Wednesday, September 21, 2011

-साहब! कुर्सी को सिर पर मत चढ़ने दें.......



नौकरशाही मायने कुर्सी।ये कुर्सी ही अधिकार,रुतबा,धाक और नाम-शोहरत देती है।पर उस कुर्सी पर बैठने वाला तो इंसान ही होता है,और इंसान की भी अजीब फितरत  है,कब कौन सा भ्रम अपने सिर चढ़ा लेगा उसको खुद ही होश नहीं।पता नहीं कब वह कुर्सी को भी सिर पर चढ़ा लेता है।

वह घर में पिता के रूप में,पति के रूप में सोचता है कि बस वही अपने परिवार का  भाग्यविधाता है, वह यदि  नहीं रहा तो परिवार पर प्रलय जायेगी,दफ्तर में सोचता है बस उसी के वजह से दफ्तर चल रहा है, अगर एक दिन भी नहीं रहा तो उसके रहने से तो बस कयामत ही जायेगी, दफ्तर बंद हो जायेगा।

कितना आग्रह, कितना हठ, कितनी आतुरता। उसको पता भी नहीं कि यह सब मात्र उसका भ्रम है,उसके रहने से किसी को कुछ भी और कोई भी फर्क नहीं पड़ता, क्या घर क्या दफ्तर, कहीं कुछ भी फर्क नहीं पड़ता उसके रहने अथवा जाने के बाद।

पर करे भी क्या, कुर्सी है ही ऐसी माया, डाल ही देती है इंसान को भ्रम में। कुर्सी के रुतबे के कारण लोग इंसान के आगे-पीछे घूमते हैं,हुकुम-तलब करते रहते हैं, हाँ में हाँ मिलाते हैं, बात-बात में वाहवाही जयगान करते हैं, घटिया से घटिया चुटकुले पर भी जोर से ठहाका लगाते हैं,पर उसको लगता है कि अरे वाह मैं तो अव्वल हूँ, बहुत काबिल हूँ, अकलमंद हूँ, तभी तो सभी कितनी मेरी धाक मानते हैं,मेंरी कितनी इज्जत करते हैं , गोया वह अपने को श्रेष्ठतर, विशेष योग्यता अधिकार युक्त समझने लगता है-

हाँलाँकि पढ़ा लिखा व दुनियादारी का बेहतर जानकार होने के नाते वह बातें तो जरूर करता है कि- all the animals are equal लेकिन अंदर से इसी ठसके में रहता है कि- some animals are more equal than others.

लेकिन यह क्या, एक दिन ,रिटायर होने के बाद, और जब कुर्सी नहीं रही , तो सब अचानक  बदल गया, कहां गयीं वे सब चाहत, सम्मान,सहमति और सत्कार  की भीड़ व उनके सारे ताम-झाम।तब एक जोर का झटका बडें जोर से लगता है, इकबारगी तो यकीन नहीं आता- जो कल तक नजरें बिछाये घूमते थे, वे आज देखकर नजरें बचा लेते हैं,जो कल तक एक छोटी सी आवाज पर  तलबगार बने दौड़े भागे आते थे, आज चार बार के फोनकॉल को भी इग्नोर कर देते हैं।

उसको यह अहसास करना बड़ा कठिन होता है कि यह सब धाक और इज्जत, जिसे वह निज की भारी काबीलियत व जन्मसिद्ध अधिकार समझ बैठा ता, वह तो कुर्सी के ओहदे के वजह से थी, उसका अपना व्यक्तित्व अर्जित और स्थाई तो कुछ कभी था ही नहीं।कुर्सी के बिना व उतना ही आम व लाचार इंसान है, जितने बाकी सभी साधारणजन।

