Wednesday, November 23, 2011

यादों की कुछ मुरझाई पंखुड़ियाँ.........


कोलाहल सा मन में क्यों मेरे रहता है।
सूखी रेतों में अंधड़ सा घिरता फिरता है।
मैंने कब दिया हृदय को अपने यह उत्पीड़न,
जिसकी पीड़ा को यह हरपल सहता है।1

नियमसमय से प्रात सबेरे आकर रहता है,
शाम खिड़कियों के रस्ते  मौन खिसक  लेता है।
विदा-इजाजत माँगे भी तो वह किससे,क्यों करके
वक्त भला क्या कभी कही पर भी रुकता है?2

मौन अधर बस पलक इशारे से ही कहता है।
मना किया पर बरबस ही आँखों से बहता है।
लाख नसीहत देता मैं महफिल से परे रह,
पर आने वाला तो आकर ही रहता है।3

जान गया मैं उनके दिल में पत्थर रहता है।
उनकी आँखों का तेवर ही सबकुछ कहता है।
मैंने समझा  घुलामिला रिश्ता है रक्त-लहू का,
उन्हे लगा कि मेरी शिराओं में बस पानी बहता है।4

उनसे मिलने की बेताबी से मन रौनक रहता है।
हँसता है, इतराता है, गुनगुन कर गाता है।
दिखती मुस्कानों में  मेरी है खैर खुशी खुशहाली
पर दर्द तो अक्सर सीने के अंदर रहता है।5

जो कब के भूले उनको भी अपना कहता है।
सुबह सबेरे दिन तारीख गिना करता है।
मन पगला है आशमयी, सदरी के अस्तर  में
यादों की कुछ मुरझाई पंखुड़ियाँ छुपा रखता है।6

2 comments:

  1. समय नहीं रुक पाता है,
    अपने संग बुलाता है।

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  2. मन पगला है आशमयी, सदरी के अस्तर में
    यादों की कुछ मुरझाई पंखुड़ियाँ छुपा रखता है।
    बहुत सुन्दर... यादों की पंखुरियां...

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