Tuesday, April 26, 2011

जीवन बना अग्निपथ यात्रा....


जीवन बना अग्निपथ यात्रा,
बीच भँवर की धारा।
प्रियतम तेरे प्रेमभाव से,
मन को मिले किनारा।



तेज दुपहरी तपते रस्ते,
सूर्य अग्नि की धारा।
आँचल उड़ता प्रिये तुम्हारा,
शीतल छाँव सहारा।

कंठ सूखते हलक हैं प्यासे,
जीवन तिक्त बूँद जलधारा।
प्रियतम तुम मेरी मनगंगा,
बहती अमृतधारा।



तपते प्रस्तर, कंटक बिखरे,
पाँव छत-विछत सारा।
तेरी प्रेमदृष्टि का लेपन,
हरे वेदना सारा।

मन घायल, आत्मा विदीर्णित,
लोहित हुआ हृदय दुश्वारा।
तुम बन जाती प्रेम शिराएँ,
मन क्लेष हरो तुम सारा।


7 comments:

  1. घुमड़ घुमड़ भावों की झड़ी लगा दी है आपने
    लगता है बरसात आनेवाली है.
    आपकी अनुपम कृति गर्मी की उष्णता को कम करती लगती है.यूँ लगता है घावों पर मरहम लगा रही हो.

    "मन घायल, आत्मा विदीर्णित,
    लोहित हुआ हृदय दुश्वारा।
    तुम बन जाती प्रेम शिराएँ,
    मन क्लेष हरो तुम सारा।"

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  2. सुंदर भावपूर्ण पंक्तियां. ऐसी परिनिष्‍ठ भाषा के साथ 'छत-विछत' (क्षत-विक्षत) अखर जाता है.

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  3. जीवन बना अग्निपथ यात्रा,
    बीच भँवर की धारा।
    प्रियतम तेरे प्रेमभाव से,
    मन को मिले किनारा।

    सुंदर गीत से आज दिन कि शुरुआत. आज तापमान कम ही रहने कि उम्मीद है.

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  4. तपते प्रस्तर, कंटक बिखरे,
    पाँव छत-विछत सारा।
    तेरी प्रेमदृष्टि का लेपन,
    हरे वेदना सारा।
    मानवीय संवेदना की आंच में सिंधी हुई ये कविता हमें मानवीय रिश्ते की गर्माहट प्रदान करती है।

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  5. राकेश जी,राहुल जी,रचना जी एवं मनोज जी,भावपूर्ण व मार्गदर्शन देती टिप्पडी हेतु आभार।

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  6. जीवन बना अग्निपथ यात्रा,
    बीच भँवर की धारा।
    प्रियतम तेरे प्रेमभाव से,
    मन को मिले किनारा।
    बिलकुल सही कहा आपने अग्निपथ यात्रा में प्रियतम (पत्नी)का साथ ना हो तो आप एक कदम नहीं चल सकते...ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है...वैसे मिश्रा साहब आजकल आप बरी गूढ़ कविता लिख रहे हैं...शानदार...

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  7. यही निष्कर्ष हैं आपकी दैनिक यात्रा के। समय का सदुपयोग हो रहा है।

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