Saturday, January 14, 2012

बलवानं एव शोभते क्षमा......


यह भी एक अद्भुत तथ्य है कि दो विपरीत ध्रुव पर स्थित चीजें आश्चर्यजनक रूप से समानगुणधर्म प्रदर्शित करती हैं।उदाहरणार्थ- अल्पतरंगगति की प्रकाश किरणें, जिन्हें इन्फ्रारेड किरण कहते हैं, उच्चतरंगगति की प्रकाशकिरणें, जिन्हे अल्ट्रावायलट किरण कहते हैं, दोनों ही मानवदृष्टिक्षमता से परे होने का समान गुणधर्म रखती हैं।इसी तरह उच्चतरंगगति की ध्वनितरंगें और अल्पतरंगगति की ध्वनि तरंगों दोनों ही मानवश्रवणक्षमता से परे होने का समान गुणधर्म रखती हैं।

प्रकाश की शून्यता यानी अंधेरा व प्रकाश की अतिरेकता दोनों ही अदृश्यता की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं,ध्वनि की अनुपस्थिति अथवा ध्वनि की अतिरेकता दोनों ही सुनने की अमर्थता की समान परिस्थिति उत्पन्न करते हैं।

है न यह अद्भुत विरोधाभासी समतागुण कि एक निर्बल, कमजोर व असहाय है व दूसरा अतिरेक बलशाली व शक्तिसंपन्न किंतु दोनों ही अपने विरोधी व शत्रु के प्रति नि:प्रतिरोध व्यवहार का समान गुणधर्म दर्शाते हैं।एक के नि:प्रतिरोध का कारण है उसकी लाचारी व असहायता,इसलिये नहीं कि  वह प्रतिरोध करना ही नहीं चाहता, जबकि दूसरे के नि:प्रतिरोध का कारण है उसकी जागृत अंतर्चेतना कि उसके अतिरेक शक्ति से किया गया कोई भी प्रतिरोध उसके विरोधी हेतु महाविनाश व संहार का कारण बन सकता है।

इसीलिये शास्त्रों के मत से यदि कोई कमजोर व लाचार अपने विरोधी के प्रति हिंसक प्रतिरोध भी करता है तो यह पाप नहीं क्योंकि उसके नि:प्रतिरोध से भी उसको कोई लाभ या समाधान नहीं मिलने  वाला,जबकि जो अति बलशाली व शक्तिसंपन्न है उसका नाजायज हिंसक प्रतिरोध घोर पाप होता है।

महात्मा बुद्ध ने निर्वाणज्ञान की प्राप्ति हेतु अपने राजसिंहासन का ही त्याग कर दिया और भिक्षु बन गये,यह वास्तविक त्याग है,जबकि एक भिक्षुक द्वारा , जिसके पास त्याग करने को कुछ है ही नहीं, किसी त्याग करने की बात का भला क्या अर्थ है?

इसीलिये जब भी हम नि:प्रतिरोध,अहिंसा व प्रेम की बात करते हैं तो हमें पहले यह स्पष्ट समझ लेना चाहिये कि हमारे अंदर प्रतिरोध करने की पर्याप्त शक्ति और सामर्थ्य है भी या नहीं?यदि शक्तिसंपन्न व सामर्थ्यवान बनकर हम नि:प्रतिरोध,प्रेम,अहिंसा की बात करते हैं तो यह अवश्य हमें शोभा देता है व हमारी महानता में वृद्धि करता है,अन्यथा तो यह पाखंड व मिथ्याचार ही है।

कुरुक्षेत्र में शत्रुसेना के सन्मुख खड़े हो जब अर्जुन ने सामने खड़ी महारथियों से सजी अति बलशाली सेना देखी तो अपने परिजनों के प्रति उमड़ते प्रेम का पाखंड करते व अपने राजा के प्रति व अपना क्षात्र धर्म भूल अहिंसा व युद्ध न करने की बात करने लगे, तो श्रीकृष्ण ने उनकी कायरता पर उन्हे लताड़ते हुये कहा-

क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।।
अशोच्यानन्वशोचत्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:।।

अर्थात् हे अर्जुन ! कायरता की बात मत करो,यह तुम्हे शोभा नहीं देता। तू न शोक करने योग्य लोगों के लिये शोक करता है,और बड़े ज्ञानी पंडित की तरह बात करता है,किंतु जो जीवित हैं अथवा जो जीवित नहीं है,ज्ञानीजन किसी के लिये शोक नहीं करते।इसलिये हे परंतप! अपने हृदय की दुर्बलता छोड़ युद्ध के लिये खड़े हो जा।

यही वास्तविक कर्मयोग है कि हमसर्वशक्ति सम्पन्न बनकर,सबकुछ धारण कर भी अहिंसा धर्म व प्रेम का आचरण करें,शक्तिसम्पन्न व सामर्थ्यवान होकर भी नि:प्रतिरोध व अहिंसा का पालन ही वास्तविक शक्तिसम्पन्नता होती है।किंतु इस आदर्श व शक्ति के शिखर की स्थिति पर पहुँचने के पूर्व हमें पूरी शक्ति के साथ निरंतर श्रम,संघर्ष व विरोधी पर सीधे प्रहार करने की आवश्यकता होती है कि जब तक हमें पूर्ण सामर्थ्य व अपने विरोधी शक्तियों पर विजय न प्राप्त हो जाय।

इसतरह सर्वशक्तिसंपन्न व समर्थवान बनकर ही हमें अहिंसा व प्रेम एक सद्गुण की तरह शोभा देता है।इसलिये निष्कृयता का सदैव त्याग होना चाहिये। सकृयता का प्राय: अर्थ होता है संघर्ष व प्रतिरोध-सभी मानसिक व शारीरिक दुर्गुणों व दोषों का निरंतर प्रतिरोध और इन प्रतिरोधों द्वारा सभी दोषों के दमन की सफलता के उपरांत ही शांति व संतोष स्थापित होता है।

इस तरह प्रथम इस संसार व सांसारिकता के महासमुद्र को सफलतापूर्वक तैर कर पार करना होता है, तत्पश्चात् ही इसके त्याग व संतोष की सार्थक उपलब्धि संभव है,अन्यथा बिना इस संसार का विजय किये ही इसके त्याग,नि:प्रतिरोध,शांति व समर्पण की बात मात्र मिथ्याचार व निस्फल है।

हालाँकि त्याग व शांति के यह सद्विचारपूर्ण ज्ञान हजारों वर्षों से हमें उपलब्ध हैं, किंतु कुछ विरले महानपुरुष ही इस परम स्थिति को सिद्ध कर पाये हैं।     

3 comments:

  1. हालाँकि त्याग व शांति के यह सद्विचारपूर्ण ज्ञान हजारों वर्षों से हमें उपलब्ध हैं, किंतु कुछ विरले महानपुरुष ही इस परम स्थिति को सिद्ध कर पाये हैं। ..ये पंक्तियाँ सम्पूर्ण लेख का सार संक्षेप में बता गयी ....इतनी ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए शुक्रिया......

    ReplyDelete
  2. साम्य स्थित होने के पहले द्वन्द्व की कितनी ही प्रक्रियाओं से होकर जाना पड़ता है।

    ReplyDelete
  3. वैज्ञानिक तथ्यों से आपने सांसारिकता का सुंदर विष्लेषण कर दिया है. चीजों को देखने का आपका नजरिया क्या उसके गुणधर्म इस बात से भी निर्धारित हो जाते है फिर वह चाहें गलत ही क्यों न हो.

    ReplyDelete