Wednesday, April 6, 2011

विपश्यना


हम कहीं भी दृष्टि डालें, संसार में चारों और अशांति और बेचैनी छाई हुई नजर आती है । यहाँ तक कि कुछ क्षण के लिए मन को थोड़ा एकाग्र कर, अपने ही अंदर झाँकने का प्रयास करें तो दिखाई पड़ता है कि हमारे स्वयं के भीतर ही कितना कोलाहल, अशांति व बेचैनी है , और कुछ ही क्षणों में अपने अंदर के इस  सुनामी के दृश्य से हम इतने भयभीत हो उठते हैं कि मन की एकाग्रता भंग हो जाती है, और हम वाह्य-जगत के कोलाहल में, जिसके हम सहज रूप में अभ्यस्त हो गये हैं, में वापस भाग आते हैं ।

शांति व चैन किसे नहीं चाहिए ? शांतिपूर्वक जीना आ जाए तो जीने की कला हाथ आ जाए। हमें अपने जीवन में निरंतर ही इस जीने की कला की तलाश और प्यास रहती है जिससे कि हम स्वयं भी सुख और शांतिपूर्वक जिएँ तथा औरों को भी सुख-शांति से जीने दें।

इस जीने की कला के मर्म के बारे में सुनने व जानने का अवसर  17 मार्च, 2011 को मिला श्री विजय के टेम्पे, मुख्य विद्युत अभियन्ता , दक्षिण पश्चिम रेलवे का विपश्यना पर एक संक्षिप्त किन्तु अति प्रभावशाली व सूचना-पूर्ण भाषण से। श्री टेम्पे मैसूर रेल वर्कशॉप में वहाँ उपस्थित अधिकारियों व सुपरवाइजर्स को विपश्यना पर जानकारी दे रहे थे, जिसमें लेखक भी सौभाग्यवश उपस्थित था।

श्री टेम्पे विपश्यना से विगत कई वर्षों से जुडे हैं। लगभग छः साल पूर्व जब उन्होने पहली बार विपश्यना का कोर्स IRIEEN (भारतीय रेल विद्युत इंजीनियरिंग संस्थान, नासिक ) में किया तो स्वयं के जीवन में अद्भुत शांति व गुणात्मक परिवर्तन का अनुभव किया। और वे तब से नियमित रूप से , बिना किसी नागा के, इसका अभ्यास कर रहे हैं। वे कहते हैं- मेरा दिन विपश्यना के अभ्यास से ही पूर्ण हो पाता है । मैं किसी वजह से देर रात  तक , चाहे कार्य वश या अन्य आयोजन अथवा यात्रा में भी व्यस्त रहूँ तो भी सोने के पूर्व विपश्यना का अभ्यास अवश्य पूरा करता हूँ । अब तक वे पाँच दसदिवसीय और एक सतिपट्ठान रेजिडेन्सियल कोर्स विभिन्न विपश्यना केन्द्रों में कर चुके हैं। 

विपश्यना क्यों हमारे जीवन में आवश्यक है? विपश्यना हमारे जीवन - भौतिक व मानसिक दोनों, में क्या परिवर्तन लाता है? विपश्यना क्या है?विपश्यना के कोर्स हेतु कौन से केन्द्र हैं व वहाँ नामांकन के क्या नियम और प्रक्रिया हैं? मन में उठनें वाले इन सभी स्वाभाविक प्रश्नों के उत्तर व संबंधित जानकारी , उनके दिये भाषण के आधार पर, उनके ही शब्दों में इस प्रकार है-

विपश्यना क्यों हमारे जीवन में आवश्यक है?

हमारा जन्मागत स्वभाव वाह्य की ओर देखने का है ।यहाँ तक कि जब भी हमारे साथ कोई अप्रिय घटना घटती है, तो हम उसका कारण वाह्य परिस्थितियों, कारणों, वस्तु या अन्य व्यक्ति में ही ढूँढते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि हमारी इन अप्रिय घटनाओं का मूल कारण प्रायः हमारे खुद के अन्दर होता है । 

पहले यह जान लें कि हम अशांत और बेचैन क्यों हो जाते हैं? गहराई से सोचने पर साफ मालूम होगा कि जब हमारा मन विकारों से विकृत हो उठता है, तब वह अशांत हो जाता है। चाहे क्रोध हो, लाभ हो, भय हो, ईर्ष्या हो या और कुछ। उस समय विक्षुब्ध होकर हम अपने मन का संतुलन खो बैठते हैं। चूँकि मन व शरीर का बडा गहरा सम्बन्ध होता है, इसलिए  अंततः हमारे मन की यहीं अशांति व बेचैनी ही हमारे शरीर में अनेक बीमारियों व विकारों में परिणीत हो जाति है।

