वैसे तो मुझे टेलीविजन देखने में कुछ विशेष दिलचस्पी नहीं, खासतौर पर सुबह के समय तो कतई नहीं, सिवाय कि यदा-कदा लाइव क्रिकेट मैच के ।सो आज सुबह भारत-आस्ट्रेलिया
टेस्टमैच का स्कोर जानने की उत्सुकतावश (हालॉकि आजकल स्कोर जानने में भी दिल धड़कता
है कि पता नहीं ताश के पत्ते की तरह अपनी टीम के कितने विकेट लुढ़क चुके होंगे।) टीवी चालू किया तो दिल्ली दूरदूरदर्शन पर 'आज-सवेरे' प्रोग्राम आ रहा था,जिसमें सद्गुरु श्री जग्गी वासुदेव जी ,
प्रसिद्ध
भारतीय दार्शनिक,चिंतक व आध्यात्मिक गुरु, के साथ वार्तालाप कार्यक्रम आ रहा था।
हालाँकि इस प्रोग्राम का अधिकांश भाग
मेरे टीवी चालू करने के पूर्व ही बीत चुका था, किंतु
जो भी आंशिक बातचीत मैं सुन पाया वह बड़ी ही रोचक,प्रभावशाली व चिंतनदायक थी।
सद्गुरु हमारी शिक्षा व उसके तौर-तरीके
पर चर्चा कर रहे थे। उनका विचार था कि शिक्षा का एकायामी या सीमित-आयामी होना
हमारे ज्ञान व इसके विकास को सीमित करता हैं। जब शिक्षा का उद्देश्य मात्र नौकरी
की प्राप्ति हो और नौकरी व रोजगार के अवसर सीमित हों, तो यह शिक्षा व उससे उपलब्ध
हुये ज्ञान को भी एकांगी और सीमित आयामी बनाता है।
वर्तमान में सुखद स्थिति यह बन रही है
कि अब देश में रोजगार व कार्यक्षेत्र के
बढ़ते व विस्तृत होते अवसर के कारण हमारा शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण विस्तृत हो
रहा है।अब विज्ञान व गणित के साथ-साथ मानवीय विषयों- जैसे राजनीति,विधि,सामाजिक
शास्त्र,दर्शन शास्त्र , वाणिज्य इत्यादि विषयों में भी हमारे नयी पीढ़ी की
अभिरुचि जागृत हो व बढ़ रही है, जो कि शिक्षा व ज्ञान के बहुआयामी विकास हेतु सुखद
संकेत है।
सद्गुरु ने दूसरे महत्वपूर्ण विषय - आवश्यकता व लालसा (Need and Greed) पर चर्चा की।उनका विचार था कि वर्तमान
वैश्विक-व्यवस्था अर्थशास्त्र द्वारा चालित है और चूँकि आपसी लेनदेन(Transaction) व विकास (विकास (Growth) लालसा का ही एक
मर्यादित नाम है) अर्थशास्त्र के मुख्य
आधार हैं, इसलिये वर्तमान विश्व में बढ़ रही गलाकाट व तीव्र स्वार्थपरता व
लालसाप्रवृत्ति का होना स्वाभाविक ही है।
हालाँकि उनका मानना है कि यदि अपनी आमदनी
के अनुसार लोग स्वेच्छा व ईमानदारी से व कानून के अनुरूप कर का भुगतान करते हैं, लोगों
द्वारा किसी अन्य व्यावसायिक तरीके से की जा रही अर्जित अतिरिक्त आमदनी का सरकार
नियमानुकूल आकलन करने व उसका उचित अंश राजकोश में जमा करने में सक्षम है व राजकोश
में आयी इस कर व वसूली के धन का न्याय व समतागत तरीके से आम जनता व जनजीवन के
जीवनस्तर को उन्नत करने व उनके कल्याणकार्य में निवेश करती है, तो इस अर्थशास्त्र
आधारित विश्व-व्यवस्था में कोई अनुचित बात नहीं दिखती।
उनकी चर्चा का तीसरा महत्वपूर्ण विषय
था हमारे प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध तरीके से दोहन व उनका विनाश , और इसके
कारण सम्पूर्ण मानवजाति के अस्तित्व पर ही संभावित संकट । चूँकि हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली व हमारा जीवन
