खींचता
प्रस्तर-पटल पर अमिट रेखा,
समय
की वह धार हूँ मैं।
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मन
जलधि को मथ रहा ज्ञान वासुकी से
मस्तिष्क
का चिंतन-विचार हूँ मैं।
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वेदना
के बादलों की कोख में घनीभूत हो,
नयन
से छलकी हुई अश्रु-बूँद हूँ मैं।
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वादियों
के शोर और तूफान से निरा अपरिचित,
खामोश
सी कोमल तरंगित शीतल वात हूँ मैं।
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युग-युगों
की वेदना से मनुजता जो चित्कार करती,
अनसुनी,दिल में दबी वह आह हूँ मैं।
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चल
रहा कृत्य-अपकृत्य का संघर्ष निरंतर
मनुजता
को खे रहा पतवार हूँ मैं।
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Sunday, October 23, 2011
समय की वह धार हूँ मैं.......
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कविता की परिभाषा ।
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समय की धार में बहते हुये, हर रोज उतराते रहे।
ReplyDeleteवादियों के शोर और तूफान से निरा अपरिचित,
ReplyDeleteखामोश सी कोमल तरंगित शीतल वात हूँ मैं।
बहुत खूब ......!
बेहतरीन..
ReplyDeleteआज ते बदले-बदले सरकार नज़र आते हैं।
खींचता प्रस्तर-पटल पर अमिट रेखा,
ReplyDeleteसमय की वह धार हूँ मैं।
क्या कहूँ अब. निःशब्द कर दिया आपने तो.
आपको व आपके परिवार को दीपावली कि ढेरों शुभकामनायें