हम इसे एक साधारण से उदाहरण से आसानी से समझ सकते हैं। हम जो वस्त्र पहनते हैं, वह कुछ दिनों में मैला हो जाता है और हमें फिर उसे साफ करना पड़ता है ।कल्पना करें यदि हमें इसी मैले वस्त्र को बिना साफ किये लगातार बहुत दिनों तक पहनना पड़े। शायद हम इसे पहन ही न सकें या मजबूरी में पहनना भी पडे तो बीमार ही पड जायें । इसी तरह हमारा मन भी बहुत समय से अनेक विकारों व कुसंस्कारों को संचित कर गंदा हो गया है । किन्तु हम इस मन की गंदगी के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि हमें इसका अनुमान भी नहीं रहता और हमें सब स्वाभाविक लगता है । विपश्यना हमें अपने मन के अंदर झाँकने व वहाँ मौजूद विकारों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद , मात्सर्य व घृणा  व कुसंस्कारों की गंदगी को अनुभव कर पाने व इन्हें साक्षात देखने में मदद करता है । इन विकारों व कुसंस्कारों पर निगाह रखने पर पता चल पाता है कि ये कितनी गहराई तक हमारे मन में धँसे पडे हैं और हमें यह महसूस होने लगता है कि मन को कैसे शुचिपूर्ण कर सकते हैं और इससे होने वाले लाभ को प्राप्त कर सकते हैं ।

विपश्यना हमारे जीवन - भौतिक व मानसिक दोनों, में क्या परिवर्तन लाता है?

यह अनुभूति मात्र मानसिक स्तर पर ही नहीं, मगर शरीर के स्तर पर भी होती है , क्योंकि मन व शरीर अंतरंगता से जुडे होते हैं। उदाहरणार्थ – क्रोध हमारी हृदय-गति व दुश्चिंता को बढा देता है यानी क्रोध जो एक मानसिक उद्वेग की प्रक्रिया है, वह शारीरिक विकारों में परिणीत हो जाता है । क्रोध की अतिरेक अवस्था यहाँ तक कि हिंसा और हत्या मॆं भी परिवर्तित हो सकता है । इसी तरह हमारे मन की प्रसन्न अवस्था , हमारे शरीर को फूल की तरह हल्का बनाता है । मन की विकार व अवसाद-पूर्ण अवस्था या प्रसन्न अवस्था क्रमशः शारीरिक ब्याधियों या शारीरिक आरोग्य में परिवर्तित होती है ।हमारे मन कि सभी अशुद्धियाँ किसी न किसी शारीरिक ब्याधि में परिवर्तित होती रहती हैं। इस तरह विपश्यना की मदद से हम अपने मानसिक विकारों को दूर करने के साथ-साथ हमारी शारीरिक ब्याधियों को भी दूर कर सकते हैं ।

वैसे तो सिर्फ बताने या इसकी चर्चा करने मात्र से इस लाभ को अनुभव करना सम्भव तो नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे  अमरीका या यूरोप को देखने पर ही हम उनका सही अनुभव कर सकते हैं, न सिर्फ पढकर या मात्र चर्चा से ।

मैं अपने स्वयं के अनुभव और अपने कई नजदिकियों-परिचितों-मित्रों के जीवन में विपश्यना के अभ्यास के उपरान्त आये उल्लेखनीय सुधारों के आधार पर यह कहना चाहूँगा कि विपश्यना से न सिर्फ सभी के जीवन स्वभाव व व्यवहार  में काफी गुणात्मक सुधार आया है बल्कि अनेकों की असाध्य बीमारियों जैसे रक्तचाप, माइग्रिन, चिडचिडापन, अवसाद का आश्चर्यजनक रूप से उपचार हुआ है।

 विपश्यना का क्या अर्थ है ?

विपश्यना का अर्थ है - विशेष प्रकार से देखना (वि + पश्य + ना) । यह वास्तव में सत्य की उपासना है। यह सत्य में जीने का अभ्यास है। विपश्यना इसी क्षण में यानी तत्काल में जीने की कला है। भूत की चिंताएं और भविष्य की आशंकाओं में जीने की जगह यह वर्तमान में जीने व सोचने की जीवन-कला है। विपश्यना सम्यक ज्ञान है। जो जैसा है, उसे ठीक वैसा ही देख-समझकर जो आचरण होगा, वही सही और कल्याणकारी सम्यक आचरण होगा। विपश्यना जीवन की सच्चाई से भागने की शिक्षा नहीं देता है, बल्कि यह जीवन की सच्चाई को उसके वास्तविक रूप में स्वीकारने की प्रेरणा देता है।

विपश्यना के कोर्स हेतु कौन से केन्द्र हैं व वहाँ नामांकन के क्या नियम और प्रक्रिया हैं?

