Saturday, March 31, 2012

नजरों की थी खुली शरारत,पैरों ने ठोकर खायी ।




रोशन था कमरा यूँ जैसे ताजी फैली धूप सुनहरी ।
पर बिस्तर की सिलवट कहती तड़प थी कितनी गहरी।1

गुस्ताखी थी कुछ लमहों की,सदियों ने सजा है पायी।
नजरों की थी खुली शरारत,पैरों ने ठोकर खायी।2

सब दर्द सहे,खामोश रहे,पर लब से कुछ ना बोले ।
पर आँसू की बेबाकी ने गम के चिट्ठे  सारे  खोले।3

सारी चीख-पुकार अनसुनी  दुनिया कितनी बहरी ।
साँसों की यह तपिस बताती आह बहुत ही गहरी ।4

कहते सब रफ्तार तेज़ है,यह  शहर बहुत  जिंदादिल ।
बीच चौक पर इज्जत लुटती तमाशबीन सब बुज़दिल।5

हर नुक्कड़ पर यही मुनादी बैठी है इंसाफ कचहरी।
दहशत में रातें कटती हैं , क्या देहाती क्या शहरी ।6

कितने ही कत्लेआमों की देता है इतिहास गवाही।
लाखों ज़ख्म अनेकों छालें खामोश चलें सब राही।7


(इन पंक्तियों की मेरी आवाज में आडियो क्लिप )



 









6 comments:

  1. कहते सब रफ्तार तेज़ है,यह शहर बहुत जिंदादिल ।
    बीच चौक पर इज्जत लुटती तमाशबीन सब बुज़दिल।5।
    आज़ादी के ६५ वर्ष बाद यही तो हमने तरक्क़ी की है।

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    1. जी मनोज,कुछ स्थितियाँ अभी भी हैं तो काफी चिंताजनक।

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  2. नजरों को सदा ही यह अधिकार मिला है..पैरों की क्या बिसात..बहुत गहरा।

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    1. टिप्पड़ी हेतु आभार प्रवीणजी।

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  3. रचना दिक्षित जी की टिप्पड़ी जो ईमेल द्वारा प्राप्त हुईः

    यह सारी चिंताएँ एक दम जायज़ है. क्या कभी इनका समाधान भी हो पायेगा? गंभीर प्रस्तुति.

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    1. समस्याओं पर चिंतन व उनके समाधान हेतु निरंतर सार्थक प्रयाश तो जारी रखना ही पड़ेगा।

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