Wednesday, September 21, 2011

कहाँ खोते जा रहे हैं गाँवों से लोकगीत......



कल टाइम्स ऑफ इंडिया समाचार पत्र के मध्य-पृष्ठ पर श्रीमती मालिनी अवस्थी का इस लेख के शीर्षक के ही विषय पर एक साक्षात्कार पढ़ा।

पाठकों की सहूलियत के लिये बता दूँ - मालिनी अवस्थी उत्तर प्रदेश की लोकगीत गायिका हैं, ठीक-ठाक गाती हैं(सिर्फ ठीक-ठाक इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि वे सारे लोकगीत, कजरी हो या सोहर, एक ही धुन में गाती हैं),कुछ वर्ष पूर्व एक लोकगीत का टीवी रियलिटी शों जीतकर वे वर्तमान में उत्तर व मध्यभारतीय लोकगीत की अति जानी पहचानी गायिका हो गयीं हैं।

मालिनी जी  भारत व बनारस घराने की सुप्रसिद्द शास्त्रीय संगीत व लोकसंगीत गायिका श्रीमती गिरिजा देवी जी के साथ मिलकर ळोकगीतों के विकाश के लिये एक 'सोन चिरैया' प्रोजैक्ट शुरू की हैं।

मालिनी के छपे साक्षात्कार में दो बड़ी महत्वपूर्ण बातें कही गयी हैं


प्रथम तो यह कि भारतीय लोकगीतों में वृहत् विविधता है-प्रत्येक अवसर,स्थान, व्यवसाय,ऋतु, बेला सबके लिये अलग-अलग लोकगीत हैं,वर्षा के लिये अलग गीत,सूखा के लिये अलग गीत,शादी के लिये अलग गीत,बच्चे के जन्म पर अलग गीत,खेत में फसल रोपाई का अलग गीत,फसल कटाई का अलग गीत , हर अलग लोकगीत का अलग नाम-वर्षा ऋतु का गीत कजरी, बच्चे के जन्म का गीत सोहर,अलग-अलग व्यवसाय से संबंधित अलग-अलग लोकगीत-कुम्भार का अलग लोकगीत,तेली का अलग गीत,यहाँ तक कि अलग-अलग महीनों के लोकगीत के भी अलग-अलग नाम- फागुन में फाग,चैत्र में चैता, कुछ गाने बारहमासा भी कहलाते हैं जो सदाबहार होते हैं।

द्वितीय महत्वपूर्ण किंतु चिंताजनक बात है कि  लोकगीत गाँवों से, जहाँ कि ये परम्परागतरूप से पले-पोसे जाते और प्रफुल्लित होते थे,अब तेजी से विलुप्त होते जा रहे हैं।

वैसे मैं इस विषय का कोई विशेषज्ञ या ज्ञाता तो नहीं, किंतु बचपन मेरा गाँव में बीता अतः इस लोकगीत की विविधता को स्वयं अति नजदीक से देखने का सुअवसर मिला, और इसीलिये लोकगीतों की मिठास भरी स्मृति सदैव मन में तरो-ताजा रहती है।

मुझे याद आता है, वर्षा ऋतु के शुरुआत में जब खेत में हलपूजन व धान की नर्सरी हेतु धान के बीजारोपड़ की पूजा होती, किसान घरों की औरते विशेष गीत गाती जिनका विशेष भाव हल के फल की सफलता,बैलों के शानभरी चाल व धान की नर्सरी का चंद्रमा की तरह शीघ्र बढ़ जाने की कामना से होता।

कुछ सप्ताह के बाद धान की रोपाई के समय झुककर   चपलता के साथ अपने हाँथ कीचड़ व पानी से भरे खेत में धान की रोपाई करती किसानों के घर की स्त्रियाँ  सामूहिक स्वर में लोकगीत गातीं तो दृश्य इतना मोहक व सजीव हो उठता कि स्वयं मेघ अपनी गर्जना व झड़ी की उमंगों के साथ उस सामूहिक गीत का स्वागत संगीत देते।

श्रावण का माह शुरू होते ही सुबह-सुबह गाँव की बालिकायें शिवस्तुति में सामूहिक गीत गातीं विल्वपत्र तोड़ने जातीं और अपराह्नकाल में वे नीम के पेड़ों में झूलों को पेंग देती उच्च स्वरों में कजरी गीत गाती तो ऐसा लगता कि  कान्हा अपनी बाँसुरी बजाते अपनी बाल-सखियों के साथ रास लीला रचाने स्वयं पधारे हैं।

