Friday, August 26, 2011

संवाद और विश्वसनीयता


हम सब शब्दों व बातों से कहते तो बहुत कुछ हैं,कभी-कभी तो हम शोर की हद तक अपनी बात कहने की कोशिश करते हैं, समझाना भी बहुत कुछ चाहते हैं,पर जटिल प्रश्न तो यही है कि कहे जाने या कहें तो सुनने वाले ने कितना सुना,गुना और समझा ? यह कहने और समझने के बीच का घाटा एक तरह से संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न कर देता है

पति-पत्नी तो कई वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं,एक दूसरे से कहने सुनने में कोई कोर-कसर भी नहीं छोडते, पत्नियाँ वैसे भी शादी के कुछ वर्षों के अनंतर पति के प्रति काफी मुखर हो जाती हैं,फिर भी यदि आप सूक्ष्मता से दृष्टि डालें तो यही निष्कर्ष निकालेंगे कि दोनों के बीच भयंकर संवादहीनता की स्थिति है ।यह संवादहीनता अंततः उनके बीच या तो कलह का कारण बनती है या तो किसी एक के अवसादग्रस्त होने का कारण ।

आफिसों,कार्यालयों में भी इसी संवादहीनता के कारण जहाँ एक ओर अनेक कार्यघंटे जाया चले जाते हैं, वहीं दूसरी ओर कार्यदक्षता भी बुरी तरह प्रभावित होती है । जनसेवाओ की खराब गुणवत्ता और देरी के मुख्य कारणों में एक संबंधित विभागों व संस्थानों में व्याप्त संवादहीनता ही है -संवादहीनता व्यक्तिगतस्तर पर है या विभागीय स्तर पर।

समाज के स्तर पर भी संवादहीनता की जडे बडी ही गहरी हैं।धार्मिक,साम्प्रदायिक,जातीय व अन्य सामाजिक झगडो व मतभेदों की जड मे भी व्याप्त आपसी संवादहीनता ही है ।

कहीं मैने पढा था - ' जो हम व्यक्त करते हैं , वह प्राय: अव्यक्त रह जाता है , और जो हम सीधे तौर पर नही व्यक्त करते या व्यक्त नहीं करना चाहते, वही व्यक्त हो जाता है ।' तात्पर्य यह हो सकता है कि हमारी अभिव्यक्ति व कथ्य का प्रत्यक्ष व चेतन भाग अति न्यून व आंशिक ही होता है , जबकि उसका अधिकाँश भाग अप्रत्यक्ष , अचेतन होता है ।

हमारे कथ्य का प्रत्यक्ष व चेतन भाग किस तल तक श्रोता तक संवाद स्थापित कर पाता है , यह कहने वाले की सुनने वाले के मन में उसकी विश्वसनीयता पर निर्धारित होता है । यदि दोनों के बीच विश्वसनीयता का अभाव है , तो कही हुई बात संवादहीन व बेमानी ही होती है, बजाय जो कुछ भी संवाद हो रहा है , वह कथ्य के अप्रत्यक्ष व अचेतन भाग से हो रहा है ।

तो कह सकते हैं कि हमारे चारों ओर व्याप्त संवादहीनता का प्राय: कारण हमारी आपसी विश्वसनीयता की कमी है । विश्वसनीयता की जटिलता यह है कि इसे जटिलता से परहेज है । जो भी सरल व स्पष्ट है , चाहे कही गयी बात , या व्यक्ति का व्यवहार, आचरण या कर्म, वही प्राय: विश्वसनीय होता है । आचार, विचार, कर्म, व्यवहार व वाणी की जटिलता प्राय: अविश्वसनीयता में निरूपित होती है ।

इस तरह कह सकते है कि सुगम व प्रभावी संवाद शीलता हेतु, एवं आपसी संवादहीनता को न्यूनतम रखने हेतु आपसी विश्वास परमाश्यक है , और विश्वसनीयता हेतु आवश्यक है कि आपसी क्रियाकलाप- आचार, विचार, व्यवहार, कर्म, कथन सरल, सहज, स्पष्ट व पारदर्शिता पूर्ण हो ।

वैसे एक सावधानी की भी बात है, वह है उपरोक्त सिद्दांत की कोरोलरी- यानि विश्वसनीयता के आक्षेप में अकसर गलत संवाद भी स्थापित हो जाता है, यानि विश्वास करने में ही कभी धोखा भी हो जाता है।फिर भी कहते हैं  कि विश्वास न करने के बजाय विश्वास करके धोखा खाना बेहतर होता है ।

7 comments:

  1. विश्वसनीयता और संवादहीनता पर एक शोधपरक आलेख के लिए आभार। मुझे विश्वास करने में एक अद्भुत सुख मिलता है। धोखा खाने की कभी चिंता नहीं की।

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  2. कर्म ही प्रभावी अभिव्यक्ति होती है। कार्यालयों में या समाज में भी लोग हमारी बातों से तभी प्रभावित हो पाते हैं जब वे देखते हैं हमारे कर्म भी उसी के अनुकूल हैं।

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  3. प्रिय दिव्या जी, सुंदर टिप्पडी के लिये हार्दिक आभार। आपने सही कहा,सच्चा विधवास हमारे जीवन का अनमोल थाती है, क्योंकि विश्वास में ही ईश्वर का निवास होता है। इसीलिये तो ईश्वर की वंदना में हम कहते हैं- भवानीशंकरौ वंदे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ ।
    पुनः हार्दिक आभार।
    सादर,
    देवेन्द्र

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  4. जी पाण्डेय जी, आपने सर्वथा सत्य कहा । हमारे कर्म की गुणवत्ता ही दूसरे के प्रति हमारी विश्वसनीयता का आधार बनाती है ।और प्रभावी संवाद के लिये आपसी विश्वसनीयता परमावश्यक है।

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  5. श्रीमानजी काहे सबकी पोल खोलने पर तुले हैं, हम तो जितना जानते हैं औरों के बारे में, लगता है कि कुछ नहीं जानते।
    कैसी है पहेली हाय।

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  6. आपसी क्रियाकलाप- आचार, विचार, व्यवहार, कर्म, कथन सरल, सहज, स्पष्ट व पारदर्शिता पूर्ण हो ।

    हम तो पूरी पारदर्शिता हर काम में रखते हैं, कभी कुछ छुपाते नही पर घरवाली बात बे बात रोजाना दो चार "मेड-इन-जर्मन" लठ्ठ फ़टकार देती है, उसे भी तो समझाईये.:)

    रामराम

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  7. @प्रवीण पाण्डेय - पाण्डेय जी, अब क्या करें, बस विचार आया , लिख दिया, आप तो मेरी श्रेणी जानते ही हैं, तो इसी को ध्यान में रख गुस्ताखी माफ कर सकते हैं । हाहाहाहा .... ।

    रामपुरिया जी, इसे प्रसन्नता से शिर-माथे लगाना ही पडता है, यह भी जीवन व जीवनसंगीनी से मिला प्रसाद ही समझें।

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