वैसे
तो सुबह के समाचार पत्र में प्राय: कोई न कोई दु:खद घटना पढ़ने को मिल जाती है
जिससे मन खिन्न और उदास हो जाता है, किंतु
आज सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया में जब दिल्ली के एक डाक्टर द्वारा अपनी पत्नी की हत्या
कर उसकी लाश बोरे में भर गंगा नदी में फेंकने की घटना का समाचार पढ़ा तो मन अति दु:खी
व विचार-उद्वेलित हो उठा । अनायास ही मन में दो दृश्य तरित हो उठे।
प्रथम
दृश्य तो उभरता है समाचार पत्र में छपी इस घटना के पीछे के घटना-क्रम का खाका-दृश्य
- कि एक मेधावी डॉक्टर,
जो कि मेडिकल में प्रवेश की कठिन प्रतियोगी परीक्षा,जिसमें कि पूरे देश में कई लाख
प्रतियोगी भाग लेते हैं पर कुछ हजार ही दाखिला पाने में सफल होते हैं, में सफलता
पाकर और
फिर मेडिकल की पॉच साल की कठिन पढ़ाई
सफलतापूर्वक पूरा कर, जो कि अपने आप में बड़ी उपलब्धि है, फिर ईश्वर की प्राप्ति से भी दुरूह
मेडिकल पीजी में दाखिला और उसमें अव्वल स्थान पाता है। हमारे देश में
किसी भी युवा के लिये भला इससे बड़ी उपलब्धि और गौरव की बात क्या हो सकती है।
दस
माह पूर्व ही पूरे दान दहेज के साथ उसकी शादी हुई थी और होने वाली पत्नी भी समकक्ष
योग्यता की- बी टेक,
एम बी ए और एक मल्टीनेशनल कम्पनी में
अच्छे पैकेज के साथ नौकरी का ऑफर ,भला
इससे भी उपयुक्त और होनहार जोड़ी हो सकती है, कह
सकते हैं सब कुछ इतना अच्छा और सुंदर है कि बस किसी की नजर न लगे।
पर होनी को कुछ और ही मंजूर था।इतना होनहार , पढ़ा लिखा और योग्य डॉक्टर अपनी इतनी प्रतिभा सम्पन्न और काबिल पत्नी के साथ शादी के कुछ दिन के बाद से ही झगड़ा और मारपीट शुरू कर देता है और एक दिन अपनी पत्नी के दुपट्टे से ही गलाकसकर उसकी हत्या कर देता है। और उससे भी बड़ी विडम्बना यह कि माता-पिता ने अपनी इकलौती संतान और लाडली बिटिया के लिये जो कार दहेज में दिया था, उसी कार में उसका पति उसकी लाश बोरे में भर कर ले जाता है और दिल्ली से आठ सौ किलोमीटर इलाहाबाद के समीप गंगा नदी में फेंक देता है।वाह रे कलयुग।
दूसरा दृश्य मन में उभरता है करीब
तीस-बत्तीस साल पहले का,मेरे बचपन-काल का। घर से स्कूल पैदल
रास्ते के समीप ,गाँव की बस्ती से करीब एक किलोमीटर दूर
तालाब के निकट एक डोम परिवार की झोपड़ी थी। गाँव के छूआ-छूत के परिवेश में यह
उपेक्षित परिवार गाँववालों के लिये अस्पृश्य था इसलिये गाँव से दूर तालाब के
किनारी सिकुड़ी सी जगह में एक गंदी सी व पुरानी झोपड़ी में रहता था। सात-आठ के
आसपास की सदस्यों वाला यह परिवार, जिसमें दादा-दादी से लेकर पोता-पोती शामिल थे, इस
रास्ते से स्कूल आते-जाते हम स्कूली बच्चों के मन में मिश्रित विचार उत्पन्न करता- उत्सुकता और कौतूहल का, भय का,उनकी दीन अवस्था के प्रति दया व लाचारी का,उनके गंदगी भरे रहन-सहन के परिवेश के
प्रति घृणा का।
पर हम स्कूली बच्चों के लिये सबसे
आश्चर्य व उत्सुकता की बात होती जब हम सब शाम को स्कूल से लौटते होते और तब वे सब शराब
में धुत आपस में महासंग्राम कर रहे होते- बूढा दादा अपनी बूढ़ी पत्नी को लाठी से मार रहा होता, और बुढ़िया दाँत निपोरते अपनी बहू को
गाली दे और उससे झोटा-झोटौवल करती होती,उनका जवान बेटा अपने बूढ़े बाप पर लाठी भाँजता और
बच्चे अपने जवान बाप को डंडे से मारते होते,और
सुर में सुर मिलाते उनके घर में रहने वाले मरियल कुत्ते खींसे निपोरते लगातार भौंक
रहे होते।
हम स्कूली बच्चे रास्ते पर खड़े इस महासंग्राम
को आश्चर्य व कौतूहल से कुछ देर देखते फिर अपने बालमन में यह विचार करते घर को प्रस्थान
कर देते कि एक ही घर सदस्य , आपस में ही इस तरह की जानलेवा जैसी मारपीट क्यों और कैसे कर सकते
हैं ।
किंतु अगले ही दिन सुबह हमारे स्कूल
जाते समय सारा दृश्य बदला होता। परिवार के वही सदस्य, जो कल शाम आपस में जानलेवा
