हृदय संकीर्ण, मन कुंठित, हैं हम सीमित समझ में,
हर बात पर शंका,झिझक और अविश्वास मन में,
हृदय जल रहा ईर्ष्या अग्नि में, नसें हैं ऐंठती तन में वदन में ,
कहते हैं बहुत सुनते कहाँ हैं,
आक्रोश की अग्नि में जलता जहाँ है,
अपनी बाहों का सहारा और सुख विश्राम दे दो।
गगन तुम और थोड़ा सा हमें विस्तार दे दो ।।
तुमने ओढ़ रखा है अपनी नील छाती पर सितारों का
दुशाला,
आँचल पर जड़ा चंदा, बिंदिया सूर्य का डाला ,
गले में हार नभगंगा,
लबों पर श्यामल मेघ का प्याला,
लबों पर श्यामल मेघ का प्याला,
तेरे आँगन में हो उत्सव, खेले दामिनी ज्वाला,
मुझे भी आज इस उत्सव चमन में आगमन का आह्वान दे
दो।
गगन तुम और थोड़ा सा हमें विस्तार दे दो ।।
मुझे भी आज इस उत्सव चमन में आगमन का आह्वान दे दो।
ReplyDeleteगगन तुम और थोड़ा सा हमें विस्तार दे दो ।।
वाह ....बहुत सुंदर रचना ,..देवेन्द्र जी बधाई....
बेहतरीन भाव अभिव्यक्ति,
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,
वाह अद्भुत दिगंबर सौन्दर्य लास्य!
ReplyDeleteगगन के विस्तार का आलिंगन हमें अनन्त बना देगा।
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