मेरा बचपन गाँव में बीता। बचपन की अधिकांश यादें
तो समय के साथ,और बढ़ती उम्र के साथ एवं बढ़ती
मानसिक उलझनों के कारण भी,धुँधली सी होती जाती हैं, किंतु एक याद अभी भी मन में स्पष्ट अंकित है, वह है कि जैसे
ही चार या छ: बच्चे इकट्ठा हुये,अपना प्रिय खेल 'रेलगाड़ी' शुरू हो जाता-सबसे आगे का बच्चा रेल-इंजिन
और फिर एक के पीछे एक आगे वाले की कमर पकड़े बच्चे रेलडिब्बे के डिब्बे बन इंजिन से
जुड़ जाते और ये बन गयी रेलगाड़ी।
इंजिन बना बच्चा इंजिन के फ्लाईव्हील की टाईलिंक
की तरह आगे की दिशा में गोल-गोल हाथ घुमाते दुलकी चाल से दौड़ता,और पीछे जुड़े रेलडिब्बा बने बच्चों की कतार भी पीछे-पीछे समयबद्ध ढंग से
भागती। बीच-बीच में इंजिन बना बच्चा अपनी बायीं हथेली मुँह के पास बेड़े रख इंजिन
की सीटी बजाता।पीछे के बच्चे भी इंजिन की लगातार 'छुक-छुक,छुक-छुक' आवाज के साथ धीमे स्वर में साथ देते। यह
सिल-सिला घंटों बिना थके चलता रहता,जबतक कि कोई घर का
बड़ा-बूढ़ा एकदम आमादा होकर उनके खेल और इसकी धमाचौकड़ी व शोर को को बंद न कराये।
बचपन की रेल से संबंधित मेरी प्रिय स्मृतियों
में से हैं मेरा मिडिल स्कूल जिसके ठीक सामने रेल लाइन गुजरती थी।यह एक ब्रांच
लाइन थी अत: पैसेंजर गाड़ियाँ तो गिनी चुनी थीं परंतु मालगाड़ी काफी तादाद में
गुजरती थी क्योंकि यह रेललाइन बिजली पावर हाउस और पास के अन्य कारखानों को कोयला
सप्प्लाई की मुख्य यातायात साधन थी।हमारी चलती कक्षा के दौरान जैसे ही कोई रेलगाड़ी
गुजरती सभी बच्चों का ध्यान कक्षा को छोड़ गुजरती रेलगाड़ी के ऊँचे शोर में खो जाता।
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रेलगाड़ी के बारे में हमारे बाल-मन में अनेकों
मिथक स्थापित थे, जैसे- रेल के
डिब्बे आपस में चुम्बक से जुड़े होते हैं(हमें रेलडिब्बों के बीच जोड़ने वाली कपलिंग
का सामान्य ज्ञान नहीं था, और हमें रेलवे के इंड-बफर बड़े चुम्बक की तरह लगते।),रेलवे फाटक के पास लगे बोर्ड 'खतरा!रुकिये' का हमारे लिये अर्थ था कि रेलगाड़ी खतरा करके ही रुक सकती है, खतरा करने के पहले नहीं, रेल की पटरी पर रखा पैसे का
सिक्का भागती रेलगाड़ी की पहियों से दबकर एक चिपटा हुआ चुम्बक बन जाता है इत्यादि।
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रेलगाड़ी की
प्राय: यात्रा में मैं अनुभव करता हूँ कि जहाँ बड़े लोग रेलगाड़ी डिब्बे में प्रवेश
करते समय दबे,सिकुड़े व असहज और घबराहट भरे
होते हैं, वहीं छोटे बच्चे उत्सुक,प्रसन्नचित्त
और इत्मिनानपूर्ण दिखते हैं,मानों वे अपने घर से भी ज्यादा
अपने व परिचित जगह आ गये हों।रेल के डिब्बे यात्री बच्चों को उतनी ही आजादी व
खुलापन देते प्रतीत होते है मानों ये बच्चे अपना मनपसंद खेल खेलने का घर का अपना
पसंदीदा कोना पा गये हों ।
इस तरह देखें तो बच्चे रेलगाड़ी के डिब्बे में अनायाश ही अति सहज अनुभव करते हैं। मुझे उनकी सहजता कुछ ऐसी ही प्रतीत होती है जैसी सहजता बच्चे को अपने दादा-दादी के साथ अनुभव होती हैं। रेलगाड़ी दादा-दादी की ही तरह स्नेह व सुरक्षा के साथ-साथ बच्चों को मन व स्थान का खुलापन भी प्रदान करती है,और कह सकते हैं कि इसी अनूठे रिश्ते की ही तरह बच्चों और रेलगाड़ी का रिश्ता भी बड़ा अनूठा और मीठा होता है।
रेल के इंजन संभवतः उतने काव्यमय नहीं रह गये हैं जितने कि हमारे बचमन में थे।
ReplyDeleteरेल यात्रा के बारे में व पुराने फ़ोटो देख कर अच्छा लगा है।
ReplyDeleteरेल गाड़ी और बच्चों के सम्बन्ध को बहुत सुंदरता से बयान किया है. जो कोतुहल हम सब को बचपन में रेलयात्रा का होता था वह अब सब पीछे छूट गया है.
ReplyDeleteप्रवीण जी, संदीप व रचना जी, सुंदर टिप्पड़ी के लिये आपका आभार।
ReplyDeleteहर बच्चे का रेल्वे के साथ ऐसा ही रिश्ता प्रतीत होता है, आपके द्वारा उकेरे गये उदगार मुझ पर तो लागू पडते हैं पर अफ़्सोस हम रेल्वे अधिकारी ना बनकर ताऊ बन गये.
ReplyDeleteरामराम.
रामपुरिया जी आपकी सदा की तरह रोचक ,सुंदर व आनंददायी टिप्पड़ी के लिये आभार।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट ने मुझे पता नहीं कितनी बातें याद दिला दीं। मेरा बचपन भी रेल्वे कॉलोनी और स्टेशनों के नजदीक ही बीता है।
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आप पोस्ट में जो फांट उपयोग कर रहे हैं, उसे पढ़ने में थोड़ी समस्या होती है, अगर उसे बदल सकें तो बेहतर होगा।
राजेश जी, टिप्पड़ी व सुझाव के लिये आभार।
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