सर्द आहें तो कितनी निकलती मगर,
दिल की जलती अगन कब है इससे बुझे।
शक्ल अपनी दिखे ख्वाइशें थी बहुत,
आईने की इजाजत मिली ना मुझे।1।
खुद की आवाज तक तो वो सुनता नहीं,
खाक उसकी मुनादी से बस्ती जगे।
टेढ़ी गलियों में चलने की आदत उसे,
सीधे रिश्ते उसे रास कब से
लगे ।2।
कल जो पहलू से गुजरे यूँ इक अजनबी,
आज महफिल में उनकी ही चर्चा किये ।
कल जो नजरंदाज उनको किये हरघड़ी,
आज उनकी ही आँखों से जमकर पिये।3।
कितनी मुश्किल थी वह इंतजार-ए- घड़ी,
लमहे गिनते हुये जिंदगी यूँ कटी ।
शम्मा जलती रही चाँद ढलता रहा,
रात करती इशारे कि महफिल उठी ।4।
शोर इतना था कि उनकी महफिल चली,
पर रास्ते में दिखे फख्त तन्हा अकेले।
आज वे ही चुराते नजर मुश्किलों में,
कल बढ़कर सभी बोझ कंधों पर झेले।5।
कर दो उनको इशारे कि इनायत करें,
कितनी बेताब महफिल है उनके बिना।
कुछ लमहों की गुस्ताखियों के लिये ,
कौन सदियों तलक जुल्म-ए-गिनती गिना ।6।
वक्त कितने गुजारे ज़िरह में मगर,
उनकी बदहालसूरत जो भी ज़ान लेते।
जो दो घूँट पानी हलक को मिला था,
बड़ी बेबसी से वे न दम तोड़े होते ।7।
वक्त कितने गुजारे ज़िरह में मगर,
ReplyDeleteउनकी बदहालसूरत जो भी ज़ान लेते।
जो दो घूँट पानी हलक को मिला था,
बड़ी बेबसी से वे न दम तोड़े होते.
वक्त की नाकेबंदी बहुत जरूरी है. सुंदर कविता के लिये बधाई.
धन्यवाद रचना जी ।
Deleteशोर इतना था कि उनकी महफिल चली,
ReplyDeleteपर रास्ते में दिखे फख्त तन्हा अकेले।
आज वे ही चुराते नजर मुश्किलों में,
कल बढ़कर सभी बोझ कंधों पर झेले।
बहुत बढ़िया रचना,सुंदर अभिव्यक्ति,बेहतरीन पोस्ट,....
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: मै तेरा घर बसाने आई हूँ...
धन्यवाद।
Deleteबहुत खूब, मन के विचारों को शब्दों का विस्तार मिल रहा है।
ReplyDeleteटिप्पड़ी हेतु आभार प्रवीण जी ।
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