कुछ प्रश्न मन में प्राय: आते हैं- ईश्वर कौन है,हम इसे कैसे जान सकते हैं? मेरे जीवन
का अर्थ व उद्देश्य क्या है? इस संसार की सार्थकता क्या है?
इन प्रश्नों के उत्तर जानने हेतु मन में भारी उत्कंठा होती है,मन अनिश्चय से भरा होता है कि इनके उत्तर जानने हेतु किस दिशा व श्रोत में देखें?
फिर
यह आभाष होता है कि इन प्रश्नों के उत्तर इस ब्रह्मांड व इसकी रचनाओं की अपार विशालता में ही निहित हैं- खिलते पुष्प की कोमल पंखुड़ियाँ को देखता हूँ तो लगता है मानों सितारों का विस्तार हो रहा है,
जब देखता
हूँ कि सूर्य के प्रकाश,जल व वायु के सामंजस्य से एक हरी दूब का तिनका नवजीवन का संचार प्राप्त कर रहा है,
और तब इन सामान्य वस्तुओं में भी एक अकल्पनीय व अलौकिक बुद्धिमत्ता व रचनात्मकता का अनुभव व आभाष होता है, और यह बुद्धिमत्ता व रचनात्मकता की भी सीमा से परे,एक अद्भुत प्रेम व सौन्दर्य की अलौकिक अभिव्यक्ति- सत्यम्, शिवम्,सुंदरम् व अस्तित्व है।
इंद्रधनुष को निहारो तब अनुभव होता है- बादल व वर्षा तो तर्क व कारणसंगत हैं किंतु यह इंद्रधनुष तो सभी तर्कों से परे प्रकृति का एक अलौकिक सौन्दर्य अभिव्यक्ति है।तब आभाष होता है कि किसी परमशक्ति की दिव्य प्रेम व प्रसन्नता की अभिव्यक्ति ही इंद्रधनुष का रूप धारण कर लेती है,
तितलियों के सौन्दर्य का स्वरूप धारण करती है,
पुष्प के रंग व सौन्दर्य बन बिखरती है।
सच पूछें तो इस अनंत विस्तारित ब्रह्मांड व इसके अथाह फैले विभिन्न रचनाओं मे बिखरे विभिन्न रंग व सौन्दर्य इस आस्था की गहरी पुष्टि करते हैं कि इस संसार का नियंता मात्र एक यांत्रिक जीवन प्रक्रिया से अति परे एक परम व अलौकिक शक्ति व आत्मा निरंतर सक्रिय है,
जो इस सकल ब्रह्मांड व इसके दिव्य सौन्दर्य व विविधता की कारण व जनक है।
इस प्रेम व सौन्दर्य गंगा की अक्ष्क्षुण गंगोत्री ही शिव है,
परमपिता है,
ईश्वर है,
प्रभु है।इस विस्तार के अंतर्स्वरूप में ही हमारी स्वयं की भी अभिव्यक्ति व परिभाषा निहित है,इस निरंतर जीवन चक्र के हम निरंतर धारा हैं। ब्रह्मांड एक सुंदरतम जालतंत्र है,जिसके धागे वाह्यगम्य वलय में व्यस्थित सभी जीवित वस्तुओं,अणुओं,परमाणुओं को आपस में सामंजस्यपूर्णता से जुड़े जीवंततामयी स्पंदित हैं।
जीवन के अनंत प्रवाह में, वहाँ कोई अलगाव नहीं है, वहाँ केवल पूर्णता है, है तो मात्र एक ही के कई स्वरूप । इस तरह यदि हम जीवन के प्रति समर्पित हो जाते हैं, तब हमें जीवन को अर्थ भी मिल जाता है , क्योंकि तब हम जीवन के साथ एकनिष्ठ व एकाकार हो जाते हैं ।
स्वयं को देखो तो मन में सहज प्रश्न उठता है कि क्या मैं एक नश्वर शरीर को, और रक्त व मांस के प्राणी मात्र को देख रहा हूँ? तब अनुभव होता हैं कि इस रक्त व मांस के परे मेरा एक आध्यात्मिक जीवन है क्योंकि अपने आध्यात्मिक रूप में ही हमें अपने सच्चे जीवन व इसकी अंतर्निहित परमानंद की अनुभूति होती है ।
यदि हम जानते हैं कि एक प्राणी को आनंदित क्या करता है, तो समझिये हम उसके असली स्वरूप को समझते हैं।गौरेया पक्षी उड़ने से आनंदित अनुभव करता है, इसीलिये हम कहते हैं कि यह एक उड़ान -पक्षी है, बुलबुल
गाकर प्रसन्न होती है , अतः हम इसे गीत-पक्षी कहते हैं । इसी तरह प्रसन्नचित्त व आनंदित रहने हेतु एक व्यक्ति को अपने आध्यात्मिक इच्छाओं की संतुष्ट करने की आवश्यकता होती है। फिर हम यह स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि हमारा अस्तित्व केवल आध्यात्मिक है व इस तरह हमसब एक आत्मा हैं।
इस सत्य की अनुभूति के उपरांत ईंश्वर के दर्शन हेतु कहीं और देखने की आवश्यकता क्या है? शायद
यही उत्तर है हमारे प्रश्न का कि ईश्वर कौन है , हम कौन हैं, हमारे अस्तित्व का कारण क्या है, और हमारे जीवन का अर्थ व उद्देश्य क्या है।
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