Sunday, September 18, 2011

बच्चे और रेलगाड़ी


मेरा बचपन गाँव में बीता। बचपन की अधिकांश यादें तो समय के साथ,और बढ़ती उम्र के साथ एवं बढ़ती मानसिक उलझनों के कारण भी,धुँधली सी होती जाती हैं, किंतु एक याद अभी भी मन में स्पष्ट अंकित है, वह है कि जैसे ही चार या छ: बच्चे इकट्ठा हुये,अपना प्रिय खेल 'रेलगाड़ी' शुरू हो जाता-सबसे आगे का बच्चा रेल-इंजिन और फिर एक के पीछे एक आगे वाले की कमर पकड़े बच्चे रेलडिब्बे के डिब्बे बन इंजिन से जुड़ जाते और ये बन गयी रेलगाड़ी।

इंजिन बना बच्चा इंजिन के फ्लाईव्हील की टाईलिंक की तरह आगे की दिशा में गोल-गोल हाथ घुमाते दुलकी चाल से दौड़ता,और पीछे जुड़े रेलडिब्बा बने बच्चों की कतार भी पीछे-पीछे समयबद्ध ढंग से भागती। बीच-बीच में इंजिन बना बच्चा अपनी बायीं हथेली मुँह के पास बेड़े रख इंजिन की सीटी बजाता।पीछे के बच्चे भी इंजिन की लगातार 'छुक-छुक,छुक-छुक' आवाज के साथ धीमे स्वर में साथ देते। यह सिल-सिला घंटों बिना थके चलता रहता,जबतक कि कोई घर का बड़ा-बूढ़ा एकदम आमादा होकर उनके खेल और इसकी धमाचौकड़ी व शोर को  को बंद न कराये।

बचपन की रेल से संबंधित मेरी प्रिय स्मृतियों में से हैं मेरा मिडिल स्कूल जिसके ठीक सामने रेल लाइन गुजरती थी।यह एक ब्रांच लाइन थी अत: पैसेंजर गाड़ियाँ तो गिनी चुनी थीं परंतु मालगाड़ी काफी तादाद में गुजरती थी क्योंकि यह रेललाइन बिजली पावर हाउस और पास के अन्य कारखानों को कोयला सप्प्लाई की मुख्य यातायात साधन थी।हमारी चलती कक्षा के दौरान जैसे ही कोई रेलगाड़ी गुजरती सभी बच्चों का ध्यान कक्षा को छोड़ गुजरती रेलगाड़ी के ऊँचे शोर में खो जाता।

मध्यांतर का समय होते ही स्कूल के सभी बच्चे रेल की पटरी के पास भागते पहुँच जाते,कुछ बच्चे तो रेलवेलाइन के लिये फैलाये गये गिट्टियों के टुकड़ों से पास के बेर और इमली के वृक्षों पर निशाना साधते,कुछ पत्थर के टुकड़ों से पटरी पर टन-टन की आवाज करते, तो कुछ बच्चे लोहे की रेल-पटरी से अपना कान सटाये दूर आती ट्रेन की पहियों की आवाज का अनुमान लगाते, गोया रेल की पटरियाँ हम सभी बच्चों के लिये एक अलग,अद्भुत व सम्पूर्ण दुनिया थी ।

हमारे लिये सबसे अद्भुत व रोमांचक दृश्य होता था जब रेल पटरी निरीक्षक अपनी पुशट्राली,जिस पर शान से लहराती लालझंडी होती, में किसी महाराजा की ऐंठ में तनकर बैठा होता और ट्राली को पीछे से धक्का देते सधी व यंत्रवत चाल से पटरियों पर दुलकी चाल से संतुलन बनाये दौड़ते, दो ट्रालीमैन।हम इस भव्य दृश्य को पटरियों के समीप मूर्तिवत खड़े निहारते रहते।मुझे इस दृश्य के प्रति अपने मन का कौतूहल आज भी स्पष्ट स्मरण है और मेरा मन सोचता कि निश्चय ही यह रेल-पटरी निरीक्षक रेलवे विभाग का सबसे महत्त्वपूर्ण व ओहदेदार अघिकारी है और मैं भी बड़ा होकर ऐसा ही अधिकारी बनूँ जिससे मैं भी एकदिन इसी तरह तनकर इस पुसट्राली में बैठूँ।(शायद बालमन के यही भाव व सपने मेरे  बड़े होने पर एक दिन रेलवे में ही अधिकारी बन जाने के रूप में परिणित हो गये।)