व्यवहार का ज्ञान व दर्शन आधुनिक विज्ञान पर आधारित है, जिसका मूल आधार तर्क (logic) व वस्तुओं व साधनों का अधिकतम दोहन है, इसलिये हमारे आधुनिक विज्ञान व तकनीकी
के विकाश ने प्रकृति व प्राकृतिक संसाधनों का अतिरेक दोहन व विनाश किया है।
इस दोहन व विनाश का सबसे ज्यादा
कुप्रभाव हमारे जलसंसाधनों को हुआ है, जो तेजी
से सिकुड़ते व समाप्ति की कगार पर है । आज तो हम बोतल में पानी सिर्फ पी भर
रहे हैं,पर वह दिन दूर नहीं कि हमें नहाने व अपने अन्य दैनिक जरूरतों
के लिये भी बोतल में ही सीमित मात्रा में जल का इस्तेमाल करना पड़े।
आँकड़ों के अनुसार 1947 में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता का
स्तर पिछले 65 वर्ष में घटकर उसका 25% रह गया है,और अनुमान के अनुसार 2025 तक
यह स्तर घटकर 10% तक पहुँच सकता है।यह आनेवाले समय में
जल के गम्भीर व संकटपूर्ण स्थिति की ओर इंगित करता है।
अपने वार्तालाप के अंत में उन्होने इस
महत्वपूर्ण विषय की चर्चा की कि भारतवर्ष
प्राचीन काल व परंपरागत रूप से मौलिक व आध्यात्मिक ज्ञान का केंद्र रहा है।यह
ज्ञान किसी धर्म या मान्यता पर आधारित नहीं है,अपितु
यह मनुजता व मनुष्य के आध्यात्मिक संरचना व उसके कल्याण व निर्वाण की अभूतपूर्व
व्याख्या व चिंतन पर आधारित है।
हालाँकि हमारे वैदिक आदिग्रंथ व
ऐतिहासिक ज्ञान भाषागत व प्रतीकात्मक हैं,जिसके
कारण उनमें वस्तुनिष्ठता व तार्कितता का अभाव है और यही कारण है कि हमारे सभी
परंपरागत ज्ञानसंग्रह वर्तमान वैज्ञानिक ज्ञानधारा से विसंगत व विपरीत प्रतीत होते
हैं, किंतु यदि गहराई से इन्हें समझने का
प्रयाश करें तो यह स्पष्ट होता है कि हमारे ये ज्ञानधरोहर, विशेषतौर पर हमारा
वैदिक ज्ञान, अद्भुत व बड़े ही स्पष्ट रूप से इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड की पूर्णतामयी
व्याख्या करने व इसके गूढ़ रहस्य को समझाने में सर्व-सक्षम है। उदाहरणार्थ- ऋगवेद
में प्रकाश की गति की गणना इतनी शुद्धता के साथ बतायी व सिद्ध की गयी है, जितनी
आधुनिक विज्ञान की गणनाओं से भी संभव नहीं है।
जैसा कि प्राय: अज्ञानवश हमारे वैदिक ज्ञान व चिंतन को एक धर्म विशेष से
जोड़कर व इसे स्वर्ग की प्राप्ति या ईश्वर के सानिध्य मात्र का साधन समझकर इसे एक
रूढ़िवादी ,ढकोसलावादी, अवैज्ञानिक व काल्पनिक कथा मात्र समझकर इसकी उपेक्षा व इसे
गौड़ सिद्द करने का प्रयाश किया जाता है , किंतु यह सर्वथा अनुचित व
दुर्भाग्यपूर्ण है।हमारा पुरातन ज्ञान तो हमें और सम्पूर्ण मानवता को सभी प्रकार
के भव,भय और भुक्तियों से मुक्ति का मार्ग दिखाता है।
न स्वर्गं न च देवभक्तिं।प्राप्तये
केवलं ही मुक्तिं।
भला इससे कल्याणमयी ज्ञान व विचार क्या
हो सकता है ?
सकल विश्व के सुख की कल्पना और उसके हेतु प्रस्तुत उपायों की श्रंखला किसी पहुँची हुयी सभ्यता का हस्ताक्षर है..
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