देश निश्चय ही खूब तरक्की कर रहा है, तमाम अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक अनिश्चितताओं व उथल-पुथल के बावजूद पिछले
दशक में इसने उल्लेखनीय आर्थिक प्रगति की है। दैनिक उपभोग की आमवस्तुओं व
सुविधाओं की गुणवत्ता व उपलब्धता दोनों में
चमत्कारिक सुधार हुआ है।मोबाइल फोन,इंटरनेट,लेटेस्ट डिजाइन बाइक, मोटरकार से लेकर लेटेस्ट फैशन गार्मेंट्स या पिजा और केंटुकी फ्राइड
चिकेन सबकुछ आज सहजता से शहर के आम नुक्कड़ व चौराहे पर उपलब्ध है।फिर हमारी
युवापीढ़ी क्यों न अपना दैनिक जीवन इन सुविधाओं के बीच आनंद व उत्सव से मनाये और 'ऑल इज वेल ,भैया ऑल इज वेल' का गाना गाते डांसपोडियम पर थिरके ।
इस लगातार जारी उल्लेखनीय आर्थिक विकास
दर के बूते यदि भारत के भविष्यद्रष्टा यह स्वप्न देखने व खम ठोककर दुनिया को बताने
की कोशिश करते हैं कि यह शताब्दी भारत की है व कुछ ही दशकों मैं ही भारत विश्व का
सुपरपावर होगा, तो इसमें किसी को आश्चर्य व अतिशयोक्ति
नहीं लगनी चाहिये।

जी यह रिपोर्ट है International Food Policy Research
Institute की, जो हाल ही में किये गये अंतर्राष्ट्रीय
सर्वेक्षण पर आधारित है।इसके अनुसार भारत कुपोषण,शिशुमृत्यु दर में विश्व के सबसे खराब अस्सी देशों में सड़सठवें नम्बर
पर है। विश्व के 82 करोड़ भूखी आबादी का एक चौथाई से ज्यादा हिस्सा
हमारे देश में निवास करता है,और
सबसे चिंताजनक बात तो यह है कि,जैसा
आँकड़े बता रहे हैं, इसमें कोई सुधार होने के बजाय, यह बुरी स्थिति दिन पर दिन बदतर हो रही
है।
संस्थान के सर्वेक्षण आँकड़े बताते हैं
कि विश्व भुखमरी सूचकांक (Global
Hunger Index) के
आधार पर भारत की स्थिति पड़ोसी देशों पाकिस्तान,नेपाल
व बांग्लादेश और यहाँ तक कि विश्व में मानव
विकास में अति पिछड़े अन्य देशों जैसे सूडान व उत्तर कोरिया से भी बदतर है।भारत की
बेहतर स्थिति केवल कांगो,चाड,इथियोपिया या बुरुंडी जैसे कुछ देशों से ही है, जिसके आधार पर स्वयं को कतई दिलासा
देना हास्यास्पद होगा।
संयोगवश कुछ दिन पूर्व मेरे मित्र श्रीप्रवीण पांडेय जी से कुछ इसी तरह के विषय पर हमारी आपसी चर्चा में उन्होने एक बड़ी
तथ्यपूर्ण बात कही कि-'अंग्रेजों द्वारा लगभग तीन सौ वर्ष पहले भारत के कोलोनाइजेसन के
पूर्व चाहे इस देश में जो भी औद्योगिक पिछड़ापन रहा हो किंतु यहाँ कोई भूख से नहीं मरता था,सबको भोजन के लिये अन्न अवश्य मिल जाता
था।
वैसे कुछ तर्क व तथ्य इसके विरुद्ध
दिये जा सकते हैं कि तब जब भी अकाल या सूखा पड़ता तो देश के उस क्षेत्र के हजारों
लाखों लोग अन्न के अभाव में मर जाते थे, और आज कम से कम समय-समय पर देश में होने वाले
इन भयंकर अकालों पर नियंत्रण हुआ है।
किंतु हमें समझना चाहिये कि उन दिनों
अन्न को एक स्थान से दूसरे स्थान,एक
