अपनी छोटी कक्षा में एक कहानी पढ़ी थी जिसका
सारांश कुछ इस तरह था-
एक ऋषि ने इतनी घनघोर तपस्या की कि देवताओं के
राजा इन्द्र भी भयभीत हो उठे कि वह अपने घोर तपोबल से उनका सिंहासन ही न छीन ले।
अत: ऋषि का तप भंग करने के उद्देश्य से इंद्र एक
शिकारी का वेष धारण कर उसके आश्रम गये और अनुरोध किया कि वह किसी काम से बाहर जा
रहा है,और अपने साथ अपने भारी तीर-धनुष को ले जाने में असमर्थ
है, अत: ऋषि कृपा करके उसका तीर-धनुष अपने पास रख लें।
किंतु ऋषि ने असमर्थता व्यक्त हुये कहा कि भला
उसके जैसे एक ऋषि का किसी हथियार से क्या प्रयोजन और वैसे भी ऐसी किसी चीज जिससे
किसी जीव का वध होता हो उसके देखकर ही उनका मन दु:ख से भर जाता है तो भला ऐसी चीज
अपने पास कैसे रख सकता हूँ।
फिर भी इंद्र ने आग्रह करते हुये यह सुझाव दिया
कि वह अपने हथियार ऋषि की कुटिया के पिछवाड़े छिपाकर रख देता है, जिससे वह ऋषि के नजर के सामने भी नहीं आयेगा और उसकी
सुरक्षा भी रहेगी।इस तरह इंद्र के बार-बार के आग्रह व अनुरोध से द्रवित होकर ऋषि
ने अनमने से ही इंद्र को अपना तीर-धनुष अपनी कुटिया के पिछवाड़े रखने की अनुमति दे
दी।
ऋषि भी पहले एक राजा था व तीर-धनुष में उसकी अति
प्रवीणता थी। अत: प्रतिदिन जब वह अपने ध्यान व साधना से उठता तो उसे कुटिया के
पीछे रखे तीर-धनुष का ध्यान आ जाता।और इस तरह उसके मन में तीर-धनुष का स्थाई ध्यान
रहने लगा।एक दिन मन में यह निश्चय किया कि मैं भी कभी तीर-धनुष चलाने में अति
प्रवीण हुआ करता था, तो एक बार इसको फिर से चलाकर
देखता हूँ, बस इससे किसी जीव के ऊपर प्रहार नहीं करूँगा।
इस तरह वह तीरकमान हाथ में ले तीर संधान करने लगा
व उसकी इस शस्त्रविद्या में पुरानी सिद्धहस्तता के कारण तीर ठीक निशाने पर
लगा।इससे तीरंदाजी में फिर से उसका पुराना शौक जाग्रित हो गया।
अब वह नियमित अभ्यास करने लगा और शिकार के प्रति
पुराने रोमांच जागृत हो जाने से कुछ ही दिनों में वह फिर से पूरा शिकारी बन गया।
उसकी सारी तपस्या,साधना व भजन-बंदगी अब छूट गयी और
अब वह दिनभर शिकार के पीछे इधर-उधर भागता रहता था।
सो इस तरह के होते हैं मन के धोखे।जरा सा इसे
ढीला छोड़ा कि झट से बुरी आदतें अपना लेता हैं।
तभी तो महान संत दादू ने कहा है -जेती लहर समंद
की, तेतें लहर मनोरथ माहिं।
मन के तर्क बड़े रसीले होते हैं।
ReplyDeleteसन्यास और विरक्ति, जंगल में सध जाती है, लेकिन समाज में साध ले वही सच्चा साधु.
ReplyDeleteswami devendranand ki jai
ReplyDeleteजीवन में ध्यान का बहुत महत्व है.
ReplyDeleteयदि ऋषि का ध्यान भी विषयों की ओर हो जाये
तो पतन की पूर्ण सम्भावना हो जाती है.इसीलिए तो
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है 'ध्यायतो विषयान्पुंसः
संगस्तेषूपजायते'.बार बार जिस वस्तु का ध्यान किया
जाता है उससे संग यानि आसक्ति हो जाती.आसक्ति
ही कामना को जन्म देती है.और फिर कामना ही अंतत:
पतन कराने में कारण बनती है.
आपकी सुन्दर शिक्षाप्रद कहानी गीता के उपरोक्त आशय को
प्रकट करती है.प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार,देवेन्द्र जी.
अच्छी प्रेरक कथा है।
ReplyDeleteव्यक्ति के पूर्व के संस्कार भी उसकी वर्तमान जीवन-धारा को प्रभावित करते हैं. शायद ऋषि के साथ ऐसा ही हुआ हो. मूलतः तो वे शिकारी ही थे. अतः मूल प्रश्न वृत्तियों के परिमार्जन का है. इसमें सफलता मिली तो एक दस्यु वाल्मीकि बन गया. लौकिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए भी राजा जनक ऋषि कहलाए. इन दोनों ही नहीं ऐसे बाहुतेरों को पीछे नहीं लौटना पड़ा क्योंकि ये सभी चाहे जिस भी क्षेत्र से रहे, अपनी-अपनी वृत्तियों के परिमार्जन में सफल रहे थे.
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