मन उदार हे प्रभु! हो तुम सम मेरा।
तुम उदार, अति मन उदार है तेरा।
तुम उदार सर्व-सृष्टि समाहित।
जल-थल-नभ सर्वत्र प्रवाहित।
प्राण वायु हे! निर्बाध सुवाहित।
शब्द रूप हे! ओंकार आवाहित।
तव प्रताप धरा जीवनमय होई।
भृकुटिविलास सृष्टिलय होई।
गोचर-अगोचर तुम्हइ हो सोई।
हम नि:अस्तित्व तुम्हइ जो खोई।
देहभवन तव-आत्मा विराजित।
मन मंदिर में तव-चेतना स्थापित।
प्राणवायु
त्वयै-जीवन सप्रवाहित।
अग-अंग त्वयै ही शक्ति निरूपित।
शिला स्पर्श करि अहिल्या तारे।
खाया प्रेमभाव फल-भीलनी-जुठारे।
केवट ने पाँव पखारा हे जगतारनहारे।
बध्यो ग्राह जब गज ने हरिनाम पुकारे।
ताप हरो,क्लेष हरो तुम मन का।
रक्षा करो हमारी जैसे करते अपने प्रण का।
हे!कारक,पालक,संघारक इस जग का।
चिरआलोक रहे मन में तव-ज्ञान-दीप का ।
तुम उदार सर्व-सृष्टि समाहित।
ReplyDeleteजल-थल-नभ सर्वत्र प्रवाहित।
प्राण वायु हे! निर्बाध सुवाहित।
शब्द रूप हे! ओंकार आवाहित।....
sundar praarthana.
.
इस प्रार्थना ने मन को तृप्त कर दिया, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
ताप हरो,क्लेष हरो तुम मन का।
ReplyDeleteरक्षा करो हमारी जैसे करते अपने प्रण का।
हे!कारक,पालक,संघारक इस जग का।
चिरआलोक रहे मन में तव-ज्ञान-दीप का ।
यही प्रार्थना है हमारी भी उस परमात्मा से... सुन्दर रचना
जगत की भव्यता और मन की उदारता, ईश्वर के दो रूप।
ReplyDeleteदिव्या दी, रामपुरिया जी, संध्या जी एवम् प्रवीण जी,आप सब का हार्दिक आभार ।
ReplyDeleteताप हरो,क्लेष हरो तुम मन का।
ReplyDeleteरक्षा करो हमारी जैसे करते अपने प्रण का।
हे!कारक,पालक,संघारक इस जग का।
चिरआलोक रहे मन में तव-ज्ञान-दीप का
....बहुत सुन्दर और सार्थक प्रार्थना..
कैलाश जी आपका हार्दिक आभार।
ReplyDelete