Thursday, March 29, 2012

हवाओं मोड़ लो रुख अपना .............



भीगती रेत के दानों की तरह अहसास मेरे,
कुछ नम से, कुछ अंदर की अगन प्यास भरे,
मेरे जलते हुये वजूद से उठती हुई लौ को ,
यदि वे रोशन चिराग कहते हैं तो उन्हे कहने दो।
हवाओं मोड़ लो रुख़ अपना कि तनहा मुझे रहने दो।1।

मैंने कब ख्वाइश की कि मुझे कायनात मिले,
उनकी आँखों की चमक में ही मेरे फूल खिलें,
जो उन्हें हकीकत के जहाँ में अब पा न सकूँ,
तो उनके ख्वाबों में ही मुझे चंद घड़ी जी  लेने दो।
हवाओं मोड़ लो रुख अपना कि तनहा मुझे रहने दो।2।

मेरे ही गीत जो हरपल यूँ गुनगुनाते थे,
मेरी हर साँस के संग जो मेरे दिल में उतर जाते थे,
उनके मुख मोड़ने से दिल जो है इक खाली बरतन,
उसमें अब गम औ मेरी आखों की नमी भरने दो।
हवाओं मोड़ लो रुख अपना कि तनहा मुझे रहने दो।3।

आज मेरे गीत का हर लफ्ज उन्हे शोर लगे,
मेरी हर साँस औ आहट में कोई गैर दिखे,
मेरी मुहब्बत मेरी वफ़ा का उन्हे यकीन न रहा,
मुझे समझे हैं बेवफ़ा  तो यही सही, समझने दो।
हवाओं मोड़ लो रुख अपना कि तनहा मुझे रहने दो।4।

2 comments:

  1. वाह ! ! ! ! ! बहुत खूब देवेन्द्र जी,....
    सुंदर रचना,बेहतरीन भाव प्रस्तुति,....

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  2. वाह, पर इतनी तनहाई भी मत रखिये, तनहाई भी साथ मत रखिये।

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