स्वयं
के अनुभव पर विचार करता हूँ तो दिखता है कि बालपन और स्कूल तक हर छोटे-मोटे
खेलकूद- दौड़,फुटवाल,क्रिकेट, कबड्डी,पतंगबाजी इत्यादि खेलों में बेझिझक व जोर-शोर से हिस्सा लेता
था। सांस्कृतिक कार्यक्रम- नृत्य,गान,स्टेज नाटक,
वादविवाद,भाषणबाजी में भी बड़े उत्साह से भाग
लेता था।
हर
खेलकूद या प्रतियोगिता में प्राय: हारता
ही था, किंतु इससे कतई मनोबल गिरना अथवा पुन:
भागीदारी का उत्साह कम नहीं होता था।शायद इसका मुख्य कारण था कि खेल में हारजीत से
ज्यादा महत्वपूर्ण होता था इसमें भागीदारी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि दूसरे
मुझसे अच्छा खेलते हैं,मुझसे हर बार जीत जाते हैं, मैं जब भी उनके साथ खेलने का आग्रह
करता हूँ वे मुझे उस खेल में कमजोर व फिसड्डी समझते हैं व मेरा मजाक उड़ाते हैं, बस खेल में भाग लेने का मौका मिल गया
इसी में प्रफुल्लित व आनंदित हो जाते थे।
जैसे
जैसे बड़े होते गये, और अब प्रौढ़ता को प्राप्त हो गये, और मन में हारने-जीतने, पाने-खोने,आदर-तिरस्कार,मान-अपमान का भाव व अपेक्षा बढ़ती व दृढ़
होती गयी, वह बचपन का हर खेल में मात्र भाग लेने की सहजता क्षीणप्राय
होती गयी, और हर चीज में बालसुलभ उत्साह का स्थान
झिझक,संकोच,औपचारिकता व हार-जीत की आशंका ने ले लिया।
अब
अवसर मिलने पर भी किसी खेल में भाग लेने,नृत्य
करने,गाना गाने,बोलने में झिझक होती है,मन में संदेह आ जाता है कि खेल में हार
न जाऊँ, मेरे खराब नृत्य पर लोग मेरा उपहास
करेंगे,मेरे अच्छा न गाने अथवा बोलने पर मेरा
मजाक बनायेंगे,मेरे ऊपर हँसेगें। बस यही सब सोचकर हमसब जीवन में हर खेल
व उत्सव से अलग-थलग व एकांगी हो जाते हैं,जीवन
के आनंदोत्सव से क्रमश: वंचित होने लगते हैं,नतीजन
हमारा जीवन नीरस व अवसादमय होने लगता है।
अगर
सूक्ष्मता से अध्ययन करें तो इसका कारण हमारा उम्र के साथ बढ़ता अहंभाव (Ego) है।हमारे अहंभाव को निरंतर मिथ्या दंभ के पोषण की आवश्यकता होती
है,इसकी तुष्टि हेतु हमें हमेशा दूसरों से प्रशंसा पाने की,वह भले ही झूठी हो, आवश्यकता
होती है, जिससे मन में सदा स्वयं के विजयी
होने और श्रेष्ठता का भाव बना रहे।
अपनी
अहं की ही तुष्टि के लिये हम अपने जीवन को एक दौड़ अथवा मैराथन प्रतियोगिता की तरह
दौड़ते रहते हैं और इसलिये हमें हमेशा जीतने की लालसा व हारने की आशंका बनी रहती
है। हमारी सारी ऊर्जा इसी सोच में छीजती रहती है कि कहीं हम किसी से पिछड़ न
जायें। जब भी कोई हमें पिछाड़ देता है तो हमें बहुत चोट पहुँचती है और जब हम जीतते
हैं और प्रथम आते हैं तो हमारी खुशी का ठिकाना ही नहीं होता।
स्पर्धा से महत्वपूर्ण है भागीदारी |
इस तरह
इस जीवन-स्टेज के मात्र एक पात्र व भागीदार होने से इसकी लिखी स्कृप्ट व इसकी
निर्धारित भूमिका निभाने में न तो कोई दु:ख होता है और न तो अति उल्लास ही। हमें
समझना होगा कि अहंभाव आधारित जीवन सदैव एक मिथ्या पहचान पर निर्भर होता है। अपनी
सच्ची पहचान अपने अंदर का अहंभाव त्याग करने व इस जीवन स्टेज के मात्र एक पात्र
होने की सोच उत्पन्न होने से ही आती है। हमारी जो भी निर्धारित भूमिका है बस उसके
साथ न्याय करना है, उसे अच्छे से निभाना है। इस तरह अपनी भूमिका के पूरा होने के पश्चात्
इस स्टेज को एक दिन छोड़ने की कोई भी दुश्चिंता समाप्त हो जाती है, और हमारा यहाँ से एक दिन सुनिश्चित
प्रस्थान भी गरिमापूर्ण होता है।
Uttam Vichaar...
ReplyDeleteजीत नहीं पाये तो क्या, जूझना तो सीख ही लिया।
ReplyDeleteकेवल प्रथम आने के लिए ही दौड़नेवाले कभी प्रथम नहीं आते।
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