इसी सिलसिले में एक वाकया आपसे साझा करना चाहूँगा- दस साल पुरानी बात है मेंरी तैनाती तब इलाहाबाद में थी। मेंरे दफ्तर में विभाग के बड़े ऊंचे पद से कुछ वर्ष रिटायर हुये एक वरिष्ठ अधिकारी पधारे।वैसे सीधे तौर पर मैंने इस बड़े साहब के अधीनस्थ के रूप में कभी काम नहीं किया था, किंतु सुन रखा था कि साहब अपने जमाने के बड़े टेरर अफसर हुआ करते थे। मैंने उनका यथासंभव पूरे आदर व सम्मान के साथ स्वागत किया।

वे सरकारी सेवा से निवृत्त होकर अब एक प्राइवेट फर्म, जो रेलवे के प्रमुख मैंटेरियल सप्लायर है, के लिये काम करते थे।वे अपनी वर्तमान नियोक्ता कम्पनी के किसी पेंचीदे मसले को विभाग में अपने पुराने रसूख व दबदबे के इस्तेमाल से फर्म के पक्ष में सुलझाने की उम्मीद में आये थे।मैंने भी एक धीरे-धीरे सध रहे नौकरशाह की तरह  य़थासंभव कार्यवाही का आश्वासन दे जल्दी छुटकारा पाने का प्रयाश कर रहा था।हाँलाँकि उनके हाव-भाव से मुझे स्पष्ट दिख रहा था कि मेंरा उनके अनुरोध के आवरण में दिये गये आदेश का सीधे तौर पर ना-अमल उन्हे बहुत नागवार गुजर रहा था।

संयोगवश मेंरे साथ उस समय मेंरे दफ्तर में एक दूसरे सज्जन , जो  एक साधारण से ही प्रोन्नत अधिकारी के पद से हाँल ही में सेवानिवृत्त हुये थे, भी उपस्थित थे।इन महोदय ने बड़े साहब से विनम्रतापूर्वक अपना परिचय देते यह स्मरण दिलाने का प्रयाश किया कि कभी वे इन बड़े साहब के मातहत के रूप में काम किये थे।

बड़े साहब  बातचीत का सिलसिला चलते धीरे धीरे अपने पुरानी साहबी के  भ्रमलोक में पहुँचने से लगे। वे उस भले आदमी से  ऐसे बात कर रहे थे मानों वह उनका अब भी वही अदना व तुच्छ मातहत हो।पर यह व्यक्ति मौका पाते ही बड़े सटीक ढंग से पलटवार किया कि- साहब रिटायर्ड आदमी तो फ्यूज बल्ब की तरह होता है, क्या जीरो वाट या क्या हजार वाट । साहब तो यह सुनते अचकचा गये और  अपना व्यावहारिक दम्भ  छोड़ बगले झाँकने लगे।

तो हमें समझ लेना चाहिये कि यह हजार वाट तो कुर्सी का होता है, वरना तो एक साधारण इंसान के तौर पर हममें ज्यादा फर्क नहीं है, हम सब हकीकत में और अंततः तो हैं जीरो वाट के ही- चाहे हम मंत्री हों या संतरी।

तो साहब कुर्सी को सिर पर मत चढ़ने दें, ज्यादा मजे में व आजादमन रहेंगे।

6 comments:

  1. एकदम दुरुस्त कहा...जाने के बाद क्या,रहते भर में भी कुर्सी को दिमाग पर नहीं चढ़ने देना चाहिए...नहीं तो यह आदमी की ऐसी मानसिक दुर्गति करता है कि किसी हाल का नहीं छोड़ता...

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  2. जी हुजूर, ख्याल रखेंगे।

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  3. बड़ी देर से आती है यह समझ और आती है तो अक्‍सर दूसरों को समझाने के लिए, काश हम सब यह समझकर आत्‍मसात कर लें.

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  4. हम तो कहते हैं कि कुर्सी के सिर पर न चढ़ें। वह बैठने की चीज है उस पर बैठें, जब वह कहे कि उतर भई तो उतर जाएं।

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  5. प्रिय रंजना जी, प्रवीण जी, राहुल जी व राजेश जी टिप्पड़ी हेतु हार्दिक आभार।

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  6. वाह! कमाल की प्रस्तुति है,देवेन्द्र भाई.

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