढ़कर मन प्रफुल्लित हुआ .

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