Monday, August 22, 2011

क्या हमें परनिंदा का नैतिक अधिकार है ?


परनिंदा मनुष्य के मूल विकारों में से एक है ।इसकी मौलिकता को ही महत्व देते हुये साहित्यकारों ने नवरसों के साथ साथ निंदारस को भी स्थान दिया है । किसी से कुछ त्रुटि हो जाये, प्राय: हम उसकी निंदा करने से चूकते नहीं हैं। किसी के अच्छे कार्य की सराहना करने से हम भले ही प्राय: चूक जाते हैं, किन्तु निंदा का अवसर लाभ उठाने से भला क्या मजाल कि हम चूक जायें ।

वैसे कबीर दास जी की मानें तो हमें खुद की निंदा का स्वागत करना चाहिये। उन्होने कहा है - निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय । शायद उनके इतने साहस व उदारतापूर्ण कथन का कारण यह हो सकता है कि हमारी निंदा करने वाला हमारी उन कमियों व कमजोरियों को इतने सीधे-सीधे व स्पष्ट तरीके से बता देता है जो कि हमारे मित्र व प्रियजन प्राय: छुपा देते हैं या सीधे तौर से कभी नहीं कह पाते या कहने में संकोच करते हैं ।

निंदा प्राय: तीन तरह की होती है - कारण वश , ईर्ष्या वश और स्वभाव वश । कारण वश निंदा का आधार किसी किये गये कार्य के नैतिकता या नियम के प्रतिकूल होने या कार्य के अपेक्षानुकूल परिणाम न आने या किसी के द्वारा अनुचित व्यवहार या आचरण करने के विरुद्ध होती है। यह निंदा स्वाभाविक व तथ्यपरक होती है । दूसरी कोटि की निंदा ईर्ष्या वश होती है। यदि हम किसी के प्रति ईर्ष्यालु हैं, किसी के प्रति हमारे मन व हृदय में डाह,जलन या ईर्ष्या है तो हम उस व्यक्ति के कुछ भी अच्छे-बुरे कार्य या व्यवहार की निंदा करते हैं ।यह निँदा कभी कभी तथ्यपरक हो सकती है, पर प्राय: यह विद्वेषपूर्ण व लक्षित व्यक्ति को हानि पहुँचाने की नियति से होती है।तीसरी कोटि की निंदा स्वभाव वश होती है । कुछ व्यक्तियों का स्वभाव ही होता है कि वे किसी भी काम की या व्यक्ति की- चाहे अच्छा हो या बुरा निंदा ही करते है। ऐसे लोग सिवाय अपने किसी दूसरे के काम या व्यवहार की निंदा किये बिना रह ही नहीं सकते।उन्हे यह रंचमात्र अहसास भी नहीं होता कि उनके इस क्षणिक निंदारस का आनंद किसी को कितनी हानि,आघात या दु:ख पहुँचा सकता है ।

अब प्रश्न यह उठता है कि निंदा का कोई भी कारण हो, क्या हम नैतिक आधार पर किसी भी दूसरे की निंदा करने के अधिकारी हैं। मैने इस प्रश्न पर बहुत मंथन किया पर अपने अंत:करण से यही उत्तर मिलता है कि नहीं, हमें किसी दूसरे की निंदा करने का कोई अधिकार नहीं।हम प्रत्येक से गाहे-बगाहे, जाने-अनजाने कोई न कोई गलती होती ही रहती है, किंतु हम स्वयं की तो कोई निंदा नहीं करते, बजाय हम अपने गलत से गलत, बुरे से बुरे , अनुचित से अनुचित कार्य ,कार्य के परिणाम,आचरण या व्यवहार को उचित,तर्कसंगत व न्यायोचित ठहराने की कोशिश करते हैं।हम अपने द्वारा किये गये किसी गलती या गलत कार्य अथवा कार्य के खराब या असफल होने का कोई न कोई तथ्यपूर्ण कारण, परिस्थिति, मजबूरी या विवशता या अपरिहार्यता बताकर उसे उचित ठहराने की कोशिश करते हैं।

इस तरह जब हम सबसे कोई न कोई गलती होती है, और हम अपनी खुद की गलतियों के लिये स्वयं को माफ कर लेते हैं और स्वयं के कृत्य की निंदा कदापि नहीं करते तो हमें किसी दूसरे की निंदा करने का भला क्या नैतिक आधार बनता है।तो अगर हम अपने अंतरात्मा की आवाज सुनें तो हमें परनिंदा का कोई नैतिक अधिकार नहीं।पर असली मसला तो यह है कि हम अपने अंतरात्मा की आवाज कितनी सुनते हैं और उसपर कितनी गंभीरता से अमल करते हैं ?

7 comments:

  1. जन्माष्टमी के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ.
    आजकल आपके दर्शन दुर्लभ हो गए हैं देवेन्द्र भाई.
    अंतरात्मा की आवाज सुनना अत्यंत आवश्यक है.
    क्या मुझ से कोई गल्ती तो नहीं हुई, देवेन्द्र भाई?

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  2. प्रिय राकेश जी, आपको भी जन्माष्टमी के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ । राकेश जी आप किस गल्ती की बात कर रहे हैं। आप के इसतरह सोचने से मुझे संकोच व शर्मिंदगी सी होगी । सर्व शुभ मंगल कामना ।

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  3. जब से ब्लॉगिंग शुरू की प्रशंसा करने की आदत पड़ रही है। निंदा करने की आदत कोसों दूर भाग चुकी है। बहुत बड़ा लाभ है। पहले लेख की कमियों पर ध्यान देता था अब तलाशता हूँ कि कौन सी लाइन है जो अच्छी है.! हा..हा..हा..।

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  4. पाण्डेय जी, इतनी ईमानदार टिप्पडी के लिये हार्दिक स्वागत व बधाई । यह तो बडा ही शुभ विचार है । सादर

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  5. आपको सकारात्मक सोच के लिए बधाई.
    मेरे अनुरोध के बाबजूद,बहुत दिनों से आपके दर्शन
    मेरे ब्लॉग पर नहीं हुए.इसीलिए मैंने ऐसा सोचा.
    आपकी टिपण्णी पर मैंने 'सरयू'जी पर एक अलग से
    पोस्ट जारी की है. 'सीता जन्म' पर भी तीन पोस्ट जारी की हैं.
    आपके न आने से मुझे कुछ निराशा सी हुई.
    आपसे अनुराग है,इसीलिए आपको कहा.
    आप बुरा न मानियेगा,प्लीज.

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  6. प्रिय राकेश जी, मै आपका ब्लाग नहीं पढ पाया, इसके लिये क्षमा प्रार्थी हूँ । वस्तुतः इससे मैं स्वयं एक सुन्दर भावास्वादन से वंचित सह गया । कहते हैं न- एहि सर आवत अति कठिनाई । राम कृपा बिनु आइ न जाई। शायद प्रभु राम की मेरे ऊपर कृपादृष्टि नहीं हो पायी । कुछ पारिवारिक छिटपुट सपस्याओं के चलते समय नहीं निकाल पा रहा था। किंतु अब मैं अपनी त्रुटि सुधार लेता हीँ। आशा करता हूँ, आपका मेरे ऊपर स्नेह पूर्व की भाँति बना रहेगा ।
    सादर-
    देवेन्द्र

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  7. बिना निंदा किये हुये भी वाकचातुर्य से बात पहुँचायी जा सकती है।

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