हरिवंशराय
बच्चन जी की एक अति
सुंदर कविता है , जिसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे बचपन में ही कंठस्थ हो गयी थीं,
क्योंकि ये पंक्तियाँ मेरे पिताजी की भी
फेवरेट थी और मैं अकसर उन्हे इन पंक्तियों
को गुनगनाते सुनता था-
क्या किया मैंने
नही जो
कर चुका संसार अबतक? वृद्ध जग को क्यों अखरती है क्षणिक मेरी जवानी? |
|
मैं
छिपाना जानता तो
जग मुझे साधू समझता, शत्रु मेरा बन गया है छल-रहित व्यवहार मेरा! |
|
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा! |
जब बड़ा
हुआ व कविता के प्रति अभिरुचि उत्पन्न हुई तो कभी मेरी उत्सुकतावश इन पंक्तियों के
बारे में मेरे पूछी गयी जानकारी में पिताजी
ने बताया था कि ये पंक्तियाँ बच्चन जी की एक प्रसिद्ध कविता – ‘कवि की वासना’ से है, जो कि उन्होने अपनी प्रिय
काव्यरचना मधुशाला की उनके समकालिन कुछ कवियों व भाषा-आलोचकों द्वारा कि जाने वाली
आलोचना व आरोप , कि यह काव्य वासनामय भावों को अभिव्यक्त करता है, इसमें कविता के रूप के एक व्यक्ति ने मात्र अपनी मन की छुपी वासना का उद्गार
किया है,और इससे समाज व विशेषकर इसकी युवा पीढ़ी पर कुप्रभाव पड़ रहा है,से अति
आहत और दुःखी होकर, प्रतिक्रिया स्वरूप लिखा था ।
ऐसे आलोचकों
में हिंदी साहित्य व लेखन जगत की अपने समय की बड़ी व प्रभावशाली शख्सियत पंडित बनारसी
दास चतुर्वेदी जी भी थे, जो कि बच्चन जी कि कविता, विशेषकर उनकी मधुशाला जैसी कविताओं के कड़े आलोचक थे, व कई
काव्य व साहित्य गोष्ठियों में प्रत्यक्ष रुप से अपनी आलोचना को व्यक्त कर चुके
थे। पर , जैसा मुझे बाद में कहीं पढ़ने से ज्ञात हुआ, मजेदार बात तो यह रही कि इस
कविता को पहली बार प्रकाशित भी पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी जी ने ही अपनी पत्रिका किया।
यदि कविता
को पढ़ें तो इसकी भाषा व शब्दों से भी सहज आकलन कर सकते हैं कि यह कविता कवि ने
बड़े ही क्षोभ, दुःखी व आक्रोशित मन से लिखी होगी व अपनी इस कविता द्वारा अपने
आलोचकों की सीधा जबाब देना चाहा है।
कवि की
वासना / हरिवंशराय बच्चन
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
१
सृष्टि के प्रारंभ में
मैने उषा के गाल चूमे,
बाल रवि के भाग्य वाले
दीप्त भाल विशाल चूमे,
प्रथम संध्या के अरुण दृग
चूम कर मैने सुलाए,
तारिका-कलि से सुसज्जित
नव निशा के बाल चूमे,
वायु के रसमय अधर
पहले सके छू होठ मेरे
मृत्तिका की पुतलियो से
आज क्या अभिसार मेरा?
