दृष्टि के उन्माद में जलता रहा मैं,
शेष केवल रह गयी है भष्म मेरी।
काल के दृढ़ पृष्ठ पर ढलता रहा मैं,
है लहू से रिक्त अब हर शिरा मेरी। 1।
जो अपरिचित शब्द हैं वे गीत मेरे ,
परिचित प्रतिध्वनि आ रही है
शोर बनकर ।
मैं तो था एक रहगुजर गुमनाम
सा,
कुछ निशानी शेष हैं पदचिह्न बनकर ।2।
छोर जिनको छोड़कर मैं दूर निकला,
गहन जकड़े हैं मुझे जंजीर बनकर।
शस्त्र मेरे तरकशों में रिक्त हैं अब,
स्वयं मुझको बींधते अरि-तीर बनकर।3।
तुम कहे थे छोड़ दूं मैं हृदय वीथि,
मैं तो तेरा शहर ही हूँ छोड़ आया।
तुम कहे तो दफ्न खुद को कर दिया,
(किंतु)मौन थे लब तो हृदय ने गीत गाया।
अनगिनत पहेलियाँ हम बूझते पर
आसान सी जीवन पहेली में उलझते।
सहजता से सुलझ जाते छोर सारे,
खींचने से उलझे धागे कब सुलझते।5।
जो अपरिचित शब्द हैं वे गीत मेरे ,
ReplyDeleteपरिचित प्रतिध्वनि आ रही है शोर बनकर ।
मैं तो था एक रहगुजर गुमनाम सा,
कुछ निशानी शेष हैं पदचिह्न बनकर ...
अपरिचित शब्दों का शोर भी परिचित ध्वनि देता है ... बहुत गहरा एहसास है .. भावों की प्रधानता लिए ... सुन्दर गीत ...
धन्यवाद नासवा साहब।
Deleteजब हृदय गीत गाता है तो शब्द व्यक्त होने के लिये व्यग्र होने लगते हैं।
ReplyDeleteटिप्पड़ी हेतु आभार ।
Deleteअनगिनत पहेलियाँ हम बूझते पर
ReplyDeleteआसान सी जीवन पहेली में उलझते।
सहजता से सुलझ जाते छोर सारे,
खींचने से उलझे धागे कब सुलझते।5।
bahut hi sundar abhiwyakti
jiwanse judi jiwan ke karib.
धन्यवाद रमाकांत जी।
Deleteउत्कृष्ट रचना .....
ReplyDeleteधन्यवाद मोनिका जी।
Deleteधन्यवाद धीरेन्द्र जी।
ReplyDelete