गुरुजी श्री सत्यनारायण गोयन्का जी
भारत में प्रथम विपश्यना केन्द्र की स्थापना गुरुजी श्री सत्यनारायण गोयन्दका जी द्वारा महाराष्ट्र के ईगतपुरी में धम्मगिरी मठ के रूप में की गयी । वर्तमान में ये केन्द्र बंगलौर, कोल्हापुर, बोधगया, सारनाथ,नागपुर, मुम्बई, चेन्नाई, कोलकाता और नई दिल्ली के अलावा कई महत्त्वपूर्ण शहरों में स्थापित हो गये हैं। भारत के अलावा सम्पूर्ण विश्व में महत्त्वपूर्ण स्थानों जैसे अमरीका, यूरोप, आस्ट्रेलिया एवं पूर्वी एशियाई देशों में भी ये केन्द्र स्थापित हैं। श्री सत्यनारायण गोयन्का जी का जन्म बर्मा ( वर्तमान मयनमार) में एक सभ्रांत उद्योगी परिवार में हुआ था। उनकी विपश्यना में दीक्षा बर्मा में ही हुई। प्रकृति के शान्त व मनोहारी वातावरण में स्थापित ये केन्द्र विपश्यना हेतु अनुकूलतम परिवेश प्रदान करते हैं। इस कोर्स में न सिर्फ भारत से बल्कि विश्व के अनेक देशों-स्थानों से लोग विपश्यना हेतु इन केन्द्रों में आते हैं।

विपश्यना का यह रेजिडेन्सियल कोर्स दस दिन का होता है।एक दिन पूर्व ही रिपोर्टिंग और एक दिन का डिस्चार्जिंग जोड दें तो कुल बारह दिन । इस तरह प्रत्येक केन्द्र प्रतिमाह दो कोर्स सम्पन्न कराते हैं। भारतीय रेल अपने कर्मचारियों को इस कोर्स के लिये दस दिन का विशेष आकस्मिक अवकाश देती है। यह कोर्स , इस हेतु आवास , भोजन, एवं अन्य आवश्यक सुविधाएँ केन्द्र में निःशुल्क प्रदान किये जाते हैं।आप अपनी सुविधा के अनुरूप केन्द्र का चयन कर सकते हैं।

धम्मगिरि विपस्यना केन्द्र इगतपुरी
चूँकि विपश्यना का उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार है, अतः प्रशिक्षुओं को कोर्स की अवधि में एकांत में और मौन अवस्था में नियम व संयम के साथ निवास करना आवश्यक है ।कोर्स की अवधि में प्रशिक्षुओं को अति अनुशासन में रहना होता है और एक कठिन साधना करनी होती है । प्रातःकाल चार बजे उठना, नित्य-क्रिया से निवृत्त होकर साढे चार बजे से ध्यान में बैठ जाना, साढे छः बजे ध्यान से उठकर सुबह का नाश्ता, पुनः आठ बजे से ध्यान पर बैठ जाना, फिर ग्यारह बजे से एक बजे अपराह्न तक दोपहर का भोजन व विश्राम, एक बजे अपराह्न से शाम साढे पाँच बजे तक पुनः ध्यान पर बैठना, अल्पाहार के उपरान्त शाम छः से सात ध्यान और फिर सवा आठ बजे तक गुरुजी का प्रवचन सुनना । रात्रि नौ बजे रात्रि विश्राम और शयन ताकि सुबह चार बजे अगले दिन के कार्यक्रम हेतु समय से और स्वस्थ मन व शरीर से उपस्थित हो सकें। कोर्स की अवधि में पुर्ण मौन का पालन , पुस्तक या अन्य पाठन सामग्री से दूर रहना होता है । किसी विशेष परिस्थिति में अपने शिक्षक अथवा स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या होने पर केन्द्र में उपलब्ध डाक्टरों से सलाह लेने की छूट रहती है । कोर्स के उपरान्त , घर वापस लौट कर भी दैनिक रूप से एक घंटा सुबह और शाम नियमित रूप से विपश्यना के ध्यान का अभ्यास आवश्यक है ।

