मैं नियति के भाल पर शिव तिलक बनकर
कर रहा अभिषेक इस त्रिभुवन जगत का।
सप्त धनुषी तूलिका ले मृदुल कर में ,
लालिमा से रंग रहा मैं सुपटल क्षितिज
का।1।
पर फैलाये हरितवन,गह्वर अमर दल
बलभुजा से शीतल सुरभि के चँवर देता।
चाँदनी की बह रही शीतल मधुर सरि,
शशिकलाओं की तरंगिनि को सहज पतवार देता ।2।
कमनीय वीणा बन हिमालय कस रहा
निज तंतुओं की रास को धुन पर सजाते।
वादियों से हैं गुजरती कामिनी, चंचल सरित
धवल तन से केलि करतीं, प्रणयसुर में गीत गाते।3।
सूर्य-कर-राशि-साधन कर रहा मैं सारथी बन,
हाँकता हूँ सूर्य-रथ को मैं अथक निरंतर।
ऊंकार के अनुनाद से, करतल थाप से मेरे,
कंदुक सदृस यह नृत्य करती धरा गुरुतर।4।
प्रकृति के प्रकल्प में जीवन का विकल्प बताती कविता।
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