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
२
विगत-बाल्य वसुंधरा के
उच्च तुंग-उरोज उभरे,
तरु उगे हरिताभ पट धर
काम के धव्ज मत्त फहरे,
चपल उच्छृंखल करों ने
जो किया उत्पात उस दिन,
है हथेली पर लिखा वह,
पढ़ भले ही विश्व हहरे;
प्यास वारिधि से बुझाकर
भी रहा अतृप्त हूँ मैं,
कामिनी के कंच-कलश से
आज कैसा प्यार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
३
इन्द्रधनु पर शीश धरकर
बादलों की सेज सुखकर
सो चुका हूँ नींद भर मैं
चंचला को बाहों में भर,
दीप रवि-शशि-तारकों ने
बाहरी कुछ केलि देखी,
देख, पर, पाया न कोई
स्वप्न वे सुकुमार सुंदर
जो पलक पर कर निछावर
थी गई मधु यामिनी वह;
यह समाधि बनी हुई है
यह न शयनागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
४
आज मिट्टी से घिरा हूँ
पर उमंगें हैं पुरानी,
सोमरस जो पी चुका है
आज उसके हाथ पानी,
होठ प्यालों पर टिके तो
थे विवश इसके लिये वे,
प्यास का व्रत धार बैठा;
आज है मन, किन्तु मानी;
मैं नहीं हूँ देह-धर्मों से
बिधा, जग, जान ले तू,
तन विकृत हो जाये लेकिन
मन सदा अविकार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
५
निष्परिश्रम छोड़ जिनको
मोह लेता विशॿन भर को,
मानवों को, सुर-असुर को,
वृद्ध ब्रह्मा, विष्णु, हर को,
भंग कर देता तपस्या
सिदॿध, ऋषि, मुनि सत्तमों की
वे सुमन के बाण मैंने,
ही दिये थे पंचशर को;
शक्ति रख कुछ पास अपने
ही दिया यह दान मैंने,
जीत पा*एगा इन्हीं से
आज क्या मन मार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
६
प्राण प्राणों से सकें मिल
किस तरह, दीवार है तन,
काल है घड़ियां न गिनता,
बेड़ियों का शब्द झन-झन
वेद-लोकाचार प्रहरी
ताकते हर चाल मेरी,
बद्ध इस वातावरण में
क्या करे अभिलाष यौवन!
अल्पतम इच्छा यहां
मेरी बनी बंदी पड़ी है,
विश्व क्रीडास्थल नहीं रे
विश्व कारागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
७
थी तृषा जब शीत जल की
खा लिये अंगार मैंने,
चीथड़ों से उस दिवस था
कर लिया श्रृंगार मैंने
राजसी पट पहनने को
जब हु*ई इच्छा प्रबल थी,
चाह-संचय में लुटाया
था भरा भंडार मैंने;
वासना जब तीव्रतम थी
बन गया था संयमी मैं,
है रही मेरी क्षुधा ही
सर्वदा आहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
८
कल छिड़ी, होगी ख़तम कल
प्रेम की मेरी कहानी,
कौन हूं मैं, जो रहेगी
विश्व में मेरी निशानी?
क्या किया मैंने नही जो
कर चुका संसार अबतक?
वृद्ध जग को क्यों अखरती
है क्षणिक मेरी जवानी?
मैं छिपाना जानता तो
जग मुझे साधू समझता,
शत्रु मेरा बन गया है
छल-रहित व्यवहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
हो रहा उद्गार मेरा!
१
सृष्टि के प्रारंभ में
मैने उषा के गाल चूमे,
बाल रवि के भाग्य वाले
दीप्त भाल विशाल चूमे,
प्रथम संध्या के अरुण दृग
चूम कर मैने सुलाए,
तारिका-कलि से सुसज्जित
नव निशा के बाल चूमे,
वायु के रसमय अधर
पहले सके छू होठ मेरे
मृत्तिका की पुतलियो से
आज क्या अभिसार मेरा?
