Monday, October 31, 2011

करवट लेते रिश्तों के सिरहाने से.......


खाते थे  कसम कल मेरी जो 
अब ढोते  हैं  भारी मन से,
झुकते  कंधों पर, अनमन से,
हम-रिश्तों को सलीबों की तरह।1।

रिश्ते जो फूल से हल्के थे,
खुशहवाओं की तरह जो उड़ते थे,
वे भारी से हो लगते है अब
भीगी रुई के  बंडल की तरह।2।

संग आम-बगीचे में खेले थे,
संग दौड़े, नंगे पाँव पतंगे लूटीं,
अब वे और मैं मेले में खोये,
बन राहगुजर अजनबी की तरह।3।

जिन्हे हिज्जों और पहाड़ों को
सिखाने में मैंने थप्पड़ मारे थे,
उन्हे एक नसीहत भी आज मेरी
लगती है किसी नश्तर की तरह।4।

जिन्हे मुझपर भरोसा था,मेरी
बातों को ऐतिहात समझते थे,
उड़ा, गुम सा हुआ,जाने कब वो
दिली-अपनापन उड़नछूँ की तरह।5।

ऐ वक्त! मिलें तो उनसे कहना
अपने हिस्से की चाकलेट मैं
अपनी जेब में छुपाकर रखता हूँ
अब भी उनके लिये बचपन की तरह।6।

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