राज्य से दूसरे राज्य में ले जाने के परिवहन व लाजिस्टिक सुविधायें सीमित व
बाधापूर्ण थीं,वरना सामान्य स्थिति में आम आदमी को
अपनी क्षुधापूर्ति हेतु दो मुट्ठी अन्न की उपलब्धता सहजता से हो जाती थी, कम से कम कोई अन्न के अभाव में भूखा नहीं
मरता था। यह कोई भावनात्मक दलील नहीं अपितु ऐतिहासिक साक्ष्यों व तथ्यों पर आधारित
है।
आज तो परिवहन व वितरण के कितने आधुनिक संसाधन व प्रणाली उपलब्ध हैं, फिर भी हमारे देश की चौथाई आबादी भूखे
पेट रहती है,इससे बड़ी चिंताजनक व शर्म की बात हमारे
लिये क्या हो सकती है।
जब हम अपनी समस्यायों के आइने के सामने
खड़े होते हैं तो इनकी समीक्षा में अनेक तर्क-कुतर्क भी शुरू हो जाते हैं जैसे- देश की बढ़ती और भारी
आबादी,सरकारी तंत्र व अन्न वितरण योजनाओं की
जनसमस्याओं के समाधान में भारी अक्षमता व इनके अनुपालन व शासनतंत्र में व्याप्त
घोर भ्रष्टाचार,आमनागरिकों की जनसुविधाओं व जनयोजनाओं
के प्रति उदासीनता व असहयोग इत्यादि।
मैं इस वर्तमान चिंताजनक स्थिति के अंतर्निहित
कारणों पर टिप्पड़ी या समीक्षा करने की कोई योग्यता तो नहीं रखता और मेरा मानना है कि इन जटिल
समस्याओं के कारण व कारक भी कई व अति जटिल होते हैं,अत: इनका कोई कारण विशेष बताना,किसी
एक को दोषी ठहराना और इसी तरह इन समस्याओं का कोई एकांगी विशेष समाधान सुझाना
सर्वथा अनुचित व अन्यायसंगत है।
किंतु
इस रिपोर्ट द्वारा दी गयी हमारे देश की इस
निराशा व चिंताजनक स्थिति की जानकारी से मन दु:खी व द्रवित हो जाता है,और मन में यह प्रश्न बार-बार उमड़ता है –कि ' इज ऑल वेल ? इज आल रियली वेल ? '
एक तरफ अधिकता और दूसरी ओर कमी देख कर निश्चय दुःख होता है. एक तरफ अनाज गोदामों में सड जाता है, दूसरी ओर भुकमरी और कुपोषण से मौत होती रहती हैं. इस सब के होते हुए कुछ वर्ग के विकास को देश का विकास नहीं कह सकते...बहुत सार्थक आलेख...आभार
ReplyDeleteधन्यवाद सर।
Deleteकिसी भी देश के सभी लोगों का विकास ही उसको विकसित देश की श्रेणी में ला सकता है. इस तरह की सामाजिक असमानताएं समाज में कई तरह की विसंगतियों को जन्म देंगे. विकास हो और सभी का विकास हो ऐसी कामना सबको करनी चाहिये और इसके लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये.
ReplyDeleteटिप्पड़ी के लिये आभार रचना जी।
Deleteदिल दहल जाता है यह सब देख कर, अन्नपूर्णा धरती पर कोई जब भुखमरी से मरकर गिरता होगा, धरती का हृदय चीत्कार कर उठता होगा।
ReplyDeleteजी प्रवीण जी, है तो बड़ी वेदनापूर्ण स्थिति।
Deleteजाने कैसे भुना रहे हैं
ReplyDeleteएक रुपैय्या तीन अठन्नी
पैर पकड़ कर हाथ मांगते
अब भी अपनी एक चवन्नी
मुठ्ठी वाले हाथ सभी ना जाने कहाँ गये!
क्या बतलाएँ बापू तुमको दाने कहाँ गये!
समाज का सामुदायिक ढांचे पर भरोसा कम हो रहा है शायद.
ReplyDelete