कुछ दिनों
पूर्व टाइम्स ऑफ इंडिया के नियमित ऑर्टकिल The Speaking Tree में स्वामी सुखबोधानंद जी का एक विचार पढ़ा ।मेरी स्वामी
सुखबोधानंद जी के बारे में इतनी व अल्प ही
जानकारी है कि वे दक्षिण भारत के प्रसिद्ध मनस्वी ,योगी , विचारक व प्रवचक हैं।टेलीवीजन
पर कभी-कभी उनका भगवतगीता व कर्मयोग पर प्रवचन व विचार सुनता हूँ तो मन व हृदय को
अति प्रिय लगता है व शांति की अनुभूति होती है।
ऑर्टकिल में
स्वामी जी ने Boredom व indifference विषय पर चर्चा की है। स्वामी जी का विचार
है कि हममें से प्रत्येक स्वयं को महत्वपूर्ण व अपरिहार्य समझता है,और इसकी अनुपस्थिति में हमें अपने कार्यपरिवेश के प्रति
उदासीनता उत्पन्न होने लगती है। ऐसे में किसी और को मिलते ज्यादा महत्व व तवज्जो
को देख मन में भारी डाह व ईर्ष्या उत्पन्न होती है, जिससे मन व हृदय में घोर अवसाद
व अपने परिवेश के प्रति नकारात्मक विचार उत्पन्न होने लगते हैं।
स्वामीजी का कथन है कि हमारे जीवन
में जो भी अवसाद या दुःख हैं, उनके कारण हमारे दैनिक जीवन की छोटी-मोटी
परेशानियाँ, दूसरों का हमारे लिये खराब व्यवहार या हमारी खराब किस्मत जैसे वाह्य कारकों
में नहीं होते, बल्कि हमारे अवसाद का कारण हमारे अपने ही अंदर- हमारा स्वयं का रवैया,
मनोदृष्टि होता है। जब हमारी सोच सकारात्मक होती है, जब हम ऐसा सोचते हैं कि- हम
यह काम कर सकते हैं,हमारे अंदर इस काम को करने का पूरा कौशल है, हम यह काम दूसरे
से अच्छा कर सकते हैं , तो हमारी ऐसी सोच से हमारे शरीर व मन में नवीन उर्जा का
संचार होता है।हमारे आत्म-उत्साह के कारण हमारे द्वारा सकारात्मक ऊर्जा का
वाह्यसंचार होता है,उससे हमारे परिवेश, आसपास के लोगों में भी उत्साह व सकारात्मक
ऊर्जा का संचार होता है।
स्वामीजी कहते हैं कि हमारे शरीर के
परिवेश में बनने वाले प्रभावीमंडल के निर्माण हेतु तीन प्रधान कारक होते हैं-
शरीर,मन और शरीर व मन से निरंतर निर्गत हो रही ऊर्जा-तरंगें अथवा कंपन।जब हम महान
पुरुषों के मुखमंडल के चारों और प्रभामंडल या आभा की बात करते हैं, तो यह आभा उस
महापुरुष के शरीर व मन से निकलती प्रकाश व ऊर्जा तरंगें ही होती हैं।
इस संदर्भ में स्वामी जी ने अपनी चर्चा में दो बड़े ही सटीक
घटनाओं की चर्चा की है ।
उन्होने प्रथम जिस घटना की चर्चा की
है, वह एक ज़ेन कथा से है।कथा के अनुसार एक संत थे जिन्हें आत्मज्ञान प्राप्त था व
उन्हें इस जीवन व संसार के प्रति बौद्ध अवस्था प्राप्त हो गयी थी।वे( संत)
प्रतिदिन समुद्र के सामने बैठकर योगध्यान करते व समाधिस्थ हो जाते।इन क्षणों में
सीगल पक्षी उनके आस-पास निर्भीक होकर उड़ते और क्रीड़ा करते।कभी-कभी तो ये पक्षी
संत के कंधों पर भी बेफिक्र बैठ जाते।
एक दिन हमेशा की ही तरह संत समुद्रतट
पर साधना हेतु गये।उसी समय वहाँ एक छोटा बालक खेलते-खेलते उनके पास आया और अनुरोध किया- ये पक्षी कितने निर्भीक
होकर आपके समीप आते हैं व खेलते हैं ।य़े कितने सुंदर व कोमल हैं। क्या आप एक सीगल
पक्षी पकड़ सकते हैं व मुझे दे सकते हैं।
संत बालक के इस प्रेमपूर्ण छोटे से आग्रह
को टाल न सके व बच्चे को एक सीगल पक्षी भेंट करने को राज़ी हो गये।किंतु दूसरे दिन जब वे समाधिस्थ हो समुद्र किनारे बैठे
तो सीगल पक्षी संत के सिर के काफी ऊपर मंडराते उड़ रहे थे, किंतु कोई भी पक्षी संत
