मुझे स्मरण आता है कि हमारे छुटपन में गाँव
में और हमारे गाँव के स्कूल में अंग्रेजी भाषा की बड़ी धाक व आतंक हुआ करता था,
कोई भी व्यक्ति अगर थोड़ा भी गिटर-पिटर,
जो अंग्रेजी जैसा सुनने में लगे तो गाँव के अशिक्षित लोग बडे प्रभावित और अचम्भित
होकर उसकी बात सुनते।
कई बार तो कोई पुराना गाँव-वासी जो अब शहर
में नौकरी के सिलसिले में रहता और गाँव में वापस किसी अवसर पर आता और शहर में रहते अब बदली हुई आदत से खड़ी बोली हिंदी में अपने गाँववालों से बात करता तो भी गाँव
वाले कहते-भैया ये तो अब अंग्रेजी में बोलता है।
मेरे गाँव के ही एक बुजुर्ग दादाजी ,
जिन्होने स्कूल का तो मुँह कभी नहीं
देखा, पर आजादी के पहले किसी देशी अधिकारी के घर
में खानसामे का काम किये थे, वे
हम स्कूली
बच्चों को देखते ही कुछ अजीब सी भाषा में,गिटर-पिटर बोलना शुरू कर देते जो हम बच्चे भौचक्के से सुनतेऔर
आश्चर्य करते कि ये दादा जी तो फर्राटेदार
अंग्रेजी बोल रहे हैं।
स्कूल में भी हमारे अंग्रेजी के मास्टर
साहब भी छात्रों के लिये आतंक व अन्य अध्यापकों के लिये रुतबे के प्रतीक व ईर्ष्या
के पात्र होते।सिर्फ वही थे जो पैंट-सर्ट और सूट जैसे पाश्चात्य वेषभूषा में स्कूल
आते वरना अन्य अध्यापकगण तो साधारण देहाती पहनावा में ही स्कूल आते।
गाँव में हमें स्कूली पढ़ाई और उसको
पूरा करने में अंग्रेजी की पढ़ाई करना ही असली बाधा और इस कारण कई महारथियों
द्वारा अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ देने के कई प्रचलित किस्से सुनने को मिलते कि फलाँ
फलाँ कैसे अंग्रेजी की कक्षा में मास्टर साहव के पूछे गये सवाल का जबाब देने में
इतने नर्वस हो गये कि क्लास में गश खाकर गिर पड़े और अंतत: उन्होने एवं उनके
मातापिता ने उन्हें दुबारा स्कूल कदापि न भेजने की शपथ ले ली ,और इस तरह बेचारे ने हाथ के कलम की
तिलांजलि देकर जीवन में सदा के लिये हल की मुठिया पकड़ ली।
इसी तरह कुछ ऐसे भी किस्से हम सुनते कि किन-किन ने अपने कई प्रयासों के बावजूद अंग्रेजी
विषय में हमेशा फेल हो जाने से मिडिल स्कूल का किला फतह नहीं कर पाये और उनके जीवन
के बाद के अध्याय में उनसे यह पूछे जाने पर कि कौन सी जमात तक पढ़ाई किये हैं, एक जंग
हारे हुये सिपाही की तरह गहरी साँस लेते जबाब देते कि वे कक्षा छः फेल हैं। यानि
हमें अपने स्कूली जंग के पहले ही मोर्चे में यह कड़ी चेतावनी दे दी जाती कि इस जंग
को जीतने के लिये हमें अंग्रेजी जैसे मुश्किल किले को फतह करना होगा।
इसी तरह एक रोचक वाकया हमें पता चला कि मेरे
एक चाचाजी ,जो गाँव के दूर स्कूल में रहकर पढ़ते थे , अपने स्कूली पढ़ाई की अच्छी
प्रगति की सूचना अपने पिताजी को इस तरह सूचित किये थे- पिताजी मेरी स्कूली पढ़ाई
जबरदस्त और औव्वल चल रही है, इसके