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
२
विगत-बाल्य वसुंधरा के
उच्च तुंग-उरोज उभरे,
तरु उगे हरिताभ पट धर
काम के धव्ज मत्त फहरे,
चपल उच्छृंखल करों ने
जो किया उत्पात उस दिन,
है हथेली पर लिखा वह,
पढ़ भले ही विश्व हहरे;
प्यास वारिधि से बुझाकर
भी रहा अतृप्त हूँ मैं,
कामिनी के कंच-कलश से
आज कैसा प्यार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
३
इन्द्रधनु पर शीश धरकर
बादलों की सेज सुखकर
सो चुका हूँ नींद भर मैं
चंचला को बाहों में भर,
दीप रवि-शशि-तारकों ने
बाहरी कुछ केलि देखी,
देख, पर, पाया न कोई
स्वप्न वे सुकुमार सुंदर
जो पलक पर कर निछावर
थी गई मधु यामिनी वह;
यह समाधि बनी हुई है
यह न शयनागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
४
आज मिट्टी से घिरा हूँ
पर उमंगें हैं पुरानी,
सोमरस जो पी चुका है
आज उसके हाथ पानी,
होठ प्यालों पर टिके तो
थे विवश इसके लिये वे,
प्यास का व्रत धार बैठा;
आज है मन, किन्तु मानी;
मैं नहीं हूँ देह-धर्मों से
बिधा, जग, जान ले तू,
तन विकृत हो जाये लेकिन
मन सदा अविकार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
५
निष्परिश्रम छोड़ जिनको
मोह लेता विशॿन भर को,
मानवों को, सुर-असुर को,
वृद्ध ब्रह्मा, विष्णु, हर को,
भंग कर देता तपस्या
सिदॿध, ऋषि, मुनि सत्तमों की
वे सुमन के बाण मैंने,
ही दिये थे पंचशर को;
शक्ति रख कुछ पास अपने
ही दिया यह दान मैंने,
जीत पा*एगा इन्हीं से
आज क्या मन मार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
६
प्राण प्राणों से सकें मिल
किस तरह, दीवार है तन,
काल है घड़ियां न गिनता,
बेड़ियों का शब्द झन-झन
वेद-लोकाचार प्रहरी
ताकते हर चाल मेरी,
बद्ध इस वातावरण में
क्या करे अभिलाष यौवन!
अल्पतम इच्छा यहां
मेरी बनी बंदी पड़ी है,
विश्व क्रीडास्थल नहीं रे
विश्व कारागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
७
थी तृषा जब शीत जल की
खा लिये अंगार मैंने,
चीथड़ों से उस दिवस था
कर लिया श्रृंगार मैंने
राजसी पट पहनने को
जब हु*ई इच्छा प्रबल थी,
चाह-संचय में लुटाया
था भरा भंडार मैंने;
वासना जब तीव्रतम थी
बन गया था संयमी मैं,
है रही मेरी क्षुधा ही
सर्वदा आहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
८
कल छिड़ी, होगी ख़तम कल
प्रेम की मेरी कहानी,
कौन हूं मैं, जो रहेगी
विश्व में मेरी निशानी?
क्या किया मैंने नही जो
कर चुका संसार अबतक?
वृद्ध जग को क्यों अखरती
है क्षणिक मेरी जवानी?
मैं छिपाना जानता तो
जग मुझे साधू समझता,
शत्रु मेरा बन गया है
छल-रहित व्यवहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
बाद में
बड़े होने पर भी मेरी इस कविता में अभिरुचि बनी रही, और धीरे-धीरे स्वयं को कई बार
इसे पढ़ने का मौका देने के कारण यह कविता मुझे कंठस्थ सी हो गयी।और अब तो स्वभावतन
मैं भी, अपने पिताजी की ही तरह, यह कविता अक्सर गुनगुनाया करता हूँ।
madhushaala is mt fev... poem.....this one is also very good....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
ReplyDelete.
ReplyDeleteमैं छिपाना जानता तो
जग मुझे साधू समझता,
शत्रु मेरा बन गया है
छल-रहित व्यवहार मेरा!
yahi hota hai Devendra ji . A bitter truth !
.
जी दिव्या, किंतु छलरहित जीवन का भी अपना सुख है।
ReplyDeleteटिप्पड़ी के लिये आभार।आप आहत मन से एक बार ब्ल़ॉग लिखना छोड़ने का निर्णय लिखीं, तो मुझे बहुत दुःख हो रहा था। आप इतना सुंदर व भावमय लिखती हैं। मुझे प्रसन्नता है कि आप नियमित लिख रही हैं और हमें आपको पढ़ने का सौभाग्य मिल रहा है।
सही कहा देवेन्द्र जी बच्चन जी कवितायेँ वास्तव में कालजयी हैं और हर उम्र के लिये प्रभाव छोड़ती हैं. आभार एक बार फिर बच्चन साहब को पढवाने के लिये.
ReplyDeleteबच्चन जी को शत-शत नमन!
ReplyDelete