के इतने समीप नहीं आया कि वे उन्हें पकड़ सकें।
इस तरह पक्षी संत के मन में चल रहे
विचारों व मंशा को उनके मन तरंगों की ऊर्जा से महसूस कर लिये , इसीलिये अपने प्रति
खतरे को भाँप संत के नजदीक नहीं आये। इस तरह हमारी सोच व अंतर्विचारों की
तरंगऊर्जा से हमारे आसपास लोग संपर्क में आते हैं व उनसे प्रभावित होते हैं,और उसी
के अनुरूप वे हमारे प्रति प्रतिक्रिया व व्यवहार करते हैं। इसलिये य़ह आवश्यक है कि
हम अपने परिवेश में अच्छे व सकारात्मक तरंग-ऊर्जा बनाकर रखें।
स्वामी जी ने दूसरी जिस घटना की
चर्चा की है वह उनके एक परिचित धनी उद्योगपति की है जिसने अपने परिवार- पत्नी व
बच्चों को सभी आधुनिक सुखसुविधायें व ढेर सारा रुपया-पैसा उपलब्ध कर रखा था, ताकि
उन्हें कभी किसी प्रकार की परेशानी या तकलीफ न हो। किंतु उस उद्योगपति की पत्नी
स्वामी जी से यह प्रायः शिकायत करती कि- उसके पति के पास उसके व उसके बच्चों के
लिये कोई समय ही नहीं,यहाँ तक कि कभी वे बच्चों से एक बार उनके पढ़ाई के बारे में
भी नहीं पूछते। इस तरह यदि उस उद्योगपति के परिवार की बात कहें तो उन्हें
सुख-सुविधा या धन से ज्यादा अपेक्षा थी कि वे उनके साथ कुछ वक्त बिताते व अपनापन
देते, यह उन्हें ज्यादा संतुष्टि व सुख प्रदान करता।
स्वामी जी ने अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही है कि हम कितने ही उत्साहपूर्ण व सकारात्मक दृष्टिकोण से भरे हों, व इसी तरह अपने आसपास के लोगों, सहकर्मियों को प्रेरित करते रहें, किंतु छोटी-मोटी असफलतायें ही हमारे सारे उत्साह पर पानी फेर देती हैं और प्रायः हमें अवसाद ग्रस्त कर देती हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम तत्काल की असफलता को मात्र स्थगित सफलता ही समझें, क्योंकि प्रायः हमारी असफलताओं में ही हमारी सफलताओं की उर्वराशक्ति व आधार होता है।
इसतरह अपने हर अनुभव को- चाहे वह
सफलता के हों अथवा असफलता के, एक अनूठा व नया अनुभव समझते हुये उससे कुछ सीखते
हुये बिल्कुल तनावरहित, आराम से रहें। इस लगातार सकारात्मक अनुभव से कभी भी हमें
अपना जीवन अथवा इसके किसी तरह के अनुभव से किसी तरह का अँधेरापन अथवा निराशा नहीं
होती। इस तरह जीवन का हर क्षण उत्सव और यह जीवन-यात्रा एक सुखद यात्रा बन जाती है।
बहुत ही सुन्दर शिक्षाप्रद और प्रेरक बातें प्रस्तुत की है आपने.
ReplyDeleteजीवन में इन्हें अपना लिया जाये तो जीवन सुखमय और
आनंदमय हो जाये.
बहुत बहुत आभार देवेन्द्र जी.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
धन्यवाद राकेशजी। अवश्य व पुनः आभार।
Deleteबहुत ही सुन्दर और आनन्ददायक विचारश्रंखला,
ReplyDeleteसुबह से गर्दन में मोच है, जिस क्षण दर्द नहीं रहता है, उत्सव सा लगता है।
कामना हे आपके गर्दन की मोच में तुरंत आराम हो क्योंकि यह हमारे रेल-ऑपरेशन के सुचारु रहने के लिये बहुत जरूरी है। आपकी हर मुस्कराहट उत्सव बिखेरती ही रहती है।
Deletebahut hi achchi post,katha bhi apne sandesh ko puri tarh mans patl par ankit kar gaee....bdhai itni umda post ke liye
ReplyDeleteshikshaprad aur prernadayak post hai tatha sabhi ko apne jeevan me atmsat karne yogya hai.
ReplyDeleteसकारात्मक दृष्टिकोण पर अच्छा चिंतन है। बहुत कुछ सीखने को मिला।
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