राजा
कीर्तिवर्धन के नीतिज्ञान,न्याय व
शौर्य-पराक्रम का यश चतुर्दिशाओं में सूर्य के प्रकाश की तरह विस्तारित था । उनके
यश के अनुकूल ही उनका मंत्रिमंडल व राजदरबार भी एक श्रेष्ठ विद्वत्समाज था, जिसपर राजा कीर्तिवर्धन स्वयं अति गौरवान्वित अनुभव करते । उनके राजकवि पंडित
भाष्कर मणि शास्त्री जम्बू द्वीप के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में विख्यात थे
।राजदरबार के अन्य कवियों की भी गणना श्रेष्ठ कवियों में होती थी। उनमें एक आशु
कवि संगणक भी था।
संगणक
की विशेषता यह थी कि वह औपचारिक रूप से शिक्षित या अन्य कवियों की तरह किसी उच्च
गुरुकुल से किसी उपाधि से अलंकृत तो नहीं था किन्तु उसकी प्रत्युत्पन्नता व आशु
रचना प्रतिभा विलक्षण थी। महाराज कीर्तिवर्धन राजदरबार में किसी भी विषय की चर्चा
कर रहे होते और अचानक ही सम्बंधित विषय पर किसी रोचक काव्य-रचना सुनने की इच्छा
जताते,
जहाँ राजकवि सहित अन्य विद्वान कवि उस विषय पर गंभीरता से चिंतन-मनन
शुरू कर देते और अपनी काव्य रचना हेतु महाराज से कुछ समय-अवकाश का निवेदन करते ,
वही आशु कवि संगणक तत्पल ही महाराज की इच्छा के अनुरूप विषय पर ही
एक सटीक काव्य रचना प्रस्तुत कर देता। राजा सहित सभी दरबारी गण आश्चर्य में रह
जाते और उसे खूब वाहवाही व प्रशंसा मिलती।
कहें
तो राजदरबार में अपनी प्रत्युत्पन्नता व आशुरचना कौशल के कारण संगणक स्वयं राजकवि
से कम सम्मानित नहीं था। महाराज भी प्राय: राजकवि व अपने अन्य कवियों को
विनोदपूर्ण उलाहना देते हुये कहते - कविवर आप लोग उच्चकोटि के विद्वान व श्रेष्ठ
गुरुकुल व विश्वविद्यालयों में शिक्षित व उपाधि-विभूषित हैं परंतु आप मेरी इच्छानुरूप
तत्काल काव्यरचना में असमर्थता दिखाते हुये विषय पर कितना विचारमंथन करते हैं,
जबकि आशुकवि संगणक बिना कोई समय नष्ट किये तत्क्षण ही एक सटीक सी
काव्यरचना प्रस्तुत कर देता है । कविवरों को महाराज की यह उलाहना व उनकी उच्च
शिक्षा व विद्वत्ता का उपहास उन्हे आहत तो करता किंतु वे करते भी क्या! बस मौन
रहकर व सिर नत किये सहन कर लेते ।
एक
दिन महाराज की इसीतरह की उलाहना से अति आहत होकर राजकवि ने साहस जुटाते यह निवेदन
किया - महाराज संगणक तो विलक्षण नैसर्गिक कवि व काव्यप्रतिभा का धनी है। जब यह
बिना किसी औपचारिक शिक्षा-दीक्षा के इतनी अद्भुत काव्य रचना करता है तो यदि इसको
उचित शिक्षा-दीक्षा का अवसर मिला होता तो यह और श्रेष्ठ विद्वान व कवि बन सकता था ।
तो महाराज क्यों न संगणक भी किसी उच्च गुरुकुल विश्वविद्यालय से अध्ययन कर अपनी
नैसर्गिक प्रतिभा में ज्ञानवर्धन द्वारा निखार लाकर एक उच्चकोटि का विद्वान बने व
इस राजदरबार का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जम्बू द्वीप का कवि कुल शिरोमणि बने । मैं
स्वयं भी अपना योग्य उत्तराधिकारी पाकर धन्य हो जाऊँगा।
महाराज
को राजकवि की सलाह सर्वथा सार्थक व उचित लगी एवं उन्होने तुरंत ही प्रधानमंत्री को
निर्देश दिया कि संगणक को शीघ्र उच्च शीक्षा-दीक्षा हेतु राज्य के श्रेष्ठ गुरुकुल
विश्वविद्यालय में भेजने की व्यवस्था करें। संगणक तो असमंजस व व्यग्रता में था
किंतु क्या करता ! महाराज का आदेश था तो पालन अनिवार्य था ।
समय
तो गतिमान है , कुछ वर्ष पलक झपकते ही बीत गये।
संगणक अब एक श्रेष्ट विश्वविद्यालय से उपाधियुक्त दीक्षित आचार्य था, उसका ललाट ज्ञान से उन्नत व उद्दीप्त,वेष-भूषा व
व्यवहार में विद्वत्ता व गरिमा शुभदर्शनीय थी।महाराज भी संगणक की वापसी से अति
हर्षित थे ।उन्होने संगणक को हृदय से लगाकर स्वागत किया और राजदरबार में राजकवि के
समकक्ष आसन ग्रहण करने का अनुरोध किया ।
किसी
विशेष प्रकरण पर राजदरबार में चर्चा चल रही थी।महाराज ने आचार्य संगणक से अनुरोध
किया कि कृपया विषय के अनुरूप एक सुन्दर काव्यरचना से अनुगृहीत करें।आचार्य संगणक
गरिमा व आदर के साथ गम्भीर मुद्रा में आसन से उठते महाराज से यह अनुरोध किया-" महाराज यह महत्वपूर्ण व विचारणीय विषय है। मैं इस विषय पर चिंतन-मनन हेतु समय
अवकाश की अनुमति चाहता हूँ, विचार मंथन के उपरांत ही विषय के साथ न्याय करते हुये
मैं अपनी काव्य रचना प्रस्तुत कर पाऊँगा।" महाराज सहित राजदरबार में उपस्थित सभी
भद्र-पुरुष अचम्भित से उन्हे देख रहे थे, उन्हे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि
यह वही आशु कवि संगणक है जो पहले महाराज के एक इशारे मात्र पर तत्क्षण एक सटीक
काव्यरचना प्रस्तुत कर देता था।
महाराज
कीर्तिवर्धन जहाँ आश्चर्य व निराशाभाव से विद्वत्ता व प्रत्युत्पन्नता के
अंतर्द्वंद के रहस्य को समझने का प्रयाश कर रहे थे वही राजकवि पंडित भाष्कर मणि
शास्त्री इस रहस्य के सहज अभिव्यक्ति के अपने अनूठे अनुप्रयोग की सफलता पर
स्मित-भाव लिये आनंदित हो रहे थे ।
बहुत सच कहा है, त्वरित को हल्केपन से बहुधा सम्बद्ध किया जा सकता हो, विशेषकर जब विषय गम्भीर हो।
ReplyDeleteधन्यवाद प्रवीण ।
ReplyDeleteविद्वता का प्रमाणपत्र सहज संकोच उत्पन्न करता है।
ReplyDeleteडरें वो
जिनकी जड़ें हों
बरगदी
अधर में लटके हुए को क्या फिकर।
सच है कभी कभी अधिक बुद्धिमानी होना भी उचित नहीं होता .. या ऐसे कहूँ दिखाना उचित नहीं होता ...
ReplyDeleteधन्यवाद देवेन्द्र जी व नासवा जी।
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