बिखर गये हैं रिश्ते अपने,
अपना साया हुआ अजनबी।
(पर) तुम जो देखो आईना तो,
मेरा चेहरा ही अस्क बना ।1।
मुझसे तुमको मुक्ति मिली जो,
अंजुलि भर-भर मोती देना।
निष्कासित जो किया हृदय से,
(पर) हाथ-लकीरों से न मिटाना ।2।
प्रस्तर शिला तेरी राहों का ,
वार किये तुम लिये हथौड़े।
मुझे तरासे छेनी से तुम,
पर प्राणमयी सी मूर्ति गढ़ना ।3।
विश्वासों की कोमल पर्तों पर
प्रश्नों की है क्या गुंजाइश ?
शब्दों का आघात कठिन है,
मौन इशारे से कह देना ।4।
कदमों के धीमे आहट में,
आने का संदेश प्रबल है।
बंद जो हैं खिड़की दरवाजे,
रोशनदान खुला तुम रखना ।5।
घिरा रहा मैं आग मध्य ही,
अंगारों पर चला निरंतर।
नहीं मिटाते ताप मेरा यदि ,
ज्वाला को तुम हवा न देना ।6।
इक दिन ऐसा भी आना है,
मैं न रहूँगा, तुम न रहोगे।
याद मेरी ग़र आ जाये तो
अश्रुबूँद श्रद्धांजलि देना ।7।
कहे सुने की लम्बी चिट्ठी,
पर ढाई आखर ही असली है।
खत में मेरा नाम नहीं पर,
इसको तकिया नीचे रखना।8।
विश्वासों की कोमल पर्तों पर
ReplyDeleteप्रश्नों की है क्या गुंजाइश ?
शब्दों का आघात कठिन है,
मौन इशारे से कह देना ।4।
...बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना...
बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद मनोज जी।
Deleteमुझसे तुमको मुक्ति मिली जो,
ReplyDeleteअंजुलि भर-भर मोती देना।
निष्कासित जो किया हृदय से,
(पर) हाथ-लकीरों से न मिटाना ।2।
सुन्दर भाव...
धन्यवाद संध्या जी।
Deleteभावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteधन्यवाद अरुणजी।
Deleteघिरा रहा मैं आग मध्य ही,
ReplyDeleteअंगारों पर चला निरंतर।
नहीं मिटाते ताप मेरा यदि ,
ज्वाला को तुम हवा न देना
Gahan Bhav...
धन्यवाद मोनिका जी।
Deleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteMY RESENT POST...काव्यान्जलि... तुम्हारा चेहरा.
धन्यवाद धीरेन्द्र जी।
Deleteबहुत गहरा लिखा है, जितना सहेज लें स्वयं को कठिनाई में उतना ही प्रेम बचा रहेगा।
ReplyDeleteटिप्पड़ी के लिये आभार प्रवीण जी।
Delete