मजमून के तौर पर मैं नीचे अपना नाम अंग्रेजी में लिख रहा हूँ।उनके पिताजी पत्र में
अंग्रेजी में लिखे उनका नाम देख फूले न समाये थे और वे महीनों तक अपने सुपुत्र जी
के पत्र को जेब में लिये घूमते रहे और उन्हे जो भी राह चलते मिल जाता उससे आग्रह
करके अपने सुपुत्र जी द्वारा स्वयं के अंग्रेजी में लिखे नाम को दिखा धन्य अनुभव
करते।
मुझे याद है मेरे कई स्कूली साथियों के
शादी के प्रस्ताव आ रहे होते तो भावी दूल्हा के पढ़ाई के बारे में आश्वस्त होने के
लिये लड़की के पिता या उनके नजदीकी रिश्तेदार, स्वयं स्कूल पधारते और उस बच्चे का वैवाहिक-इंटरवियु
अंग्रेजी के सवाल से करते- व्हाट इज योर नेम? व्हाट इज योर फादर्स नेम? यदि बच्चे ने सही जबाब दे दिया तो वे
अपनी खोज व प्रस्ताव पर पूरा आश्वस्त हो जाते और शादी की बात फाइनल हो जाती, वरना वे
बड़ी निराशा लिये ऐसे नालायक लड़के से अपनी बिटिया के विवाह के प्रस्ताव को फौरन खत्म करके
वापस लौट जाते।
इस तरह न जाने कितने भविष्य इन अदने से
दिखने वाले अंग्रेजी के चंद साधारण से सवालों से बन और बिगड़ गये।
मेरे एक सबसे प्रिय मित्र के पिताजी ,
और मेरे प्रिय चाचाजी , जो गाजीपुर के रहने वाले हैँ, अपने बचपन के दिनों और गाँव के स्कूल के
बारे में अक्सर बडे रोचक प्रसंग सुनाया करते हैं। एक प्रकरण है उनके गाँव के बाल
सहपाठियों की अद्भुत करामात की-
कुछ शातिर बच्चे अपने माँ-बाप की इस
अशिक्षा और मासूमियत का फायदा अपनी कक्षा से बंक मारने अथवा घर से पैसा ऐंठने में
भी करते- जैसे किसी दिन स्कूल जाने का मन नहीं या मौजमस्ती के लिये गायब होना है तो घर में माँ-बाप से
बहाना बनाते कि आज स्कूल में कम्पोजीसन की छुट्टी है, या पास की हाट में लगे सर्कस को चोरी से
देखने जाने के लिये अतिरिक्त पैसा चाहिये तो बहाना बनाते कि आज स्कूल में ट्रांसलेसन की फीस
जमा होगी।
पता नहीँ अब इस इक्कीसवीं शताब्दी के
नवीन व उभरते आर्थिक शक्ति व शिक्षित होते भारत के
किसी स्कूल के शातिर बच्चे अपने माँ बाप की अशिक्षा व मासूमियत का फायदा उठाकर
अपने स्कूल में कम्पोजीसन की छुट्टी और ट्रांसलेसन की फीस का पैसा झटक पाते
हैं या नहीं?
आज समाज बदल रहा है, अकारण अंग्रेजी धसकने वालों पर हँसी आती है सबको।
ReplyDeleteसभी उस्ताद हो गये हैं.
ReplyDeleteरामराम
पता नहीँ अब इस इक्कीसवीं शताब्दी के नवीन व उभरते आर्थिक शक्ति व शिक्षित होते भारत के किसी स्कूल के शातिर बच्चे अपने माँ बाप की अशिक्षा व मासूमियत का फायदा उठाकर अपने स्कूल में कम्पोजीसन की छुट्टी और ट्रांसलेसन की फीस का पैसा झटक पाते हैं या नहीं?
ReplyDeleteबहुत ही रोचक और धाराप्रवाह संस्मरण है आपका.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.