मारपीट कर रहे थे, अभी तो एक दूसरे से
लिपटकर हाय अम्मा,हाय बप्पा करते रो रहे होते। बूढा दादा
जो कल लाठी से अपनी पत्नी को बेरहमी से मार रहा था, इस समय अपनी बुढ़िया की चोट पर गरम हल्दी-प्याज का पेस्ट लेपन कर रहा
होता और वह बुढ़िया अपने पति को नेह से निहारती होती ,उनका जवान बेटा जो कल अपने बूढ़े बाप को लाठी से मार
रहा था अभी बाप के सिर में तेल की मालिस कर रहा होता, बहू खाना तैयार कर बडे मनुहार के साथ
अपनी सास ससुर और पति से कलेवा खाने का आग्रह कर रही होती, बच्चे भी बड़े जिम्मेदारी से बाड़े में
बंद सूअरों को पुचकारते चारा खिलाने में लगे होते।
तो इस तरह सुबह के समय परिवार के सभी सदस्य संयत,समझदार और सहृदयता से एक दूसरे की देखभाल व सुश्रुषा करते होते, पिछली शाम की अशांति और महासंग्राम का वहाँ
नामोनिशान तक न होता। हम भी आश्चर्य से यह दृश्य देखते और यह विचार करते स्कूल निकल
जाते कि क्या ये वही लोग हैं और इनका आपस में अभी इतना प्यार और स्नेह है, जो कल शाम को आपस में हिंसक जानवर की
तरह लड़ मर रहे थे।
पर यह क्या , वापस शाम को देखो तो फिर
वही कल का दोहराता दृश्य- शराब के नशे में सभी धुत ,फिर से उनका आपसी महासंग्राम, मारपीट, लट्ठमलट्ठ व गालीगलौज, यही सिलसिला प्रायः रोज ही चलता। तो उन लोगों
की भी अजीब जाहिलपना भरी जिंदगी थी और हम
बच्चों को उनके इस मूर्खता व पागलपन पर आश्चर्य व हँसी आती।
पर विचार करें तो हम निश्चय ही सहमत
होंगे कि वे जाहिल,मूर्ख लोग शराब के नशे में चाहे कितनी भी मारपीट या
सिरफुटौव्वल करते हों, पर हकीकी तौर पर उनके मन में एक दूसरे
के लिये सच्चा प्रेम व भरपूर सहृदयता थी।उन्होंने अपने जीवन में किसी स्कूल या
कालेज का मुँह तो नहीं देखा, वे
निपट निरक्षर गँवार थे, पर देखें तो उनका हृदय मानवीय मूल्यों
व सदासयता से सराबोर था।
इसके विपरीत , आज के अखबार
की घटना, जो हमारे अति पढे लिखे शिक्षित काबिल समाज के बीच से है, को पढ़कर तो खुद के पढ़े-लिखे व पढ़ाई-लिखाई में होनहारी का तमगा ढोने में
शर्म आती है। क्या पढ़लिख कर हमारा सामाजिक ढाँचा, व
हमारा स्वयं का यही व्यक्तित्व बन रहा है कि हम हिंसा,क्रूरता और निर्दयता में हिंसक पशु को
भी मात देते लगते हैं।
क्या इन पढ़े लिखे,अति शिक्षित , किंतु
आचरण में हिंसक जानवरों को भी मात देते ,
तथाकथित सभ्य समाज के सभ्य लोगों से , ये बेचारे अनपढ़ गँवार व्यक्ति लाख गुना
बेहतर भलेमानुष नहीं हैं? मेरा मन तो इस प्रश्न का उत्तर हाँ में
देता है। कृपया आप भी स्वयं से यहीं प्रश्न पूछें और अनुभव
करें कि आपका मन क्या उत्तर देता है? मेरा विश्वास है कि
आप भी मुझसे कमोवेस सहमत ही होंगे।
शिक्षा ...क्या कहें.... नून तेल के जुगाड़ से जोड़ने वाली यह शिक्षा यदि व्यक्ति को सबसे अधिक कुछ दे रही है, तो वह है "आत्मकेंद्रिता"...
ReplyDeleteकहा जाता था शिक्षा मनुष्य को मनुष्य बनाती है...कहीं से तो नहीं दीखता यह...
दुर्भाग्यपूर्ण है...क्या कहें...
पढ़े लिखों को न जाने कौन सा नशा चढ़ा है कि न नशा उतरता है और न ही इस प्रकार की जाहिली।
ReplyDeleteशिक्षा से व्यवहार बदलता है, स्वभाव नहीं.
ReplyDeleteये दुर्भाग्यपूर्ण ही है ... शिक्षा का असली मतलब किताबों को खाली पढ़ना नहीं होता बल्कि जीवन का मर्म समझना होता है ...जो अगर इंसान चाहे तो समय की कक्षा में भी पढ़ लेता है ...
ReplyDeleteरंजना जा, प्रवीण जी, राहुल जी व नासवा जी,टिप्पड़ी हेतु आपका हार्दिक आभार।
ReplyDeleteअत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है, आपसे असहमति की कोई वजह ही नही है.
ReplyDeleteरामराम.
rahul ji aapne bilkul shahi kaha शिक्षा से व्यवहार ko to badla ja sakta hai per manushya ke स्वभाव ko aap kabhi nahi badl shkte
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