रेलगाड़ी के बारे में हमारे बाल-मन में अनेकों मिथक स्थापित थे, जैसे- रेल के डिब्बे आपस में चुम्बक से जुड़े होते हैं(हमें रेलडिब्बों के बीच जोड़ने वाली कपलिंग का सामान्य ज्ञान नहीं था, और हमें रेलवे के इंड-बफर बड़े चुम्बक की तरह लगते।),रेलवे फाटक के पास लगे बोर्ड 'खतरा!रुकिये' का हमारे लिये अर्थ था कि रेलगाड़ी खतरा करके ही रुक सकती है, खतरा करने के पहले नहीं, रेल की पटरी पर रखा पैसे का सिक्का भागती रेलगाड़ी की पहियों से दबकर एक चिपटा हुआ चुम्बक बन जाता है इत्यादि।

रेलवे में नौकरी की मेरी प्रथम तैनाती में मेरा आवास रेलवे स्टेशन यार्ड के अति समीप था।तब स्टीमइंजिन अधिकांशत: फेसआउट हो रहे थे, फिर भी मेरे सेक्सन में अभी भी उनकी काफी तादाद थी।स्टेशन यार्ड में ये स्टीम इंजिन इधर से उधर सीटी बजाते,छुक-छुक करते दिन-रात चहलकदमी करते रहते। मेरा एक वर्षीय पुत्र हमारे बंगले के सामने वाले बरामदे में घर के नौकर की गोद में बैठा इन स्टीम इंजिन की चहलकदमी को एकाग्रचित्त व एकटक देखता व सुनता रहता।बच्चा जब भी घर में चिड़चिड़ाता,रोता या परेशान करता, उसको बहलाने व शांत करने का सबसे आसान व सहज तरीका था बरामदे से दिखते रेल इंजिन व डिब्बे और उनकी चहलकदमी के दृश्य में उसका ध्यान बटा देना और वह अपना रोना-धोना छोड़ अपना यह मनपसंद दृश्य देखने में तन्मय हो जाता। छोटे बच्चे की स्टीम इंजिनों के चहलकदमी के प्रति यह तन्यमता उसकी माँ को घर का काम निपटाने में काफी सहूलियत देती।

रेलगाड़ी की प्राय: यात्रा में मैं अनुभव करता हूँ कि जहाँ बड़े लोग रेलगाड़ी डिब्बे में प्रवेश करते समय दबे,सिकुड़े व असहज और घबराहट भरे होते हैं, वहीं छोटे बच्चे उत्सुक,प्रसन्नचित्त और इत्मिनानपूर्ण दिखते हैं,मानों वे अपने घर से भी ज्यादा अपने व परिचित जगह आ गये हों।रेल के डिब्बे यात्री बच्चों को उतनी ही आजादी व खुलापन देते प्रतीत होते है मानों ये बच्चे अपना मनपसंद खेल खेलने का घर का अपना पसंदीदा कोना पा गये हों ।


इस तरह देखें तो बच्चे रेलगाड़ी के डिब्बे में अनायाश ही अति सहज अनुभव करते हैं। मुझे उनकी सहजता कुछ ऐसी ही प्रतीत होती है जैसी सहजता बच्चे को अपने दादा-दादी के साथ अनुभव होती हैं। रेलगाड़ी दादा-दादी की ही तरह स्नेह व सुरक्षा के साथ-साथ बच्चों को मन व स्थान का खुलापन भी प्रदान करती है,और कह सकते हैं कि इसी अनूठे रिश्ते की ही तरह बच्चों और रेलगाड़ी का रिश्ता भी बड़ा अनूठा और मीठा होता है।

8 comments:

  1. रेल के इंजन संभवतः उतने काव्यमय नहीं रह गये हैं जितने कि हमारे बचमन में थे।

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  2. रेल यात्रा के बारे में व पुराने फ़ोटो देख कर अच्छा लगा है।

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  3. रेल गाड़ी और बच्चों के सम्बन्ध को बहुत सुंदरता से बयान किया है. जो कोतुहल हम सब को बचपन में रेलयात्रा का होता था वह अब सब पीछे छूट गया है.

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  4. प्रवीण जी, संदीप व रचना जी, सुंदर टिप्पड़ी के लिये आपका आभार।

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  5. हर बच्चे का रेल्वे के साथ ऐसा ही रिश्ता प्रतीत होता है, आपके द्वारा उकेरे गये उदगार मुझ पर तो लागू पडते हैं पर अफ़्सोस हम रेल्वे अधिकारी ना बनकर ताऊ बन गये.

    रामराम.

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  6. रामपुरिया जी आपकी सदा की तरह रोचक ,सुंदर व आनंददायी टिप्पड़ी के लिये आभार।

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  7. आपकी इस पोस्‍ट ने मुझे पता नहीं कितनी बातें याद दिला दीं। मेरा बचपन भी रेल्‍वे कॉलोनी और स्‍टेशनों के नजदीक ही बीता है।
    *
    आप पोस्‍ट में जो फांट उपयोग कर रहे हैं, उसे पढ़ने में थोड़ी समस्‍या होती है, अगर उसे बदल सकें तो बेहतर होगा।

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  8. राजेश जी, टिप्पड़ी व सुझाव के लिये आभार।

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