Wednesday, November 30, 2011

......यह पिस रहा वर्तमान क्यों है ?


जूझता संघर्ष से यह,
नियति के प्रतिकर्ष से भी,
हो रहा अपकर्ष जग का,
क्या यहीं उत्कर्ष मेरा ?1?

साक्षी बने सब कृत्य के तुम,
किंतु रहते मौन साधे।
कह न सकते सच-असच क्या,
पर मानते अच्छी नियति है?2?

नींद मे तुम स्वप्न देखे,
जग रहे जो होश कब थी?
भूत-भव के सिल तले,
यह पिस रहा वर्तमान क्यों है?3?

उच्च तल पर सूर्य जलता,
भूतल सुलगती यह धरा।
सूरज-धरा के बीच विस्त्रित,
नीलमय यह शून्य क्या है?4?

जो दिख गया वह पाप होता,
है छिपा तो धर्म कहते।
पाप-धर्म के मध्य में यह,
करता मनुज अपकृत्य क्या है?5?

कर रहे निर्माण जो तुम
गर्भ में पलती प्रलय है।
सृष्टि-प्रलय अंतराल में यह
हो रहा उत्थान क्या है?6?

युद्ध में तलवार खिंचतीं,
संधि में प्रतिघात होते ।
युद्ध-संधि के बीच पलती,
स्याहमय यह शांति क्या है?7?

2 comments:

  1. शांति जब आवश्यकता से अधिक गहराती है,
    चेतना प्रकृति की अनायास ही ठहर जाती है।

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  2. कर रहे निर्माण जो तुम
    गर्भ में पलती प्रलय है।
    सृष्टि-प्रलय अंतराल में यह
    हो रहा उत्थान क्या है?6?


    सुन्दर प्रस्तुति.सब खेल ही तो है.
    खेलने के लिए सब स्वतंत्र हैं.
    पर अंतिम बाजी उसी के हाथ है.

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