मैने कभी एक हिन्दी कहानी में एक रोचक
प्रकरण पढा था। कहानी का नायक एक जुझारू, संवेदनशील व निरंतर संघर्षशील
आंदोलनकारी छात्रनेता व तदन्तर जननेता होता है । जन समस्याओं , वेदनाओं
व मुद्दों के प्रति उसकी संवेदना इतनी गहरी व सच्ची होती है कि जैसे ही वह किसी जन
समसमस्या को देखता व अनुभव करता है, उसके शरीर में एक अतिरिक्त आँख उभर आती
है । परिणामत: उसकी जनसेवा व जननायक की कुछ वर्ष की अवधि में ही उसके शरीर में
अनेकोनेक आँखें उभर आयी थी और उसका आँखो से भरा शरीर विकृत , विभत्स
व डरावना सा लगता था ।
किंतु वह जनसमर्पित , लोगों
की समस्याओं, दु:ख-दर्द के प्रति संवेदनशील व उन्हे दूर करने
हेतु सदैव संघर्षरत रहता था , अत: वह अति लोकप्रिय था। इसी
लोकप्रियता व उपजे जनसमर्थन से व जनप्रतिनिधि चुनकर सत्ता का स्वयं अधिकारी बना।
अभी तक वह जिस सरकार के विरुद्ध बगावत,आंदोलन की बात करता था , नारे
लगाता था , आज वह उसी सरकार का स्वयं ही मुखिया बन गया था।
आज तक जिन जनकार्यों को अति शीघ्र शुरू करने व पूरा करने की सरकार से आग्रह ,
हठ
व अनसन किया करता था, अब उन्हीं जनकार्यों व योजनाओं को सम्पन्न करने
की जिम्मेदारी स्वयं उसके ऊपर थी ।
वह सरकार का मुखिया बनकर भी जनता की
माँगों,शिकायतों को सुनने के लिये ज्यादा से ज्यादा समय देने का प्रयाश करता,
जनता
दर्शन में उपस्थित होता, जनता के शिकायती आवेदनों को स्वयं
प्राप्त कर उनपर उचित कार्यवाही के लिये निर्देश जारी करता। सरकारी तंत्र तो
सरकारी तंत्र है, उस जननेता व शासक के अथक प्रयाश बावजूद नतीजे
संतोषजनक न आते। उसके मातहत व सरकारी अधिकारी काम न हो पाने और समस्या को दूर न कर
पाने के कई तथ्य आधारित कारण बताते - जैसे समुचित धनकोष का अभाव, संसाधनों
का अभाव, कर्मचारियों का अभाव, मसीनों का अभाव , ये
अभाव, वो अभाव।
वह जननेता करता भी क्या, आखिर
वह अब सरकार का स्वयं मुखिया था, यदि सरकार काम नहीं करती तो इसकी
जिम्मेदारी उसके स्वयं के ऊपर भी आती थी, इसलिये उसे अपने अधिकारियों द्वारा काम
न होने में विभिन्न अभावों के तथ्यपूर्ण कारण उचित व तर्कसंगत लगने लगे और वह धीरे
घीरे उन जन समस्याओं जिनको लेकर वह अति अधीर व संवेदनशील था, उनके
प्रति तटस्थ भाव अपनाने लगा।
पर उसकी समस्याओं के प्रति तटस्थता
अपनाने से अद्भुत चमत्कार हुआ- उस जननायक का शरीर जो जनसमस्याओं के प्रति अतिरेक
संवेदनशीलता से अनेकों आँखों के जगह जगह उभरने से कुरूप व विभत्स हो गया था ,
अचानक
अब रोगमुक्त होना शुरू हो गया, वे कुरूपता की कारण शरीर में उभरी
जगह-जगह आँखे धीरे धीरे उसके शरीर से विलुप्त होने लगीं । वह जननेता वापस एक
सुदर्शन व विकार रहित शरीर का स्वामी बन गया।
लगभग बाईस वर्ष पूर्व हमारे देश में एक
ऐसे ही जननायक उभरे थे , जो सरकार में मंत्री रहकर, अपने ही नेता और प्रधानमंत्री
के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुद्दा खडाकर जनांदोलन शुरू किया। इसी भ्रष्टाचार के
विरुद्ध जनांदोलन, और बडे-बडे वादों और नारों का सहारा लेकर वे स्वयं देश के प्रधानमंत्री भी
बन गये । वे स्वयं तो भ्रष्टाचार का कितना उन्मूलन किये इसका तो देश ही साक्षी है,
किन्तु अपनी सत्ता और गद्दी की खातिर उन्होने देश के सामाजिक व धार्मिक ताने-बाने व समरसता को
जिस बुरी तरह से ध्वस्त व क्षत-विक्षत किया कि देश आज भी उस आघात की पीडा व कडवाहट
को ढो रहा है ।
तो इस तरह के हमें अनेकों उदाहरण मिल
जायेंगे कि सरकार में न होने,विरोध की राजनीति करते समय तो जनता के दुःख दर्द, इन
जन सेवकों को जनता की समस्यायें खूब नजर आती हैं, जनता के प्रति खूब सम्वेदना जगती
है, इसी सहानुभूतिक आधार पर और राजनीतिक चतुराई का सहारा लेकर अपने समर्थन में ये
लोग जनांदोलन भी खड़ा कर लेते हैं, और स्वयं को जननायक घोषित कर लेते हैं। फिर इसी
जन समर्थन के सहारे जब स्वयं जनप्रतिनिधि चयनित होकर सत्ता की बागडोर सँभालते हैं,
तो उनका स्वयं का भी प्रशासनिक व्यवहार, आचरण व कार्य प्रदर्शन कमोवेश अपने
पूर्ववर्ती सरकार जैसा ही होता है, जिसका बढ-चढ कर स्वयं विरोध किये थे, और जिन
मुद्दों को लेकर बडे-बडे भाषण व नारे दिये थे, किन्तु स्वयं सत्ता पाने पर खुद भी
उसी घिसी-पिटी लीक पर ही चलते हैं ।
कह सकते हैं इसका एक कारण यह हो सकता
है कि राजा कोई हो, हमारे देश की राजनगरी की पटरानी मंदोदरी ही रहती है ।
राजा कोई हो, हमारे देश की राजनगरी की पटरानी मंदोदरी ही रहती है ।
ReplyDeleteसारा लुब्बे लुवाब तो यही है. बहुत सशक्त.
रामराम
हमें दूर का नहीं दिखायी पड़ता है, क्या करें, बाद में पछता लेते हैं।
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