श्रावण में कजरी मीरजापुर का विशेष पर्व होता है जिसमें बालिकायें नागपंचमी के दिन जौ के बीज रोपती हैं, व नीम के पेड़ के नीचे जरई माँ की स्तुति में रतजागा और  उनकी स्तुति में सामूहिक कजरी व देवी गीत गाती हैं। 

फिर भाद्रपद से सुहागन स्त्रियों व माताओं  के विभिन्न व्रत- तीज,गणेश चतुर्थी, हल-छठ,होते और इन अवसरों पर उनके सामूहिक गायन उनकी व्रत की कठिन साधना तपस्या को सुगम कर देते।

कार्तिक माह में ज्युतिया,करवाचौथ व सूर्यछठ जैसे पवित्र पर्व होते  जो स्त्रियों के सामूहिक पूजन व समूह गीत के कारण अद्भुत होते ।

मार्गशीर्ष माह के आते शादी,गौने,मुंडन के उत्सव की तैयारियाँ शुरु हो जाती।उत्सव के भोज की तैयारी हेतु चावल चुनने, आटा पीसने,दाल छाँटने,  हर तैयारी अवसर विशेष के सामूहिक गीत गायन से सजे होते।

फागुन के तो कहने ही क्या, महिलायों की अपनी मंडली रातों को अपने मधुर फाग गीतों से सज़ाती ही, पुरुष मंडली भी पूरे फागुन महीने पूरे जनून और मस्ती में फाग गीतों की मस्ती से पूरे वातावरण को मस्त और खुशनुमा बना देती।

चैत्र माह का चैता जहाँ गीतों के रस और मिठास के उत्कर्ष की मादकता देता, वहीं इन गीतों के अध्याय के वार्षिक उपसंहार की शांति देता भी प्रतीत होता।

बैसाख व जेठ के माह में तो सूर्य के बढ़ते ताप और शादी विवाह के लगातार लग्नदिनों और स्त्रियों के सुअवसरपूर्ण भाव,रस, करुणा और अन्य सभी मधुर रसों से परिपूर्ण गीतों की मधुर व शीतल बयार के बीच एक अद्भुत व सुखद संतुलन प्रदान करता।


गाँव में बीते ये बचपन के दिन व उनकी अनुभूतियाँ बहुत पीछे छूट चुकी हैं, किंतु उन लोकगीतों की मधुर स्मृतियाँ आज भी मेंरे मन के विचारों व अंतर्चिंतन में संस्कार बनकर अनुगुंजित होती रहती हैं।मैं गाँव से दूर रहकर यकीनन इन अवसरों में शामिल नहो पाने की उदासी सदा अनुभव करता हूँ, किंतु यह जानकर मन ज्यादा उदास हो गया है कि गाँव से उनके लोकगीत भी दूर चले गये हैं और धीरे-धीरे वे विलुप्त से हो रहे हैं।

6 comments:

  1. सुंदर पोस्ट। लोक गीतों का एक संग्रह बनारस से कुछ वर्ष पहले प्रकाशित हुआ है जिसमें प्रायः लुप्त हो रहे लोकगीतों का अच्छा संकलन है।

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  2. जितने भी फिल्मी गीत लोकगीतों का आधार लेकर बने हैं, उनकी प्रसिद्धि लोकगीतों की मनमोहकता सिद्ध करने को पर्याप्त हैं।

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  3. कुछ लोकगीत हमसे दूर हो रहे हैं और हम भी लोकगीतों से तेजी से दूर हो रहे हैं शायद, लेकिन फिर भी लगता है अपना रूप बदल कर ही सही लोकगीतों की धाक कम नहीं हुई है, उदाहरण 'सास गारी देवे' का हो या 'चोला माटी के हे राम का'(इन गीतों पर अलग-अलग पोस्‍ट भी मैंने लगाई है.)

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  4. your post will help to save the treasure of our rustic song.

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  5. बहुत सुंदर जानकारी दी आपने, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  6. सच कहा आपने...गांवों से यह संस्कृति तेजी से लुप्त होती जा रही है..

    अब या तो फ़िल्मी गाने बजते हैं शादी ब्याह या ऐसे किसी भी मौके पर या फिर फूहड़ भोजपुरी गीत..

    बहुत ही दुखद है यह...ईश्वर किसी के भी हाथों दे इसे बचा लें, बस यही कामना है..

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