भारतीय दर्शन व सनातन मत के आधार पर मानव जन्म दुर्लभ है। बडे भाग मानुष तन पावा । कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों के चक्र में मनुष्य का जन्म बडे ही सौभाग्य और सत्कर्मों के फलस्वरूप ही मिलता है । विपश्यना भी मानव के जीवन में सौभाग्य व जीवन कल्प के रूप में आती है।विपश्यना से अर्जित संस्कार-शुद्धियाँ न सिर्फ हमारे इस जीवन को निर्मल करती हैं, बल्कि ये हमारे आगे के जन्मों में भी अर्जित संस्कार के स्वरूप में उपलब्ध रहती हैं।


श्री विजय के टेम्पे
विपश्यना के सम्बंध में अतिरिक्त जानकारी अथवा इस विपश्यना के कोर्स हेतु इच्छुक सुधीपाठकगण श्री टेम्पे से सीधी जानकारी उनके email: cee_swr@sify.com , vktempe@yahoo.com अथवा उनके मोबाइल नं- +91 9731665300 से प्राप्त कर सकते हैं ।



चलते चलते.....
लेखक ने भी उन्नीस वर्ष पूर्व ईगतपुरी के धम्मगिरी केन्द्र में प्रथम बार विपश्यना का दस दिवसीय रेजिडेन्सियल कोर्स किया था, और उससे प्राप्त अनुभव आज भी यथावत सुख व शान्तिपूर्ण जीवन हेतु मार्ग दर्शक है।आश्रम के शान्त व पवित्र वातावरण में , भोर की पावन देव-बेला में गुरुजी श्री सत्यनारायण गोयन्का के भजन के ये बोल सायाश अब भी मन में गूँजते रहते हैं-
मन में मैत्री करुण रस, वाणी अमृत घोल।
जन जन के हित के लिए, धर्म वचन ही बोल॥

आप भी क्यों नहीं इस जीने की कला का स्वयं अनुभव करके देखते ?

8 comments:

  1. 'भारतीय दर्शन व सनातन मत के आधार पर मानव जन्म दुर्लभ है। “बडे भाग मानुष तन पावा ।“ कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों के चक्र में मनुष्य का जन्म बडे ही सौभाग्य और सत्कर्मों के फलस्वरूप ही मिलता है'
    विपश्यना के बारे में जो दुर्लभ जानकारी आपने दी इसके लिये बहुत बहुत आभार आपका.ध्यान करने से मन बुद्धि की चंचलता कम होती है और हममें उनका दृष्टा बन कर स्वयं का अवलोकन करने की सहज सामर्थ्य आती जाती है.ज्यूँ ज्यूँ मन बुद्धि शांत होते जाते हैं,हम आनन्द का अनुभव करने लगतें है.भगवद गीता अध्याय ६ में भी ध्यान की प्रक्रिया बतलाई गई है.

    ReplyDelete
  2. राकेश जी , इतनी ज्ञानबर्धक टिप्पडी हेतु हार्दिक आभार ।

    ReplyDelete
  3. जब जीवन को विशेष प्रकार से देखने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, नित नयापन आने लगता है। वर्मा के बौद्ध भिक्षुओं द्वारा विकसित ध्यान कला है यह।

    ReplyDelete
  4. nice कृपया comments देकर और follow करके सभी का होसला बदाए..

    ReplyDelete
  5. विपश्यना का अर्थ है - विशेष प्रकार से देखना (वि + पश्य + ना)
    देवेन्द्र जी ! आपका बेहतरीन लेख पढा । 18 साल से कुन्डलिनी
    और पिछले 8 साल से सुरति शब्द योग का अभ्यास करने के कारण
    मुझे जो जानकारी है । आपको बता रहा हूँ । सुरति ( मन बुद्धि चित्त
    अहम ) यानी अंतकरण के ये चारों छिद्र एक सरल अभ्यास से एक
    कर देने पर इससे ज्यादा बल्कि पूर्ण सफ़ाई होकर रीचार्ज होने में
    15 मिनट लगते हैं । इसके बारे में जानकारी मेरे ब्लाग पर उपलब्ध नम्बर
    से गुरुजी के या मेरे फ़ोन पर ले सकते हैं । ये समस्त क्रिया बिना किसी
    लम्बे झमेले के अधिकतम तीन दिन में बेहतर ढंग से आ जाती है ।

    ReplyDelete
  6. इतनी महत्वपूर्ण जानकारी को लिए धन्यवाद राजीव जी ।

    ReplyDelete
  7. एक सार्थक चिंतन को जन्म देती पोस्ट के लिए आभार...

    ReplyDelete
  8. धन्यवाद झा साहब।

    ReplyDelete